वे गरीब-गुरबों के सचमुच ‘दादा नहीं दइउ’ थे!

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जयराम शुक्ल(वरिष्ठ पत्रकार )

श्रीयुत श्रीनिवास तिवारीजी के गुजरे हुए दो साल पूरे हो गए। उनसे पाँच साल पहले अर्जुन सिंह जी इहलोक से विदा हुए थे। ये दोनों ही विंध्य की राष्ट्रीय पहचान, इस माटी की आन-बान-शान थे। ये विंध्य की राजनीति के ओर छोर थे।

आज यहां कांग्रेस शून्य बटे सन्नाटा है। गमले में उगे हुए जड़ विहीन लोग विशाल बरगद के बारे में अपने विचार दे रहे हैं। विंंध्य की कांग्रेस में ऐसी रिक्तता कभी नहीं रही। इस सन्नाटे में तिवारीजी आज सभी को रह-रहकर याद आते हैं।

कोई जरूरत मंद जब कांग्रेस के दलाल नेताओं की दुत्कार सुनकर लौटता है तो उसे और भी याद आते हैं। वह आसमान की ओर निहारते हुए वह बुदबुदाता है- काश आज दादा होते।

तिवारी जी को ‘दादा से दइउ’ बनाने वाले ऐसे ही गरीब-गुरबे थे जिनकी वे आखिरी उम्मीद थे। तिवारी जी जीते जी किवंदंतियों और चौपालों की किस्सागोई में आ गए थे।

राजनीति में किसी भी व्यक्ति के लिए यह दुर्लभ है। प्रदेश की राजनीति में लोग उन्हें सफेद शेर कहते थे। यह उनके भौतिक स्वरूप से ज्यादा उनकी निर्भयता को रेखांकित करता था।
उनको लेकर एक नारा लगता था-दिग्गज नहीं दिलेर है, विंध्य प्रदेश का शेर है।

किसी ने इसकी कैफियत पूछी तो उसे समझाया – सही तो है यह नारा, जरूरी नहीं कि हर दिग्गज दिलेर ही हो लेकिन हर दिलेर स्वमेव दिग्गज होता है।

राजनीति में जितनी परिभाषाएं श्रीनिवास तिवारी ने गढ़ीं उतनी शायद ही किसी ने गढ़ीं हो। वे खुले मुँह कहते थे- नेता होने की पहली शर्त यह कि उसे शेर की सवारी करते आना चाहिए, दूसरी उसकी चमड़ी गेंडे की तरह मोटी हो।

1952 में सोशलिस्ट पार्टी की टिकट पर पहला चुनाव जीतने के बाद से ही वे शेर पर सवारी करने का अभ्यास करते रहे। वे विपक्ष में रहे तब भी, सत्तापक्ष में थे तब भी। शेर की सवारी करने से उनका आशय नौकरशाही को काबू में रखने को लेकर था। जब वे स्पीकर बने तो यह करके दिखाया भी।

आज प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है लेकिन नौकरशाही जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों पर सवार दिखती है। यहां तक कि सत्ताधारी दल के विधायकों की बैठकों में प्रायः यही एक स्वर उभरता है कि अधिकारी उनकी नहीं सुनते।

आज गली-मोहल्लों में शराब बिकवाने का सरकारी फैसला लिया जा रहा है, मेरी समझ में यह फैसला किसी चुने हुए जनप्रतिनिधि का हो ही नहीं सकता। हाल तो यह कि नौकरशाही जो समझा देती है मंत्री-मुख्यमंत्री को वही ब्रह्म वाक्य लगता है।

अब हनी ट्रेप प्रकरण को लेकर जो खेल चल रहा है यह भी उसी नौकरशाही का कमाल है जो दसों सालों से शहद में पगी रही, रस लेती रही। ऐसे मौके पर यदि श्रीनिवास तिवारी सत्ता के शीर्ष पर होते तो वे सबसे पहले नौकरशाही को ही निपर्द करने का फैसला लेते। वे लोकशाही प्रभुसत्ता के लिए हद से आगे तक जाने में नहीं हिचकते।

अर्जुन सिंह को अबतक का सबसे शक्ति संपन्न मुख्यमंत्री माना जाता है क्यों..? इसलिए कि नौकरशाही उनके भौंहों के संचलन की भाषा समझकर तदनुसार काम करती थी। आईएएस प्रजाति की जैसी मुश्कें अर्जुन सिंह ने कसकर रखी वह एक मिसाल के तौर पर प्रस्तुत की जाती है। इसके पीछे तिवारी जी का फार्मूला था।

अर्जुन सिंह और श्रीनिवास तिवारी की अदावत तो समूचा प्रदेश जानता है पर उनकी गाढ़ी मित्रता के साक्षी कम ही लोग हैं। वे श्रीनिवास तिवारी और उनका सोशलिस्ट गुट ही था जिसने 1977 में तेजलाल टेभरे के मुकाबले अर्जुन सिंह को नेता प्रतिपक्ष का रास्ता तैय्यार किया।

टेभरे सोशलिस्टी थे लेकिन श्रीनिवास तिवारी की अगुवाई में सोशलिस्टी धड़े ने इस पद के लिए अर्जुन सिंह को बेहतर माना। जनता राज में नेता प्रतिपक्ष रहना ही अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री पद की दावेदारी का मूलाधार था बाकी की बातें बकवास हैं।

यह किस्सा तिवारी जी ने ही बताया था। अर्जुन सिंह जब मुख्यमंत्री बनें तब नौकरशाही अपने पूरे परवान पर थी। कुछेक मौके ऐसे भी आए जब अफसरों ने मुख्यमंत्री को अपने हिसाब से घुमाने की कोशिश की। अर्जुन सिंह जी ने यह अनुभव तिवारीजी से साझा किया। तिवारीजी ने उन्हें सुझाया- एक कौव्वा मारकर बल्लभभवन के कँगूरे पर टाँग दीजिए आगे सबकुछ आसान हो जाएगा।

कुछ ही दिन बाद देशभर के अखबारों में यह खबर सुर्खियों पर थी कि मध्यप्रदेश के मुख्यसचिव बर्खास्त! तिवारीजी जब स्पीकर बने तब उन्होंने भी अपना यही फार्मूला आजमाया, विधानसभा के मुख्यसचिव को बर्खास्त करके।

विधानसभा अध्यक्ष का पद क्या होता है? यह तिवारीजी ने बताया। उससे पहले तक इस पद को राजनीति की लूप लाइन माना जाता था। तिवारीजी कहते थे पद के ऊपर व्यक्ति को बैठना चाहिए न कि व्यक्ति के ऊपर पद बैठे। पद तो क्षणभंगुर है व्यक्ति नहीं।
तिवारीजी ने कभी किसी पद को छोटा या बड़ा नहीं माना।

1990 में कांग्रेस ने उनका नाम विधानसभा उपाध्यक्ष के लिए आगे बढ़ाया। यह भी एक साजिश का हिस्सा था। कांग्रेस के क्षत्रपों को यह मालूम था कि जो व्यक्ति 25 की उमर में पहली बार की ही विधायकी में छह घंटे भाषण देकर सरकार की खटिया खड़ीकर दुनियाभर सुर्खियाँ बटोर सकता है वह परिपक्व नेता के तौरपर क्या नहीं कर सकता।

तिवारीजी ने 1952-56 की विंध्यप्रदेश की विधानसभा में जमीदारी उन्मूलन को लेकर पेश किए गए बिल पर लगातार छह घंटे का भाषण देकर कृष्णामेनन का रिकॉर्ड तोड़ा था।

तिवारीजी को एक दायरे में सीमित करने के लिए ही डिप्टी स्पीकर बनाया जा रहा है, यह जानते हुए भी पद को स्वीकार किया। लेकिन जल्दी ही उन्होंने तत्कालीन प्रदेश की भाजपा सरकार के खिलाफ कांग्रेस के एक उग्र आन्दोलन का नेतृत्व करके उन नेताओं के मुगालते को तोड़ दिया जो इन्हें राजनीति की मुख्यधारा से अलग करना चाहते थे।

तिवारीजी संभवतया देश के ऐसे पहले विधानसभाध्यक्ष थे जो पार्टी के पदाधिकारी भी थे और खुलकर राजनीति में भाग भी लेते थे। पीठासीन अधिकारियों के भुवनेश्वर सम्मेलन में उन्होंने जो भाषण दिया था आज भी उसकी नजीर पेश की जाती है। पीठासीन अधिकारी के पार्टी निरपेक्ष होने के सवाल पर तिवारीजी ने ब्रिटेन की परंपरा का हवाला देते हुए कहा था- वन्स स्पीकर आलवेज स्पीकर, वहां जो स्पीकर होता है उसके अगले चुनाव में कोई दल उसके खिलाफ अपना प्रत्याशी नहीं खड़ा करता। भारत में तो एक-एक वोट जोड़कर जीतने के लाले पड़ जाते हैं। उन्होंने आँकड़ों और तथ्यों के आधार पर बताया की विधानसभा अध्यक्ष रहे व्यक्ति के अगले चुनाव में जीतकर आने की संभावना महज 10 प्रतिशत होती है। तिवारीजी को भी विधानसभा अध्यक्ष के बाद दुबारा चुनकर आने में बड़ी मुश्किल गई। तिबारा तो अच्छे खासे मतों से हार भी गए।

तिवारीजी जितने चुनाव जीते कहीं उससे ज्यादा हारे लेकिन वे कार्यकर्ताओं को हर बार गीता का यही श्लोक सुनाकर अगले चुनाव के लिए भिड़ जाते थे कि- सुखः दुखः समाकृत्वा, हानि-लाभ, जया जयो। वे शिवम़गल सिंह सुमन की इन पंक्तियों को प्रायः उद्धृत करते थे-क्या हार में, क्या जीत में किंचित नहीं भयभीत मैं, संघर्ष पथपर जो मिले यह भी सही वह भी सही। बाद में यही पंक्तियाँ अटलजी ने संसद में उद्धृत कीं थी जब अविश्वास प्रस्ताव में उनके नेतृत्व वाली भाजपा सरकार गिरी थी।

तिवारीजी राजनीति को वैसे ही जीते थे जैसे कि पानी में मछली। राजनीति में उनकी फिलासफी जरा हट कर थी। वे मानते थे कि जो उनका आदमी नहीं है वो दुश्मन है, राजनीति में लतिगोंड़ी नहीं चल सकती। वे आरपार की राजनीति पर विश्वास करते थे। अच्छे व बुरे की उनकी अपनी परिभाषा थी। मीडिया में वे खुले मुँह यह स्वीकार करने में नहीं हिचकते थे ..कि जिन्हें आप गुंडा, मवाली, कतली कहते हैं दरअसल वे मेरे वोट हैं, जिस दिन ये विधिक तौर पर वोटर नहीं रहेंगे उस दिन मैं इनसे रिश्ता तोड़ लूगा। हार-जीत में यह नहीं देखा जाता कि कौन वोट हरिश्चन्द्र का है और कौन चांडाल का।

तिवारीजी जैसा प्रतिबद्ध राजनेता मिलना दुर्लभ है। जब वे सोशलिस्टी थे तब जयप्रकाश नारायण उनके लिए ईश्वर तुल्य थे। जब कांग्रेस में आए और जेपी ने इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन में फौज, पुलिस को नाफरमानी का आह्वान किया तब तिवारीजी ने विधानसभा में उन्हीं जयप्रकाश नारायण को राष्ट्रद्रोही घोषित करने की माँग कर डाली।

कांग्रेस में रहते हुए उन्हें कितना विरोध, कैसे-कैसे षड़यन्त्र व विश्वासघात नहीं झेलने पड़े। 84 में टिकट काट दी गई, 93 में उन्हें मंत्री नहीं बनाया गया। उम्र के चौथेपन में जब राज्यपाल बनना लगभग सुनिश्चित था तब उन्हीं ने दगाबाजी की जिनके वे गुरुदेव कहे जाते थे। तिवारीजी घात-प्रतिघात झेलते रहे उफ तक नहीं किया, विचलित नहीं हुए।

कांग्रेस ने जब व्यापमं का मसला उठाया तब भाजपा सरकार को भी तिवारीजी ही बदला भँजाने के लिए मिले। उनपर आपराधिक प्रकरण दर्ज हुआ। वे ह्वील चेयर पर अदालत जमानत लेने पहुंचे। तिवारीजी और विवाद एक दूसरे के पर्याय रहे लेकिन अखाड़े में वे विवादों को परास्त करके ही बाहर आए हर बार। वे कांग्रेस की गति और नियति से निराश रहे।

वे हमेशा इस ऐतिहासिक पार्टी को अष्टधातुई नेताओं के शिंकजे से बाहर निकालने की वकालत करते रहे। उम्र के आखिरी पड़ाव पर कांग्रेस में उनको वह मान नहीं मिला जिसके कि वे हकदार थे।
लेकिन लोकमानस और किवंदंतियों में आज भी वे किसी के लिए मसीहा, किसीके लिए राबिनहुड तो गरीब-गुरबों के लिए..’दादा न होय दइऊ आय’ बने हुए हैं। उनकी स्मृतियों को नमन। (फेसबुक वॉल से साभार)

 

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