#polioticswala report
-ध्रुव शुक्ल
Caste census in india- जाति न पूछो जन की, पूछो कौशल का ज्ञान- मजदूर दिवस की पूर्व संध्या पर जाति-जनगणना की घोषणा तो हो गयी पर आदमी की जाति पर जो राजनीतिक बहस चलती रहती है, अगर उससे पशु-पक्षी भी सहमत हो जायें तो उन्हें भी अपनी भागीदारी और हिस्सेदारी के आधार पर अपनी गणना और अधिकारों की माॅंग करना चाहिए। आखिर वे भी तो इसी देश में रहते हैं। पर अब तक अनुभव में यही आया है कि वे अपने वनों में आपसी योगदान के बीच मिलजुलकर जीवनयापन करते हैं। उनके बीच कोई छुआछूत और पिछड़ेपन का भाव नहीं है। वे अपनी कर्म कुशलता के अनुरूप सह अस्तित्व में जीते हैं। वनों की समृद्धि में उनका बड़ा योगदान है।
जाति न पूछो जन की, पूछो कौशल का ज्ञान-जैसे मनुष्य योनि है उसी तरह पशु-पक्षियों की भी योनि है। कीट-पतंग भी अपनी योनि में पैदा होते हैं। वृक्षों और लताओं का भी अपनी योनि में जन्म होता है। सभी योनियों के कर्म के आधार पर जाति का निर्धारण मनुष्यों ने ही अपने सुभीते के लिए किया है। खेती करने वाले मनुष्य खेतिहर और माटी से घड़ा बनाने वाले कुम्हार कहलाते हैं। गहने गढ़ने वाले सुनार, रस्सी बुनने वाले सुतार, लोहे का काम करने वाले लोहार, रुई धुनकने वाले धुनकर, कपड़ा बुनने वाले बुनकर ,चमड़ा पकाकर जूते बनाने वाले मोची कहलाते हैं।
सदियों से सबका जीवन इन कर्म आधारित नामवाली जातियों के रचनाशील कामों से ही चलता आया है और समाज इनका अहसान मानता आया है। पर अब उनके हाथों की कला छीनकर उन्हें विपन्न बनाया जा रहा है। कुम्हार, सुतार, लोहार, बुनकर आदि सभी हुनरमंद लोगों के काम मशीनों को सौंपकर और उन्हें अभावग्रस्त बनाकर उनके जीवन को राज्य पाने की लालसा से केवल वोटरों की बस्तियों में बसा दिया है। वे मुफ़्त के आश्वासनों और अन्न पर अपना जीवन गुजार रहे हैं। अपना गाॅंव छोड़कर शहरों में मजूरी कर रहे हैं। आधुनिक सभ्यता के कचरे से बनी झुग्गी बस्तियों में जीवन काट रहे हैं।
जाति तो कर्मसौन्दर्य से ही पहचानी गयी है और इसी कारण वह आदरणीय रही है। उसमें कहीं अस्पृश्यता का भाव नहीं है। प्रत्येक तीज-त्यौहार और जीवनचर्या में जातियों द्वारा गढ़े गये उपकरणों की आत्मीय भूमिका रही है। उनके बिना किसी राज्य का भी काम नहीं चला है। बीते जमानों में इन जातियों ने ही देश को अमीरी प्रदान की है। पर इनके आधुनिक नेताओं ने बाजार से राजनीतिक सौदा करके जातियों के मूल्यवान कर्मों को उनसे छीनकर उन्हें पिछड़े वर्ग के बाड़ों में कैद कर लिया है। पहले जो अनीति देश में बाहर से आये फिरंगियों ने इन हुनरमंद जातियों के ख़िलाफ़ अपनायी, उसे ही हमारे नेताओं ने आज़ादी के बाद आगे बढ़ाया है।
समता की राजनीति करने वाले लोग इन असहाय होती जा रही जातियों को सिर्फ़ अपने वोट बैंक को दिवालिया होने से बचाने के लिए गिनना चाहते हैं। इन राजनीतिक दलों के जातिगणना छल में हुनरमंद जातियों को उनके साधन लौटाने का कोई इरादा नहीं दीखता। हमारे नेताओं को यह समझ कब आयेगी कि खाली हाथ बैठे लोग फितूरी होकर हिंसा को अपनाने लगते हैं। काम में लगे हाथों से ही मन में अहिंसा भाव जागता है!
जो स्वयंभू सामाजिक संगठन यह कह रहे हैं कि जाति पण्डितों ने बनायी उन्हें तनिक सोचना चाहिए कि पण्डिताई के कर्म में दीक्षित होने के कारण पण्डितजन स्वयं एक जातिगत पहचान रखते हैं। पूजाकर्म में दक्ष लोग पुजारी कहलाते हैं। जाति तो कर्म आधारित समूहों का नामकरण है। अरे भाई, नेतागिरी करने से ही तो नेता कहलाते हो। यह अलग बात है कि जो नेता देशसेवा के कर्म का दावा करते हैं, उनने अपनी जातिगत पहचान ही खो दी है।
जातिगत गणना की माॅंग करने वाले भांति-भांति के राजनीतिक दलों के कम्पयूटर में सभी आरक्षित और पिछड़ी जातियों का हिसाब-किताब पहले से ही मौजूद है। जिसके आधार पर वे वोट बटोरकर अब तक राज्यसुख भोगते आये हैं। पर वे इन जातियों की समृद्धि का मार्ग प्रशस्त नहीं कर पाये। वे अभावग्रस्त जातियाॅं जिस हाल में पड़ी हुई हैं, उसी बेहाली में किसी तरह गुजर-बसर करती रही हैं और ये दल उन्हें अपनी-अपनी वोटरों की बस्तियों में क़ैद किए रहने के उपाय करते ही रहते हैं। ये उस आरक्षण व्यवस्था पर भी पुनर्विचार नहीं होने देते जिस पर इन दलों ने अपने वोट बैंक का जाल फैला रखा है।
ज़रूरत तो इस बात की है कि जनगणना का आधार शिक्षा, स्वास्थ्य, ग़रीबी और पारंपरिक हुनरमंदगी होना चाहिए। तभी देश की अभावग्रस्त जातियाॅं आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन से निकलकर कर्मकुशलता पर आधारित लोकतंत्र की समृद्धि का सुख भोग सकेंगी। जैसे साधुओं की जात नहीं पूछी जाती, ठीक वैसे ही लोकतंत्र में जनता की जात नहीं पूछना चाहिए। पूछना है तो उसके कौशल का ज्ञान पूछना चाहिए।
दरअसल यह पता लगाने की ज़रूरत है कि देश के जो पिछड़े जन परंपरागत उत्तराधिकार से जिस कारीगरी और हुनर को आज भी जानते हैं, उसकी गणना करके उसे नूतन स्वरूप देकर देश की समद्धि में किस तरह सहयोगी बनाया जा सकता है। अगर वे अदक्ष हैं तो उन्हें कैसे कार्यकुशल बनाकर उनके अभाव दूर किये जा सकते हैं। गिनती ग़रीबों की होना चाहिए चाहे वे किसी भी जाति के हों। राज्य का उद्देश्य सभी पिछड़ गये लोगों की ग़रीबी दूर करना है। यह काम जाति पूछ लेने से नहीं होगा। वह तो हुनर की वापसी से होगा।
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