पंकज मुकाती
भोपाल। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह। नाम के अनुरूप दिग्विजय अब नहीं रह गए हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में भोपाल में वे साध्वी प्रज्ञा सिंह से करीब चार लाख वोटों से हारे। साध्वी से हारने के बाद राजा अब अपने गढ़ में फिर लौट आये हैं। यानी राजगढ़ सीट पर। इसे वे अपना घर मानते हैं। यहाँ से दो बार सांसद रह चुके हैं दिग्विजय। उनके भाई लक्ष्मण सिंह और दिग्विजय के करीबी इस सीट पर सात बार जीत चुके हैं। पर इस बार ‘राजा’ घर में भी बहुत सुरक्षित नहीं दिख रहे। उनके किले में वो तेज नहीं दिख रहा।
दिग्विजय इस सीट पर 33 साल बाद लौटे हैं। आखिरी बार मुख्यमंत्री बनने के पहले यहाँ लड़े, जीते थे। तैंतीस साल में पूरी पीढ़ी बदल गई है। पिछले दो चुनाव से इस सीट पर बीजेपी जीत रही है। एक तरह से दिग्विजय इस इलाके में अपनी मौजदूगी तो रखते हैं, पर कांग्रेस का वजूद बेहद कमजोर पड़ गया है। खुद दिग्विजय इस बात को समझ रहे हैं, इसलिए वे अब इमोशनल कार्ड खेल रहे हैं। वे प्रचार में कह रहे हैं -मेरा आखिर चुनाव है,] राजनीतिक विदाई जीत से चाहता हूँ। वे घर-घर ये बात पंहुचा रहे हैं।
दिग्विजय के राजगढ़ से लड़ने को यदि राजगढ़ के बाहर से देखेंगे तो वे एक मजबूत राजा दिखेंगे। पर जब पॉलिटिक्सवाला राजगढ़ पंहुचा, तो जमीनी हकीकत एक दम अलग है। दिग्विजय जब अंतिम चुनाव लड़े थे तब से अब तक बहुत कुछ बदल चुका है। तेंतीस साल में पीढ़ी बदल गई। नए वोटर्स की संख्या आधी से ज्यादा है। वे दिग्विजय को नाम से जानते हैं, पर इस नई पीढ़ी को इमोशनल अपील से कितना असर पड़ेगा ? ये मोदी और हिन्दुत्वादी पीढ़ी है ये दिग्विजय के साथ नहीं दिखाई दे रही।
इस चुनाव में दिग्विजय के चुनाव प्रचार में भी आधुनिक धार नहीं दिखाई दे रही। वे इस युद्द में ऐसे उतरे हैं मानो परमाणु हथियार के दौर में कोई पुराना राजा राइफल लेकर उतरा हो। वे पदयात्रा और भजन मण्डली जैसे प्रचार कर रहे हैं। उनके ये तरीके उनकी पीढ़ी के लोगों को तो जोड़ रहे हैं। नई पीढ़ी का क्या ? सोशल मीडिया पर प्रचार बेहद कमजोर है। युवा पीढ़ी के लिए कुछ नया नहीं है। दिग्विजय की पूरी उम्मीद सिर्फ साठ की उम्र से ज्यादा वाले मतदाताओं पर टिकी है। ऐसे मतदाता कुल वोटर्स का 25 फीसदी से ज्यादा नहीं है। एक उम्मीद ये भी है कि दिग्विजय अपने इस पदयात्रा वाले तरीके से चुनाव के नए दौर को गलत साबित कर दें।
संघ और मोदी विरोधी छवि का भी नुकसान
राजगढ़ वाले पूरे इलाके में संघ ने बहुत मजबूत पैठ बना ली है। इस पैठ के चलते ही पूरे इलाके में हिंदूवादी वोटर्स बढे हैं। विधानसभा चुनाव में इसका असरदिखा। दिग्विजय की छवि संघ विरोधी रहे है। उनके विवादित बयानों को युवा पीढ़ी पसंद नहीं करती। ऐसे में संघ की विचारधारा वाले मतदाताओं का मानस दिग्विजय कितना बदल पाएंगे ये भी समझना होगा।
राजगढ़ कांग्रेस के हाथ से फिसलने के जिम्मेदार भी दिग्विजय
राजगढ़ सीट कांग्रेस का गढ़ रही। इसके टिकट का फैसला हमेशा से दिग्विजय ही कर रहे हैं। इस इलाके में लगातार संघ और बीजेपी ने पैठ बनाई। दिग्विजय ने कांग्रेस को मजबूत बनाये रखने के लिए कोई काम नहीं किया। पिछले दो चुनाव में दिग्विजय ने अपने ऐसे चहेतों को टिकट दिलवाये जो बेहद कमजोर थे।
एक तरह से जैसे कमलनाथ ने छिंदवाड़ा और कांतिलाल भूरिया ने अपने गढ़ झाबुआ को बचाये रखा दिग्विजय ने इस इलाके के लिए कुछ ख़ास नहीं किया।दिगिवजय ने पिछले लोकसभा चुनाव में मोना सुस्तानी को टिकट दिलवाया था, वे खुद बीजेपी में शामिल हो गईं।
‘गढ़’ में दिग्विजय, इतिहास
दिग्विजय सिंह ने राजगढ़ लोकसभा सीट से पहली बार लोकसभा चुनाव करीब 40 साल पहले 1984 में और आखिरी बार करीब 33 साल पहले 1991 में लड़ा था. दोनों ही बार दिग्विजय सिंह ने जीत दर्ज की थी. सिंह 1993 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे. इसलिए उन्होंने यह सीट छोड़ दी थी. इसके बाद उनके भाई लक्ष्मण सिंह 2004 तक लगातार जीतते रहे. इस क्षेत्र में दिग्विजय सिंह और उनके परिवार को अच्छा प्रभाव माना जाता है. उनके परिवार की पारंपरिक सीट राघोगढ़ सीट भी इसी लोकसभा सीट में आती है, जहां वर्तमान में दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन सिंह विधायक हैं.
मुकाबले पर नजर
2014 से यहां भाजपा का दबदबा है. दो बार से रोडमल नागर जीत रहे हैं. यही नहीं लोकसभा में आने वाली 8 में से 6 विधानसभा सीटों पर भाजपा का कब्जा है. सिर्फ राघोगढ़ और सुसनेर सीट पर कांग्रेस का कब्जा है. दूसरी ओर राजगढ़ सीट पर 16 बार आम चुनाव हुए हैं, जिसमें से अकेले 7 बार कांग्रेस ने जीत दर्ज की है. लंबे समय तक दिग्विजय और उनके परिवार का कब्जा रहा है.
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