राजस्थान का सियासी रण… पायलट  ‘रिटर्न्स’

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राजस्थान की राजनीति में दो किनारे हैं। एक तरफ कांग्रेस और दूसरी तरफ भाजपा। इन दो पार्टियों के अलावा राज्य मतदाताओं के पास कोई मजबूत विकल्प नहीं है। हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (आरएलपी) वजूद में तो आई लेकिन एक जाति विशेष की पार्टी का ठप्पा  होने के कारण वो विकल्प नहीं बन पाई। हकीकत यह है कि इन तीनों पार्टियों ने अगले विधानसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। वर्तमान अशोक गहलोत सरकार का आधा कार्यकाल  हो चुका है और शासन उत्तरार्ध  में आ गया है। ऐसे में न सिर्फ विरोधी पार्टी भाजपा बल्कि सत्तासीन कांग्रेस में भी चुनावी संघर्ष शुरू हो गया है। यह संघर्ष फिलहाल पार्टी के अंदर है। हम आज राजस्थान की राजनीति के सभी पहलुओं पर आपको सिलसिलेवार जानकारी दे रहे हैं।

सत्तारुढ़ कांग्रेस में गहलोत V/S सचिन

सचिन  पायलट और गहलोत के बीच सत्ता का संघर्ष है। यह संघर्ष उसी दिन शुरू हो गया था, जब सचिन को प्रदेशाध्यक्ष बनाया गया था। करीब दस महीने पहले सचिन पायलट ने अपने कुछ विधायकों के साथ दिल्ली कूच किया तो राजस्थान में गहलोत सरकार के नीचे से जमीन खिसक गई थी। आमतौर पर संयत रहने वाले गहलोत अपनी भाषा पर भी एकबारगी नियंत्रण खो चुके थे।

तब सचिन के पास करीब बीस विधायकों का समर्थन था। इन विधायकों के बूते वो गहलोत सरकार को हिला तो सके, लेकिन गिरा नहीं सके। जैसे-जैसे समय बढ़ता गया, वैसे-वैसे सचिन का पाला कमजोर होता गया। अंतत: वो हार गए और हाथ खड़े करके जयपुर लौट आये। अपने विधायकों को आजाद कर दिया। न सिर्फ प्रदेश अध्यक्ष बल्कि उपमुख्यमंत्री का तमगा भी खो बैठे। सब कुछ खोने के बाद सचिन शांत हो गए।

यह वक्त “वेट एंड वॉच” का था। सचिन ने वेट भी किया और वॉच भी लेकिन कुछ पाने में सफल नहीं हो सके। दस महीने में अशोक गहलोत ने उनकी और केंद्रीय नेतृत्व की एक बात नहीं मानी। पंजाब में सिद्धू और केप्टन अमरिंदर के बीच केंद्रीय नेतृत्व ने दखलदांजी की तो सचिन फिर विचलित हो गए। उन्होंने कहा कि पंजाब में हल निकालने के लिए केंद्रीय नेतृत्व सक्रिय है तो राजस्थान में क्यों नहीं?

इस बार सचिन की आवाज तो उठी लेकिन पहले जैसी धार नहीं थी। सचिन दिल्ली गए लेकिन प्रियंका गांधी और राहुल गांधी से मुलाकात तक नहीं हो सकी। अजय माकन से मिलकर वापस लौट आये। इस बार  सचिन के साथ वो विधायक भी नहीं थे, जो पिछली बार उनके साथ दिल्ली में ठहरे थे।

कुछ ने दिल्ली नहीं जाकर भी समर्थन जताया था। भंवरलाल शर्मा जैसे वरिष्ठ नेता ने सचिन का साथ छोड़ दिया। विश्वेंद्र सिंह ने सचिन का साथ दिया तो खुद विश्वेंद्र के बेटे ने विरोध कर दिया। सचिन दिल्ली दौरे में विफल रहे तो अपने विधानसभा क्षेत्र में गए। वहां भी उनके साथ कोई विधायक नहीं था। यहां तक कि खुद उनके क्षेत्र के विधायक तक नहीं थे। मामला साफ था कि सचिन को इस बार वैसा समर्थन नहीं था, जैसा दस महीने पहले था।

धीरे धीरे जमीन खिसक गई
दरअसल, पिछले कुछ महीनों में अशोक गहलोत ने उन विधायकों को अपने साथ कर लिया, जो कभी सचिन के साथ थे। ऐसे में कुछ विधायकों ने खुलकर गहलोत के साथ होने का दावा कर दिया। एक निर्दलीय विधायक ने तो मंत्रिमंडल विस्तार पर ही सवाल खड़े कर दिए।

कारण साफ है कि अब गहलोत अगले कुछ समय के लिए पायलट को मजबूत नहीं होने देना चाहते।  मंत्रिमंडल विस्तार की बात उठते ही गहलोत स्वयं कोरेंटाइन हो गए। पोस्ट कोविड का खतरा बताते हुए गहलोत ने दो महीने तक किसी से नहीं मिलने की बात कहकर अपना इरादा जता दिया।

अब मंत्रिमंडल विस्तार होगा भी तो सचिन के हाथ वो विभाग नहीं आने वाले, जो वो चाहते थे। खुद सचिन का मंत्री बनना अब मुश्किल है। इतना ही नहीं प्रदेशाध्यक्ष का पद भी उन्हें नहीं मिलने वाला है।

सचिन कांग्रेस छोड़ क्यों नहीं रहे?
राजनीतिक पंडितों का कहना है कि सचिन अगर कांग्रेस छोड़ देते हैं तो इसका सबसे बड़ा लाभ खुद सचिन को नहीं बल्कि अशोक गहलोत को होगा। इसके बाद गहलोत का पार्टी में एकछत्र राज होगा। जब तक सचिन है, तब तक ही उन्हें चुनौती मिल रही है।

ऐसे में सचिन अपमान का घूट पीकर भी पार्टी में बने हुए हैं। पिछले कुछ दिनों में उनके साथ विधायक भले ही कम हुए हैं लेकिन जनता का प्यार उनके प्रति बना हुआ है। वो अपने क्षेत्र में जाते हैं तो बड़ी संख्या में लोग उनके पास आते हैं। 22 जून को तो सचिन फिर आ रहे हैं का हेशटेग सोशल मीडिया में ट्रेंड कर गया।

पार्टी में रहेंगे तो कुछ मिलेगा
सचिन को पता है कि वो भाजपा में गए तो मुख्यमंत्री पद के दावेदार नहीं हाे सकते। दूसरी तरफ कांग्रेस में अगर अशोक गहलोत को किनारे करने में सफल हो गए तो निश्चित रूप से मुख्यमंत्री के अकेले दावेदार होंगे। उन्हें पता है कि दो साल बाद होने वाले चुनाव में अकेले अशोक गहलोत के दम पर पार्टी जीत नहीं सकती।

ऐसे में सचिन पार्टी के दूसरे बड़े नेता होंगे। अगर भाजपा में जाते हैं तो पार्टी में उनका नंबर काफी नीचे जायेगा। ऐसे में वो हर हाल में कांग्रेस में बने रहना चाहते हैं, पार्टी छोड़कर अशोक गहलोत के लिए खुला मैदान छोड़ने के लिए तैयार नहीं है।

मजबूत न हो सके डोटासरा
कांग्रेस ने सचिन को हटाकर गोविन्द डोटासरा को प्रदेशाध्यक्ष बना दिया। हकीकत यह है कि डोटासरा अपनी भाषा और कार्यशैली के चलते जनता के पसंदीदा नहीं बन सके। वो कभी टीचर्स के लिए अपशब्द बोल जाते हैं तो कभी प्राइवेट स्कूल्स के लिए। ऐसे में मौका मिलने के बाद भी वो सचिन पायलट का कद नहीं पा सके।

ऐसे में आज भी दूसरे नंबर के नेता पार्टी में वो ही हैं। अगर वो कांग्रेस छोड़ देते हैं तो डोटासरा ही दूसरे नंबर के नेता बन जायेंगे। वैसे भी डोटासरा का शांति धारीवाल, सी.पी. जोशी, बी.डी. कल्ला जैसे कद्दावर नेताओं के साथ ही संबंध ज्यादा मधुर नहीं है। वहीं सचिन इन बड़े नेताओं के लिए कभी फांस नहीं बने।

भविष्य की नीति क्या?
सचिन पायलट हर हाल में अपना वजूद बनाकर रखना चाहते हैं। कैसे बनेगा? इस सवाल का जवाब उन्हें पता है। इसीलिए कोरोना का असर कम होने के साथ ही वो मैदान में उतर गए। वो गुर्जर और मीणा बाहुल्य क्षेत्र में अपना जनाधार बढ़ाना चाहते हैं। विधायक भले ही उनके साथ नहीं थे लेकिन जनता उनके साथ थी।

विधायक भी अशोक गहलोत के डर से सचिन के साथ खड़े नहीं हो रहे हैं जबकि अंदरखाने वाे सपोर्ट कर रहे हैं। अगले विधानसभा चुनाव में सचिन पचास से ज्यादा विधायक अपने लाना चाहेंगे। तभी वो मुख्यमंत्री पद पर अपना कब्जा जमाने की कोशिश करेंगे।

जिस क्षेत्र में सचिन जोर लगा रहे हैं, वहां गहलोत का प्रभाव तो है लेकिन सचिन जितना नहीं। वैसे भी इन पांच सालों में गहलोत सब को संतुष्ट नहीं कर सकेंगे। वो सभी असंतुष्ट अभी अंदरखाने और बाद में चौड़े आकर सचिन का साथ देंगे।

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि सचिन और अशोक गहलोत के बीच चल रहे युद्ध का क्लामेक्स अभी बाकी है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आयेंगे, वैसे-वैसे इस फिल्म के किरदार मजबूत नजर आयेंगे। सचिन फिलहाल बहुत मंद गति से रन बना रहे हैं लेकिन अंतिम ओवर में वो चौके-छक्के लगाकर रनरेट बढ़ा सकते हैं।

यह रन रेट बढ़ेगी, तभी वो जीत का सेहरा अपने सिर बंधवा सकते हैं। बस यह ध्यान रखना होगा कि अंतिम ओवरों में गहलोत कुछ ऐसा ना कर दें कि सत्ता ही कांग्रेस के हाथ में नहीं आयें।

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