मोदी सरकार देशवासियों से सब्सिडी छोड़ने की अपील कर रही है, उनका मानना है
कि ये पैसा आम जनता के काम आएगा, ऐसे में मध्यप्रदेश के “रईस” भाजपा नेता मीसाबंदी
पेंशन को लेकर इतने गुस्सा क्यों है, क्यों नहीं वे देशभक्ति की कीमत वसूलने के बजाय
पेंशन का त्याग खुद ही कर दे।
iमध्यप्रदेश में मीसाबंदियों की पेंशन को लेकर जंग छिड़ी हुई है। लोकतंत्र सेनानी सम्मान निधि के तौर पर इसके तहत मीसाबंदियों को 25000 रुपये प्रतिमाह पेंशन मिलती है। शिवराज सरकार ने 2008 में इसे लागू किया। कमलनाथ सरकार ने इस पेंशन को बंद करने की घोषणा की है , सरकार का कहना है बहुत सारे अपात्र लोग इसके तहत पेंशन ले रहे हैं। पेंशन लेने वालों में खुद शिवराज सिंह चौहान ,पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी, इंदौर भाजपा के अध्यक्ष गोपीकृष्ण नेमा सहित कई बड़े नेता शामिल है। सवाल ये है कि केंद्र की मोदी सरकार देशहित में लोगों से गैस सिलिंडर तक की सब्सिडी छोड़ने के लिए अपील कर रही है। ऐसे वक़्त में ये नेता लोकतंत्र को बचाने की कीमत क्यों वसूलने में लगे है। जो लोग वाकई आंदोलनकारी रहे हैं और जरूरतमंद हैं, उन्हें ये पेंशन जरुर मिलनी चाहिए। पर मंत्री, मुख्यमंत्री और अमीर नेताओं को ऐसी पेंशन क्यों मिले। क्यों नहीं देशभक्ति की कीमत वसूलने के बजाय भाजपा के बड़े नेता खुद इस पेंशन को छोड़ देते। आखिर जनता से सब्सिडी छोड़ने की अपील करने वाले खुद जनता के भले के लिए काम आये वाले रुपयों की पेंशन क्यों ले रहे है.
सरकार की नीयत साफ़ है, तो वो दिखनी भी चाहिए
मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार के फैसलों की रफ़्तार प्रशंसनीय है। पुलिसकर्मियों को साप्ताहिक अवकाश, किसानों की कर्ज माफ़ी जैसे फैसले राहत देते हैं। समय पर फैसले लेना अच्छा संकेत है, पर एक बुनियादी फर्क सरकार को समझना होगा। समय पर फैसले लेना और जल्दबाजी में फैसले लेना, बहुत अंतर पैदा कर देता है। किसी भी फैसले के पीछे की सोच, समुचित तर्क और विकल्प का होना जरूरी है। खासकर जब फैसले बड़े वर्ग की भावनाओं से जुड़े हुए हों। मीसाबंदियों की पेंशन पर दिए गए बयान और मंत्रालय के कर्मचारियों द्वारा प्रत्येक महीने की एक तारीख पर गाये जाने वाले ‘वंदे मातरम्’ पर रोक लगाने संबंधी बयान ऐसी ही जल्दबाजी के उदाहरण हैं। जन भावनाओं से जुड़े ये दोनों मुद्दे विपक्ष के पास एक व्यापक विरोध प्रकट करने और जनता के बीच कांग्रेस की छवि को अलग दिशा में गढ़ने के लिए काफी है। सरकार ने कोई बड़ा जनहित वाला कदम उठाया है, तो उस पर उसे टिके रहना होगा।
मीसाबंदियों को पेंशन मामले में सरकार का कदम सीधे-सीधे गलत नहीं ठहराया जा सकता है, बशर्ते इसके पीछे राजनीतिक कारण न हो। सरकार का तर्क है कि बहुत सारे ऐसे लोगों के खाते में ये पेंशन जा रही है, जो इसके हकदार नहीं है। सरकार पूरी सूची का भौतिक सत्यापन करेगी, उसके बाद ही अंतिम निर्णय होगा। इसके अलावा एक तर्क ये भी है कि लोकतंत्र सैनानी सम्मान निधि के लिए आवंटित धन से ज्यादा का भुगतान किया जा रहा है। इसके चलते ऑडिट के दौरान इसका मिलान मुश्किल होता। पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के बाद अगले माह से नई सूची और नियमों के तहत पेंशन का वितरण किया जाएगा।
इसमें कही कोई बुराई नजर नहीं आती। किसी भी योजना में यदि अपात्र लोग लाभ ले रहे हैं, तो उन्हें रोका ही जाना चाहिए। प्रदेश में लगभग दो हजार मीसाबंदी है, पच्चीस हजार रुपए प्रतिमाह इनको पेंशन मिलती है। देखने में ये संख्या बेहद कम है, इसपर सालाना 75 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। मीसाबंदी पेंशन पर जिस तरह से पिछले दस सालों में वृद्धि हुई है, वो चौंकाने के साथ-साथ कई सवाल भी खड़े करती है। साल 2008 में 3000 से शुरू होकर ये पेंशन पहले दस हजार तक पहुंची। शिवराज सरकार ने 2017 में इसे दस हजार से बढ़ाकर सीधे पच्चीस हजार कर दिया। जिस राज्य में स्कूली शिक्षा विभाग में अतिथि शिक्षकों को आठ घंटे की नौकरी के बाद मात्र तीन से चार हजार रुपये मिलते हो, वहां इस तरह से पेंशन का बढ़ जाना उचित नहीं ठहराया जा सकता। कमलनाथ सरकार को भी शिक्षाकर्मी और दूसरे बेहद कम मेहनताने पर काम करने वाले कर्मियों पर ध्यान देना होगा, तभी समाज में उनके आर्थिक फैसलों को सहमति मिलेगी।
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