एसटी एससी क्रीमीलेयर के बिना इंसाफ नामुमकिन

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-सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार)

सुप्रीम कोर्ट ने एसटी-एससी आरक्षण के भीतर क्रीमीलेयर को फायदे से बाहर करने पर यह कहा है कि आरक्षण के दायरे से किसी को बाहर करना या न करना, विधायिका और कार्यपालिका का काम है। यह कहते हुए अदालत ने एक जनहित याचिका पर सरकार को कोई आदेश देने से इंकार कर दिया। जस्टिस बी.आर.गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने छह महीने पहले सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की संविधान पीठ के फैसले का जिक्र किया जिसने एसटी-एससी आरक्षण के भीतर उपजातियों के आधार पर और आरक्षण करने को सही ठहराया था। इस फैसले के वक्त के चीफ जस्टिस डी.वाई.चन्द्रचूड़ की अगुवाई में सात में से छह जजों ने इस पर सहमति जताई थी, और एक अकेली जज जस्टिस बेला त्रिवेदी ने इससे असहमति का अलग फैसला लिखा था।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट में अभी ताजा मामला छह महीने पहले के फैसले के खिलाफ नहीं था, बल्कि एसटी-एससी तबकों के भीतर क्रीमीलेयर को आरक्षण के फायदों से हटाने के बारे में था। अब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सुनवाई से मना कर दिया है लेकिन कहा है कि संविधानपीठ ने सरकार और संसद के सामने यह विचार रखा था कि एसटी-एससी तबकों के भीतर जो लोग पहले से आरक्षण पाते आ रहे हैं, या जो लोग बेहतर स्थिति में हैं, और ताकतवर हो चुके हैं, उन्हें आरक्षण के फायदे से बाहर करने के बारे में विचार किया जाना चाहिए। इस जनहित याचिका पर जजों ने यही याद दिलाया कि उन्होंने पिछले फैसले में यही राय रखी थी, और इस पर कोई कार्रवाई करना सरकार और संसद के अधिकार क्षेत्र का मामला है।

हम सुप्रीम कोर्ट जजों की इस व्याख्या से सहमत नहीं हैं कि अदालत को इस पर विचार नहीं करना चाहिए। जैसा कि अभी की जनहित याचिका के वकील ने सरकार को याद दिलाया कि संविधानपीठ का फैसला आए छह महीने हो चुके हैं लेकिन केन्द्र सरकार ने उस पर विचार करने की भी जहमत नहीं उठाई, और संसद के सामने तो वह मुद्दा है ही नहीं। ऐसे में भारत के राजनीतिक दलों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे एसटी-एससी की क्रीमीलेयर को आरक्षण के फायदों से बाहर करें, या कि आरक्षण का फायदा पाने वाले लोगों की अगली पीढ़ी को इस फायदे से बाहर करें। अदालत को इस बारे में सोचना चाहिए था क्योंकि संसद का काम तो आरक्षण को तय करना है, और आरक्षित तबकों के भीतर अगर कमजोर तबकों के लोग अपने आरक्षित वर्ग के लिए रखी गई सीटों पर मुकाबले के लायक भी तैयार नहीं हैं, और दूसरी तरफ कुछ लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी सिर्फ जाति के आधार पर यह आरक्षण पाते चल रहे हैं, और उन परिवारों की ताकत ऐसे हर फायदे के बाद अगली पीढिय़ों के लिए बढ़ती चल रही है, तो आरक्षित सीटों पर उस वर्ग के सबसे ताकतवर, सबसे संपन्न परिवारों का एकाधिकार सा हो गया है।

हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम दशकों से इस मुद्दे को उठाते आ रहे हैं कि एसटी-एससी के भीतर भी क्रीमीलेयर तय की जानी चाहिए, ताकि ताकत के ओहदों, और संपन्नता पा लेने वाले लोगों को आरक्षण से बाहर किया जा सके, और उसी समुदाय के उनसे कमजोर लोगों को मुकाबले में खड़े होने का एक मौका दिया जा सके। यह सोच सुप्रीम कोर्ट से लेकर भारत सरकार तक, और संसद से विधानसभाओं तक इसलिए महत्व नहीं पाती है क्योंकि फैसला लेने वाले तमाम लोगों के बच्चे इसकी वजह से आरक्षण के फायदों से बाहर हो जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जज, अखिल भारतीय सेवाओं के अफसर, सांसद और विधायक, और संपन्न लोग, ये सब लोग क्रीमीलेयर में आएंगे, और भला इनमें से कौन अपने बच्चों को आरक्षण के फायदों से दूर करना चाहेंगे। यह सिलसिला तोडऩे के लिए एक जनमत और जनआंदोलन जरूरी है जो कि कार्यपालिका, न्यायपालिका, और विधायिका सभी को यह अहसास कराए कि उसमें निर्णायक कुर्सियों पर बैठे हुए लोग अपने बच्चों के फायदे जारी रखने के लिए एसटी-एससी के भीतर क्रीमीलेयर लागू नहीं होने देना चाहते हैं।

हमारा साफ मानना है कि यह निर्णायक तबके के हितों के टकराव का मामला है, और इसीलिए अदालत, सरकार, और संसद, कोई भी यह आत्मघाती फैसला लेना नहीं चाहते हैं जो कि इन आरक्षित वर्गों के कमजोर लोगों के लिए जरूरी है। एसटी-एससी तबकों में भी यह जागरूकता जरूरी है कि उनके सबसे ताकतवर लोग आरक्षण का सारा फायदा खा जा रहे हैं। जब तक इन तबकों का बहुमत जागरूक नहीं होगा, तब तक इन तबकों के मुखिया लोग तीनों लोकतांत्रिक संस्थाओं पर काबिज रहकर अपने ही बच्चों को बचाने में लगे रहेंगे।

आज दिक्कत यह है कि एसटी-एससी तबकों के जो मुखिया हैं, वे भी कहीं न कहीं क्रीमीलेयर जितनी ताकत और संपन्नता पा चुके हैं, और इसीलिए वे जरा भी जागरूकता नहीं आने देना चाहते। देश को ऐसी तंगदिली, और ऐसी तंगनजर से उबरने की जरूरत है, कहने के लिए तो तीनों लोकतांत्रिक स्तंभों के मुखिया लगातार अपने को समाजकल्याण में लगा हुआ बताते हैं, लेकिन एसटी-एससी के सचमुच कमजोर लोगों के साथ पौन सदी से जो बेइंसाफी चली आ रही है, वह दूर करने में इनमें से किसी की दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि सबसे पहले इन्हीं के परिवारों के पेट पर लात पड़ेगी।

चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को सुनने से मना कर दिया है, तो अब जनजागरण के अलावा और कोई रास्ता नहीं है, और लोगों को संसद और विधानसभा से लेकर, स्कूल-कॉलेज तक, सरकारी नौकरियों तक, और म्युनिसिपल-पंचायत चुनावों तक क्रीमीलेयर को मुद्दा बनाना चाहिए, इस लोकतंत्र में इंसाफ पाने के लिए जनजागरूकता, और जनआंदोलन ही असरदार हो सकते हैं।

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