सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )
अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव के पहले अब यह तस्वीर साफ हो गई है कि पिछले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार होंगे। मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन डेमोक्रेटिक पार्टी के। यह दो उम्मीदवारों की एक खासी बुजुर्ग टीम होगी, जो आमने-सामने तो है, लेकिन दोनों ही उम्रदराज हैं, बाइडन 81 बरस के, और ट्रंप 77 साल के।
इनमें से बाइडन की उम्र उनकी सेहत पर झलकने भी लगी है, और कभी याददाश्त, तो कभी उनका बदन लडख़ड़ाने भी लगा है। फिर भी दोनों अपनी-अपनी पार्टियों के भीतर की चुनौतियों से गुजरते हुए, अब तकरीबन एक-दूसरे के सामने खड़े हैं।
अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव पर आज लिखने की वजह यह भी है कि यह भारत के चुनावी माहौल से एकदम ही अलग नजारा है। पिछले कुछ बरसों में अमरीकी राष्ट्रपति और भारत के प्रधानमंत्री के बीच जिस तरह का तालमेल चलते आया है, उसके चलते इन दोनों चुनावों के फर्क समझना भी जरूरी है। पहले तो अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में अपनी पार्टी के प्रत्याशी बनने के लिए किसी नेता को जिस दौर से गुजरना होता है, उसकी कल्पना भी हिन्दुस्तानी राजनीति में नहीं की जा सकती।
जो लोग चुनाव लडऩा चाहते हैं, उन्हें पहले अपनी पार्टी की राज्य इकाईयों के बीच जाकर अपना प्रचार करना पड़ता है। लोगों को अपनी निजी उम्मीदवारी के फायदे गिनाने पड़ते हैं। यह बात इस हद तक चली जाती है कि ऐसे दूसरे महत्वाकांक्षी नेताओं की खुली आलोचना भी मंच पर होती है।
पार्टी के खुले मंच पर ये नेता एक-दूसरे से बहस करते हैं। आगे की अपनी सोच बताते हैं। यह बात पार्टी के ही दूसरे नेताओं की खुली आलोचना तक चली जाती है। जिसका कोई बुरा नहीं मानते। यह पार्टियों के भीतर का ऐसा आंतरिक लोकतंत्र है, कि जिसकी कोई कल्पना हिन्दुस्तान में नहीं की जा सकती।
अमरीकी पार्टियों के नेता शांत रहकर सभी महत्वाकांक्षी लोगों को खुलकर प्रचार करने देते हैं। मंच पर खुलकर एक-दूसरे से बहस करने देते हैं। यह भी नहीं माना जाता कि ऐसी आलोचना बाद में दूसरी पार्टी के उम्मीदवार के काम आएगी। बल्कि होता यह है कि लोगों की सारी कमजोरियां अपनी पार्टी के भीतर ही उजागर हो जाती हैं, उन पर बहस हो जाती है, उनका जवाब भी दे दिया जाता है।
इस तरह आग में तपकर जो उम्मीदवार बचते हैं, जिन्हें अपनी पार्टी के प्रदेश संगठनों का समर्थन मिलता है। वे उम्मीदवारी तक पहुंचते हैं। भारत में अगर किसी एक पार्टी के लोग एक-दूसरे के मुकाबले किसी मंच पर खड़े होकर बहस भी कर लें, तो पार्टी उन्हें शायद निकाल बाहर करे।
इसका एक बड़ा नुकसान यह होता है कि किसी भारतीय राजनीतिक दल में संगठन पर काबिज लोग अपनी मनमर्जी और मनमानी से उम्मीदवार तय कर लेते हैं। लोगों को, पार्टी संगठन के कार्यकर्ताओं को अपनी राय रखने का कोई खुला मंच नहीं मिलता।
अब एक दूसरी बड़ी बात जो कि भारत और अमरीका के बीच अलग है, वह राष्ट्रपति प्रणाली है। अमरीका के हर वोटर राष्ट्रपति को चुनने के लिए वोट डालते हैं, जबकि हिन्दुस्तान प्रधानमंत्री को चुनने में वोटरों का कोई सीधा हाथ नहीं रहता, वोटर सांसद भर चुनते हैं। फिर वे सांसद अपनी पार्टी के कहे मुताबिक प्रधानमंत्री चुनते हैं।
किसी सांसद की भी कोई मर्जी प्रधानमंत्री चुनने में नहीं रहती। इस तरह हिन्दुस्तान में पार्टी संगठन संसद और विधानसभा चुनाव के उम्मीदवार तय करने से लेकर, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री तक सबको तय करते हैं। न तो पार्टी के आम कार्यकर्ताओं की कोई भूमिका रह जाती, न ही जनता की। इस मामले में अमरीकी चुनाव अधिक लोकतांत्रिक हैं जहां किसी पार्टी के उम्मीदवार बनने के लिए लोगों को देश भर के अपने संगठन के भीतर बहुमत-समर्थन पाना रहता है, और तभी जाकर वे राष्ट्रपति चुनाव लड़ पाते हैं।
वैसे तो हर देश की चुनाव व्यवस्था अलग-अलग रहती है। किसी एक देश के किसी एक पहलू को किसी दूसरे देश पर लागू करना गलत भी हो सकता है। लेकिन हमें पार्टी के भीतर का लोकतंत्र और अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच समर्थन साबित करने की अमरीकी स्थिति बड़ी अच्छी लगती है।
पल भर के लिए अगर हिन्दुस्तान जैसे देश में देखें कि यहां किसी संसदीय सीट पर पार्टी के हर तरह के पदाधिकारी, और पार्टी के सक्रिय सदस्य किसी मंच पर उम्मीदवार बनने की चाहत रखने वाले लोगों को सुनें, उनसे सवाल करें, उनकी तुलना करें, और फिर पार्टी के भीतर उनके लिए मतदान करें, तो जाहिर तौर पर हिन्दुस्तानी उम्मीदवारों का स्तर ऊपर जा सकता है।
आज तो दिल्ली में बंद कमरे में बैठकर संगठन के नेता जो तय करते हैं, वही उम्मीदवारी हो जाती है, और पार्टी के सदस्यों और कार्यकर्ताओं के लिए उसी पसंद का साथ देने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता। अगर पार्टी सदस्यों के बीच से मतदान से जीतकर आने की व्यवस्था हिन्दुस्तान में रहती, तो जनता के बीच बेहतर उम्मीदवार आ सकते थे।
लेकिन यहां जाति और धर्म, क्षेत्र के साथ-साथ पार्टी के बड़े नेताओं के अलग-अलग गुटों के बीच संतुलन जिस तरह बनाया जाता है, उससे बड़े समझौतों से उम्मीदवारी तय होती है। और उसका पार्टी सदस्यों में समर्थन होना कहीं जरूरी नहीं रहता। अमरीकी चुनाव व्यवस्था से कुछ सीखकर अगर हिन्दुस्तान में कोई बड़ी पार्टी उसी तरह से संगठन का लोकतंत्र कायम कर सके, तो शायद ऐसी पार्टी अधिक मजबूत भी होगी।
अब पता नहीं संगठनों पर काबिज खूसट लोग अपना शिकंजा ढीला करना चाहेंगे या नहीं, लेकिन अगर हिन्दुस्तान में पार्टियां बर्बाद हुई हैं, तो ऐसे ही फौलादी शिकंजों की वजह से। इसलिए कम से कम किसी पार्टी को ऐसा आंतरिक लोकतंत्र लागू करके एक मिसाल कायम करनी चाहिए। यही तरीका मतदाताओं को अपने इलाके के विधायक या सांसद तय करते हुए एक बेहतर हक भी देगा।