आखिर किस हैसियत से मंत्री की पत्नी भूमिपूजन और शिलान्यास के
सरकारी कार्यों को कर रही है , कमलनाथ जी ध्यान दीजिये वरना
लोकसभा में जीत बेहद मुश्किल होग
इंदौर। कांग्रेस के सबसे सक्रिय नेता हैं जीतू पटवारी। उनमे भविष्य के बड़े नेता की उम्मीदें झलकती हैं। पर मंत्री बनने के बाद के लगता है खुद को खत्म करने पर आमादा हैं। जीतू फिर 2008 के चुनाव के वक़्त वाली राह पर चल पड़े हैं। उनके अंदर का कांग्रेसी सत्ता वाला कृमि जाग उठा है। वे फिर अहंकारी, लोगों से दिखावे की नजदीकी वाले नेता दिखाई देने लगे हैं। उनकी सक्रियता के साथ-साथ उनकी बोली में भी ये दम्भ झलकने लगा है। किसी भी नेता के भीतर का दम्भ जब सामने आता है, तो समझो उलटी गिनती शुरू हो गई है। वैसे भी मंत्री बनने के बाद पैर जमीन पर रखना आसान नहीं होता।
ताज़ा मामला उनकी पत्नी को राजनीति में सक्रीय करने का है। इस एक कदम से जीतू ने अपने पीछे की कार्यकर्ताओं की फ़ौज को निराश किया है। उनके मुँह पर उन्हें कभी ये सुनाई या दिखाई नहीं देगा। पर कब वे भीड़ के बीच भी अकेले रह जायेंगे, उन्हें पता ही नहीं चलेगा। निश्चित ही सभी नेताओं के परिवार राजनीति में आते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। पर उसका एक तरीका होता है। सीढ़ी चढ़कर ही आप ऊपर जाते हैं। कतार तोड़कर आप कहीं पहुंच तो जाते हैं, पर टिक नहीं पाते। उनकी पत्नी रेनू पटवारी राजनीति में आएं, स्वागत है। पर वे किस हैसियत से मंत्री के तय कार्यकर्मों में शिलान्यास और भूमिपूजन कर रही हैं। किस हैसियत से उन्होंने बुधवार को सिटी बस को हरी झंडी दिखाई। वे राजनीति में सक्रिय रहें। एक कार्यकर्त्ता की तरह सामने आये। इससे उनका भी मान बढ़ेगा।
मंत्री की पत्नी होने से उनको ये हक़ नहीं होता कि इलाके के बड़े नेताओं, कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर सबसे आगे आ जाएँ। वैधानिक और नैतिक दोनों ही रूप से ये सही नहीं है। क्या यही लोकतंत्र है। क्या कमलनाथ जी ने इसी सरकार का वादा किया है। ऐसी ही सरकार वे और उनके मंत्री देंगे। सबसे अलग और परिवारवाद से दूर की छवि वाले कमलनाथ को ऐसे मंत्रियों को रोकना चाहिए। यदि वक़्त रहते कांग्रेस के बड़े नेताओं और मुख्यमंत्री और इस सरकार के सुप्रीमो दिग्विजय सिंह ने इस तरह से परिवारवाद की राजनीति पर अंकुश नहीं लगाया तो लोकसभा चुनाव में पार्टी को बड़ी हार का सामना करना पड़ सकता है। क्योंकि राउ जैसे कई इलाके हैं जहां इस तरह के मामले होंगे। धीरे-धीरे इसका असर वोट पर पड़ेगा, कार्यकर्त्ता भी पीछे हटेगा। खुद जीतू पटवारी को भी इसे समझना होगा वर्ना वे खुद को कब ख़त्म कर लेंगे, उन्हें खुद पता नहीं चलेगा। वाणी और व्यवहार दोनों में उन्हें बदलाव की जरुरत है।
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