कश्मीर पर बनी फिल्म ‘बेहद’ खारिज !

Share Politics Wala News

 

सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )

हिन्दुस्तान के भीतर, और बाहर बसे भारतवंशियों के बीच द कश्मीर फाईल्स नाम की फिल्म को लेकर जो बहस साल भर से चल रही थी, वह कल फिर जिंदा हो गई है जब भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में निर्णायक मंडल के अध्यक्ष इजराईली फिल्ममेकर नवाद लपिड ने इसे एक प्रोपेगेंडा और भद्दी फिल्म करार दिया।

समापन समारोह के मंच से उन्होंने केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर और हिन्दुस्तान के दूसरे बड़े अफसरों की मौजूदगी में उन्होंने इस फिल्म के बारे में जितनी कड़ी बात कही, वह इस समारोह के इतिहास में अभूतपूर्व थी।

उन्होंने कहा कि निर्णायक मंडल ने मुकाबले में शामिल की गईं जितनी फिल्में देखीं, उनमें से बाकी सभी फिल्में बहुत अच्छी क्वालिटी की थीं, और उन्होंने बहुत शानदार बहस छेड़ी। लेकिन कश्मीर फाईल्स को देखकर सारा निर्णायक मंडल विचलित और हैरान था, यह एक प्रोपेगेंडा और भद्दी फिल्म जैसी लगी जो कि इस तरह के प्रतिष्ठित फिल्म फेस्टिवल के कलात्मक मुकाबले के लायक नहीं थी।

उन्होंने कहा कि वे आमतौर पर लिखित भाषण नहीं देते हैं, लेकिन इस बार वे लिखा हुआ भाषण पढ़ रहे हैं क्योंकि वे सटीकता के साथ अपनी बात कहना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि वे इस फिल्म के बारे में खुलकर अपनी बात कह रहे हैं क्योंकि वे खुलकर कहना चाहते हैं।

द कश्मीर फाईल्स नाम की यह फिल्म विवेक अग्निहोत्री की बनाई हुई है, और इसमें कश्मीरी पंडितों की त्रासदी के कथानक को फिल्माया गया है। इस फिल्म के आते ही जानकार लोगों ने खुलकर इसके खिलाफ लिखा कि यह कश्मीर के लोगों को और बुरी तरह बांटने की नीयत से बनाई गई है, और कश्मीर की आम जनता पर भी एक हमला है। इस फिल्म को हिन्दुस्तान के भाजपा-समर्थकों, और दूसरे मुस्लिमविरोधी संगठनों ने हाथोंहाथ लिया था, और भाजपा राज्यों ने इसे जगह-जगह टैक्स फ्री किया था।

यह फिल्म केन्द्र सरकार के राजनीतिक एजेंडा को बढ़ाने वाली मानी गई थी, और खासकर कश्मीर में मोदी सरकार के मातहत चल रहे राज्यपाल के शासन को ताकत देने की नीयत से बनाई गई भी कही गई थी। हाल के बरसों में कई ऐतिहासिक कहानियों पर हिन्दुस्तान में ऐसी फिल्में बनीं जिनसे लोगों के राजनीतिक रूझान को एक खास चुनावी मोड़ दिया जा सके।

इसके अलावा पिछले दशकों के कुछ हादसों और वारदातों को लेकर भी ऐसी फिल्में बनीं जिन्होंने पूरे मुस्लिम समाज को मुजरिम या खलनायक की तरह पेश किया, और हिन्दुस्तान में धार्मिक ध्रवीकरण का एक एजेंडा सेट किया। अभी हिन्दुस्तान में इस किस्म की फिल्मों और टीवी सीरियलों पर काम चल रहा है जिससे कि दक्षिणपंथी सोच को मजबूत किया जा सके।

कश्मीर फाईल्स ऐसी ही एक फिल्म मानी गई थी, और वह धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील ताकतों से लगातार आलोचना पा रही थी। दूसरी तरफ नफरतजीवी संगठनों को इस फिल्म से एकजुट होने का एक नया मौका मिला था, और इसे कश्मीर के इतिहास का एक सच्चा पन्ना बताकर स्थापित किया जा रहा था।

जिस तरह हिन्दुस्तान में आज बहुत से दूसरे मुद्दे दो अलग-अलग किस्म की सोच का समर्थन और विरोध पा रहे हैं, द कश्मीर फाईल्स वैसा ही एक मुद्दा बनकर लोगों के सामने रही है, और कुछ महीनों की ऐसी जिंदगी के बाद इस फिल्म पर चर्चा खत्म हो चुकी थी, और हिन्दुस्तान के मुस्लिमविरोधी लोगों ने भक्तिभाव से इस फिल्म को बढ़ावा दिया था।

अभी फिल्म फेस्टिवल में निर्णायक मंडल की ओर से अध्यक्ष की कही इस बात के पहले यह फिल्म खबरों से हट चुकी थी, लेकिन अब फिर यह चर्चा में है। भारत में इजराईल के राजदूत ने इस इजराईली फिल्मकार के बयान को पूरी तरह से खारिज करते हुए इस पर भारत के लोगों से माफी मांगी है।

लेकिन सवाल यह है कि एक फिल्म समारोह के पूरी तरह से मनोनीत निर्णायक मंडल ने अगर एकमत होकर कोई राय सामने रखी है, तो उस पर इजराईल के राजदूत को माफी मांगने का क्या हक है? उस पर तमाम लोग अपनी प्रतिक्रियाएं दे सकते हैं, लेकिन निर्णायक मंडल अध्यक्ष का इजराईली हो जाने से इजराईल के राजदूत का माफीनामा जायज नहीं हो जाता। इजराईल की अपनी मजबूरियां हैं कि वह भारत को नाराज करना नहीं चाहता है क्योंकि भारत इजराईल के कुल निर्यात का आधा हिस्सा खरीदता है।

दुनिया की सबसे तेज कारोबारी कही जाने वाली यहूदी नस्ल के लोगों की सरकार अगर अपने सबसे बड़े ग्राहक का भी सम्मान नहीं करेगी, तो कारोबार में मार खाएगी। इसलिए इजराईल के राजदूत ने आनन-फानन जो अफसोस जाहिर किया है, और अपने देश के फिल्मकार को धिक्कारा है, वह एक कारोबारी की मजबूरी है। सवाल यह है कि कई देशों के फिल्मकारों से मिलकर बना हुआ एक निर्णायक मंडल किसी एक देश की सरकार, या उसकी सोच के प्रति जवाबदेह नहीं रहता है, वह अपने समारोह में दाखिल फिल्मों के लिए जवाबदेह रहता है।

इससे एक बात और साबित होती है कि किसी भी देश की सरकार, या वहां के धार्मिक संगठन कोई फिल्म तो बनवा सकते हैं, या किसी और की बनाई हुई फिल्म को बढ़ावा दे सकते हैं, लेकिन वे उस फिल्म को उत्कृष्टता के पैमाने पर खरी साबित नहीं करवा सकते।

कश्मीरी पंडितों की त्रासदी इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है, लेकिन उसे भडक़ाऊ अंदाज में, उसका राजनीतिक शोषण करने के लिए बनाई गई फिल्म को अगर उत्कृष्टता के पैमाने पर कमजोर पाया जा रहा है, तो अच्छे फिल्मकार तो उत्कृष्टता की ऐसी कमी पर अपनी बात रखेंगे ही। और भारत का अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह दुनिया के सबसे बड़े फिल्म समारोहों में से एक है, और भारत में हर बरस दुनिया की सबसे अधिक फिल्में भी बनती हैं।

इसलिए अगर इसके निर्णायक मंडल ने कुछ महसूस किया है, तो उनकी सोच पर गौर करना चाहिए, बजाय इसके कि उसके खारिज किया जाए। इजराईली राजदूत ने इस इजराईली फिल्मकार के बयान को खारिज करने के लिए जिस तरह आनन-फानन एक बयान दिया है, वह दो देशों के संबंधों को आंच से बचाने की कोशिश है।

लेकिन फिल्मों की उत्कृष्टता के पैमाने कूटनीति से तय नहीं होते हैं। यह अच्छा हुआ कि भारत सरकार के तय किए हुए निर्णायक मंडल से ही निकलकर ऐसी सर्वसम्मत बात इस फिल्म के बारे में आई है।

बाकी तो फिर हिन्दुस्तान और दूसरी जगहों के धर्मान्ध और साम्प्रदायिक लोगों का यह अधिकार है कि ऐसी आलोचना को खारिज करके अपना एजेंडा जारी रखें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *