राहुल गांधी ने मध्य प्रदेश से मीनाक्षी, जेवियर और जीतू पटवारी को अपनी युवा टीम में चुना था,
इन तीन नेताओं की जमीनी पकड़ और राजनीतिक कद आज कितना है… विश्लेषण कर रहे हैं पंकज मुकाती।
राहुल गांधी ने दस साल पहले मध्यप्रदेश से तीन युवा नेता चुने। मीनाक्षी नटराजन, जेवियर मेडा और जीतू पटवारी। तीनों में मीनाक्षी अकादमिक रूप से मजबूत शहरी, जेवियर आदिवासी और जीतू पटवारी ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले युवा के तौर पर चुने गये। शहरी, ग्रामीण और आदिवासी का एक मजबूत गठजोड़ राहुल गांधी ने खड़ा किया था। प्रदेश में ये तीन वर्ग ही सत्ता की राह तैयार करते हैं। तीनों को भविष्य की कांग्रेस के नेता के तौर पर खड़ा किया गया। मीनाक्षी को राहुल की करीबी और बड़ी संभावना वाली नेता समझा गया, जेवियर को नंबर दो और सबसे कम आंका गया जीतू पटवारी को। परिणाम भी ऐसे ही रहे। साल 2008 का विधानसभा चुनाव पटवारी हार गये, जेवियर जीत गये। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में मंदसौर से मीनाक्षी नटराजन को भाजपा के सात बार के सांसद लक्ष्मीनारायण पांडे के खिलाफ टिकट मिला और मीनाक्षी तीस हजार वोट से जीती।
इस तरह तीनों को लेकर जो आकलन था, वो सही साबित हुआ, पर दस साल बाद आज मीनाक्षी नटराजन सिर्फ गुस्सा होने और मनुहार के लिए पहचान वाली नेता बनकर रह गई हैं। जेवियर कांतिलाल भूरिया के बेटे विक्रांत के खिलाफ बागी उम्मीदवार के तौर पर ताल ठोक रहे हैं। इन दोनों से अलग जीतू पटवारी पिछले दस साल में बड़ा चेहरा बनकर उभरते दिख रहे हैं। हालांकि हार-जीत की कसौटी से अलग रहकर भी सियासत में नेता उभरते हैं, पर मीनाक्षी, जेवियर सीमित दायरे, कुनबे और समझ के नेता के तौर पर सिमट गए हैं।
2014 के आम चुनाव में मीनाक्षी लगभग तीन लाख वोट से हारी, जेवियर पिछला विधानसभा चुनाव हारे। जीतू 2013 में जीते। जीतू को लेकर अब थोड़ा और पीछे चलते हैं। साल 2008 के विधानसभा चुनाव में उनसे मेरी पहली मुलाकात हुई। उन दिनों मैं इंदौर में ही एक अखबार में संपादक था। झक सफ़ेद कुरता, पाजामा पहने, सुर्ख लाल गाल, भुजाओं में तैरती मछलियां, हाथों में फड़कती सी नसें, छोटी-छोटी आंखों वाला एक युवा मेरे सामने था। एक ऐसा युवा जो महत्वाकांक्षी था, पर उसकी आंखों और बॉडी लैंग्वेज में एक घमंड, रौब और ‘मुझे कौन रोकेगा’ वाला भाव था। वे अपने हाव-भाव से पूरे समय ये दर्शाते रहे कि राहुल जी ने उन्हें चुना है। कुर्ते की बाहें बार-बार चढ़ाते हुए और दोनों कुहनी टेबल पर टिकाकर वे यह भी कह गए कि ये चुनाव है क्या, मैं तो जीत चुका हूं।
…फिर वे चुनाव हार गए। यहीं से जीतू पटवारी लीडर बने। 2008 की हार के बाद इस युवा नेता ने दूसरे ही दिन से राऊ में जनसंपर्क शुरू कर दिया। अगली बार यानी 2013 में वे जीत गये। इस जीत के बाद सिर्फ कांग्रेस ने ही नहीं, भाजपा ने भी उन्हें जुझारू नेता माना। भाजपा में भी इस बात की चर्चा रही कि जीतू से सीखना चाहिए कि हारकर कैसे जीता जाता है। 2013 की जीत के बाद फिर वह नहीं बदले। उन्होंने यह बात समझ ली कि जमीनी राजनीति राहुल-दिग्विजय की पसंद होने मात्र से नहीं चलती। वे यह भी जान गये कि बड़े नाम, पैसा, गुरूर यहां नहीं चलेगा। सबसे बड़ी सफलता उनकी ये रही कि बड़ी होशियारी से उन्होंने अपने ऊपर चस्पा दिग्विजय का लेबल निकाल दिया। आज वे कांग्रेस के नेता हैं, किसी एक खेमे के नहीं। आज जब सारे नेता बाहरी टीम लगाकर चुनावी रास्ते बनाते हैं, पटवारी ने अपने बीच के लोगों से ही सहयोगी चुने। पिछले पांच साल में वे ही कांग्रेस के एक मात्र नेता हैं, जिनमें लोग संभावना देखते हैं। राऊ से निकलकर पटवारी ने प्रदेश की राजनीति में अपना चेहरा आगे किया। मालवा-निमाड़ के कई इलाकों में वे लगातार सक्रिय रहते हैं, नतीजा ये है कि वे इस इलाके के भविष्य के नेता के तौर पर स्थापित हो चुके हैं।
बिना किसी खेमे के कांग्रेस में बने रहना सबसे कठिन है। ये कला जीतू ने सीख ली है। उनका किसी नेता से कोई विवाद नहीं है। मीनाक्षी ने भी कोशिश की किसी भी खेमे में न दिखने की, पर इस फेर में वे पूरी तरह से कांग्रेस की भी नहीं रह गईं। प्रदेश में आज भी उन्हें यदि बड़े नेता पूछते हैं तो इस कारण कि वे राहुल की करीबी हैं। जेवियर को लाया गया था कांतिलाल भूरिया के विकल्प के तौर पर, लेकिन बाद में वे उनके ही पीछे चलने लगे, अपनी कोई पहचान नहीं बना सके। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस संगठन और कार्यकर्ताओं को साधने की खूबी भी जीतू में है। वे एक ऐसे ‘पटवारी’ हैं, जो प्रदेश की समूची सियासी जमीन नापने की ताकत रखते हैं। कांग्रेस में सालों बाद एक बड़े नेता के उभरने का ये संकेत हैं..!