जब अश्वमेघ यज्ञ की घोषणा हो और उसमे सिर्फ धुंआ और थोड़ी चिंगारी निकलेगी तो मज़ाक तो उड़ेगा ही। नहीं तो अंधेरे में चिंगारी भी शाबाशी का ही काम है, विरोधी को दुष्ट साबित करने को जिस शीर्ष तक मोदी जाते हैं, वो भी उनकी छवि को कमजोर करता गया
पंकज मुकाती (राजनीतिक विश्लेषक )
बंगाल में दो मई को पश्चिम से सूरज निकला (भाजपाइयों और मोदी समर्थकों के लिए)। क्योंकि वे सब तो पूर्व दिशा की तरफ मुंह किये हाथों में जल लिए खड़े थे। उन्हें भरोसा नहीं अति भरोसा था अपने ‘देवता’ पर। उनकी सभाओं पर। उनके उस प्रवचन पर जिसमे उन्होंने दावा किया था कि दो मई दीदी गई। हाथों में जल का वो कलश धरा ही रह गया क्योंकि सूरज पश्चिम से उदय हुआ।
ममता की तृणमूल कांग्रेस भारी मतों से जीती। सीधे दो सौ पार। भाजपा के साथ खुद ममता भी हैरान। शाम होते-होते कमल दल ने इस बात से संतुष्टि कर ली कि खुद ममता तो हार गई। और हमें भी ठीक ठाक सीट मिली। इसमें कोई शक भी नहीं। पर जब अश्वमेघ यज्ञ की घोषणा हो और उसमे सिर्फ धुंआ और थोड़ी चिंगारी निकलेगी तो मज़ाक तो उड़ेगा ही। नहीं तो अंधेरे में चिंगारी भी शाबाशी का ही काम है।
पश्चिम बंगाल चुनाव में दरससल ममता नहीं जीती। मोदी ने उन्हें जितवा दिया। ममता के नाम के स्टार प्रचारक तो खुद मोदी साबित हुए। हर सभा में मोदी ने जिस अंदाज़ में ममता, दीदी की हुंकार भरी, उतना ही ममता का नाम और ऊपर उठता गया।
वे सभाओं में ममता का नाम सौ से ज्यादा बार लेते रहे। मोदी ने ममता को इस कदर लपेटा कि आम बंगाली भी ममता के पिछले सारे कुशासन को भूल सिर्फ दीदी और बंगाली गर्व को देखने लगा। हमेशा कि तरह मोदी ने विरोधी को दुष्ट बताने कि कोशिश की और अपने हर काम की तरह दुष्टता के बखान में भी शीर्ष पर गए।
आम बंगाली ने इसे अपना अपमान माना। और ममता के प्रति सहानुभूति से ज्यादा वो मोदी और उनके करीबियों में दुश्मन देखने लगा। यदि बंगाल की ममता के प्रति सहानुभूति या सम्मान होता तो ममता खुद नहीं हारती। उनके सामने खड़े सुवेंदु अधिकारी की जमानत जब्त हो जाती।
नरेंद्र मोदी जब भाजपा के स्टार प्रचारक के रूप में होते हैं, तो वे फिर अपने पद की गरिमा और देश के प्रति जिम्मेदारी भूल सिर्फ और सिर्फ भाजपा के एक ऐसा नेता बन जाते हैं, जिसे सिर्फ जीत चाहिए। इसकी कीमत चाहे जो हो।
पद की गरिमा, शब्दों के संयम, राजनीतिक मर्यादा सब कुछ वे दांव पर लगा देते हैं। ऐसे वक्त में जब पूरे देश में कोरोना संक्रमण से लोग तड़प रहे थे, मोदी ने खुद को भाजपा के सेनापति के रूप में बनाये रखा। वे सभाएं करते रहे, लोगों कोवोट देने का न्योता देते रहे। लोकतंत्र के जश्न में शामिल होने के ट्वीट करते रहे।
उनकी ये जो युद्धनीति थी वो बीजेपी के सेनापति के रूप में भले उचित थी, पर प्रधानमंत्री के तौर पर उनकी छवि गैर जिम्मेदार और लापरवाह की बनती गई। जिसे वे अंत तक समझ ही नहीं पाए। इसने भी उनकी छवि को तगड़ा झटका दिया। उनके प्रति मतदाताओं में सम्मान घटा। इस घटे सम्मान से ही ममता की जीत की राह आसान हुई।
पश्चिम बंगाल का उपमुख्यमंत्री मुस्लिम होगा, कोलकाता का मेयर भी मुस्लिम होगा। बंगाल मुस्लिमों के हवाले होगा। ऐसे जुमलों ने भी भाजपा को नुकसान पहुँचाया। इस नीति ने भी बहुत काम नहीं किया। बंगाल में 82 सीटें मुस्लिम बहुल है। उस राज्य में हिन्दू-मुस्लिम बंटवारा संभव ही नहीं।
क्योंकि बंगाल में भाजपा के माँ दुर्गा और ताज़िये के जुलुस का जो मामला खड़ा हुआ, इसे किसी भी बंगाली ने गंभीरता से नहीं लिया। क्योंकि वो इस मामले में ममता के साथ ही था। स्थानीय नेताओं के साथ मुद्दों को समझने के बजाय शाह-मोदी ने बंगाल में भी मुद्दे ऊपर से फेंके जो नहीं चले।
इसके पहले भी दिल्ली, झारखण्ड और बिहार में ऐसे मुद्दों से वे मात खा चुके हैं। भाजपा को इस पर सोचना चाहिए था कि ममता के सामने कौन ? कोई नहीं? इसने एक खाली मैदान दिया। मोदी देश के नेता हो सकते हैं, पर राज्यों में उनके प्रति भरोसा नहीं है। राज्यों में स्थानीय नेता जरुरी है।
भाजपा ने बंगाल में भी वही हिन्दू-मुस्लिम, मुख्यमंत्री को दुष्ट बताने और बाहरी और स्थानीय जैसे मुद्दों से खेलने की कोशिश की। पर हिन्दू -मुस्लिम कार्ड ने मुस्लिमों को ममता के प्रति और मजबूत किया। दूसरा बाहरी और स्थानीय वाले मुद्दे में भी ममता ने पटकनी दे दी। बंगाली जन को वो ये समझाने में सफल रही कि बाहरी तो भाजपा है।
भाजपा के रणनीतिकारों ने भी गैर बंगालियों पर कुछ ज्यादा ही फोकस कर लिया। हिंदीभाषी मतदाताओं में से कितनों ने भाजपा को वोट दिया इसका विश्लेषण अभी बाकी है,पर बंगालियों को ममता से चिढ के बावजूद तृणमूल से जोड़े रखा।
इस चुनाव के नतीजों के बाद क्या उम्मीद की जाए कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री वाले जिम्मेदार रूप में लौटेंगे। देश को कोरोना संकट से निजात दिलाने की कोशिश तेज करेंगे। हालांकि बंगाल का परिणाम आते ही रात को उन्होंने मीटिंग करके इस बात के संकेत दे दिए कि प्रधानमंत्री कार्यालय फिर सक्रिय हो गया है।
बेहतर तो ये होता कि वे खुद को तीसरे चरण के बाद ही चुनाव प्रचार से बाहर कर लेते। प्रधानमंत्री के पास भी बेहतर सलाहकार नहीं है या फिर वे किसी की सुनते नहीं। यदि वे तीसरे चरण के बाद खुद ये घोषणा करते कि मैं पश्चिम बंगाल चुनाव प्रचार से खुद को अलग कर रहा हूँ।
इस वक्त देश को मेरी ज्यादा जरुरत है। इस एक घोषणा से उनके प्रति पश्चिम बंगाल में भी सम्मान बढ़ता। पर वे चूक गए। वैसे भी कोई भी प्रधानमंत्री राज्यों के चुनाव में उतना अंदर तक नहीं उतरता जितना नरेंद्र मोदी। अब भी वक्त है आगे के चुनावों में वे खुद के लिए एक सीमा तय कर लें। हालाँकि उनके आसपास जमे उनकी स्तुतिगान करने वाले कभी ऐसा होने नहीं देंगे।
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