जॉर्ज फर्नांडिस नहीं रहे। भारतीय राजनीति का एक ऐसा लड़ाका जो मजदूरों के नेता से राजनेता में कब बदल गया समझ ही नहीं आया। जॉर्ज के बारे मे दो-तीन बातें बेहद स्पष्ट थीं. वे लड़ना और जूझना जानते थे. गरीबों, मजदूरों और आम लोगों से जुड़ने में उन्हें समय नहीं लगता था. वे अपनी तरह के जज़्बाती सर्वहारा थे. वे उम्मीद जगाते थे. उनका साहस बिल्कुल रोमांच की हद तक चला जाता था. बड़ौदा डायनामाइट केस उनके इसी दुस्साहस की मिसाल की तरह देखा जाता है. इंदिरा गांधी की सरकार को वे फ़ासीवादी सरकार मानते थे और इसे हटाने के लिए वे डायनामाइट तक के इस्तेमाल की सोच सकते थे. 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो जॉर्ज उद्योग मंत्री बनाए गए. उन्होंने जो अहम फ़ैसले किए, उनमें कोकाकोला जैसी बड़ी कंपनी को भारत से भगाना भी था. यह अलग बात है कि करीब दो दशक बाद कोकाकोला उनके जीते-जी लौट आया. बाद में रेल मंत्री, रक्षा मंत्री सब कुछ बनते गए. लेकिन जॉर्ज की पूरी राजनीति बताती है कि कैसे भारतीय लोकतंत्र में संभावनाओं के बड़े-बड़े अग्निबीज समझौतों के ठंडे पड़ते पुर्जों में बदलते चले गए. इस राजनीति का अध्ययन यह समझने के लिहाज से दिलचस्प हो सकता है कि आखिर फासीवाद और सांप्रदायिकता के खतरों से लड़ने निकला भारतीय समाजवाद कैसे उनकी ही गोद में जाकर बैठता चला गया.
1979 में जब जनता पार्टी टूटी तो जॉर्ज ने 24 घंटे में पाला बदला. एक दिन पहले मोरारजी की सरकार के पक्ष में ज़ोरदार दलीलें दीं और अगले दिन दूसरे पाले में नज़र आए. बेशक, यह समझौतापरस्ती से ज़्यादा तात्कालिक राजनीतिक दबावों के आकलन की हड़बड़ी थी जिससे जॉर्ज ने यह फ़ैसला लिया. आने वाले दिनों में ऐसे फ़ैसले और ज्यादा दिखने लगे. खास कर 90 के दशक में उन्होंने लालू यादव के भ्रष्टाचार और परिवारवाद के ख़िलाफ़ पहले समता पार्टी बनाई और उसके बाद बीजेपी से हाथ मिला लिया. यहां आकर अचानक जॉर्ज बदले-बदले दिखते हैं. वह आग बुझी हुई सी नज़र आती है जिसके बीच उनका सुलगता हुआ व्यक्तित्व बनता था. वे वाजपेयी सरकार के रक्षा मंत्री भी बनते हैं और संकटमोचन भी. अचानक हम पाते हैं कि ओडिशा में फादर जॉर्ज स्टेन और उनके बच्चों को ज़िंदा जला कर मार दिए जाने की घटना से भी वे अप्रभावित रहते हैं. वे केंद्र की ओर से जाकर जांच करते हैं और सबको क्लीन चिट देकर लौट आते हैं.क्या यह पुराने जॉर्ज से संभव था? वह होता तो आग लगा देने की सोचता. जिस असहिष्णुता की चर्चा आज हो रही है, वह उन्हीं दिनों शुरू हो गई थी जब केंद्र में पहली एनडीए सरकार उस प्रधानमंत्री के नेतृत्व में बनी थी जिसे सब उदार मानते थे. लेकिन वह एक मुखौटा भर थे, यह बात किसी और ने नहीं, उस गोविंदाचार्य ने कही थी जो उन दिनों बीजेपी और संघ परिवार के नीति निर्धारकों में प्रमुख हुआ करते थे. कहने की ज़रूरत नही कि वह मुखौटा आज हट भर गया है.
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