सुनील कुमार (संपादक डेली छत्तीसगढ़ )
लॉकडाउन के दौरान देश भर से पुलिस ज्यादती के बहुत सी खबरें आ रहीं हैं। तस्वीरें और वीडियो बताते हैं कि बेकसूरों को किस तरह लाठियां पड़ रही हैं।
दरअसल पुलिस सरकार का सबसे पहले दिखने वाला चेहरा होता है। हर मुसीबत के वक्त पुलिस ही सबसे आगे, मुसीबत के सामने होती है। पुलिस के सामने सत्ता की ताकत से मदमस्त लोग होते हैं, कानून तोडऩे वाले होते हैं, आज की दिल्ली की तरह के दसियों लाख बहुत बेबस लोग होते हैं, और पुलिस का काम ऊपर के हुक्म को पूरा करना होता है, फिर चाहे वह दिल्ली का ऐतिहासिक बुरा सरकारी फैसला ही क्यों ना हो।
पुलिस की वर्दी पर जिस तरह पट्टियाँ लगीं होती हैं, जिस तरह सितारे जड़े होते हैं, उसी तरह यह भी जड़ा होता है कि उसे हुक्म मानना है।
हम अपने आसपास की पुलिस को देख रहे हैं, तो वह सड़कों पर रात-दिन लोगों को रोकने में ही लगी हुई है। हर एक को रोककर, उसकी पहचान देखते हुए पुलिस अपने-आपको अधिक खतरे में डालती ही चलती है, कई जगहों पर बीमारों को पुलिस ही अस्पताल पहुंचा रही है, अनाज पहुंचा रही है, सब्जी पहुंचा रही है।
पुलिस न सिर्फ सरकार का चेहरा हो गई है, बल्कि सरकार के हाथ-पैर सब कुछ हो गई दिखती है। क्या पुलिस सचमुच ही ऐसे तमाम कामों के लिए बनी है? और क्या ऐसी मुसीबत के वक्त बढ़े हुए तमाम काम करने की ताकत भी है पुलिस में?
आज सड़कों पर जो पुलिस दिख रही है, उसके पास अच्छे मास्क भी नहीं हैं, दिखावे के जो मास्क हैं, उन्हें देखकर कोरोना बस हँस ही सकता है। लेकिन पुलिस ऐसे लोगों की पहली मिसाल है, अकेली नहीं। सरकार के कई और दफ्तर हैं, अस्पताल हैं, एम्बुलेंस हैं, इन सबके कर्मचारियों के बचाव के इंतजाम नाकाफी हैं, और उनकी जान को जोखिम काफी है।
फिर जिस तरह आज घरों में महफूज़ कैद बाकी आम लोगों के परिवार हैं, इन लोगों के भी परिवार हैं। आज भी मुहल्लों की नालियों में उतरकर सफाई कर्मचारी पानी का रास्ता बना रहे हैं, दवा छिड़क रहे हैं। और अभी तीन हफ़्तों के लॉकडाउन का पहला हफ्ता भी पूरा नहीं हुआ है। अभी कम से कम दो हफ्ते, और अधिक हुआ तो कई और हफ्ते इसी किस्म की सख्त ड्यूटी के हो सकते हैं।
मुल्क पर अगर महज कोरोना का हमला हुआ रहता तो भी तमाम सरकारी अमले थक जाते, लेकिन मुल्क पर हमला तो कोरोना के साथ-साथ सरकारी बददिमाग-फैसले का भी हुआ है जिसने देश के करोड़ों सबसे गरीब लोगों को देश की सरहद के भीतर मुजरिम, अवांछित, शरणार्थी बना दिया है। न शहरों में, न कारखानों की बस्तियों में उनके रहने का इंतजाम है, ना ही घर जाने की इजाजत, न साधन।
फिर आज देश में किसी को यह भरोसा नहीं है कि सरकार सच ही बोल रही है। जिस तरह ईश्वर पहाड़ी इलाकों में बादल फटने की सजा देता है, और नीचे के पूरे गांव डूब जाते हैं, उसी तरह इस देश में दिल्ली में बादल फटता है, और देश के तमाम गरीब डूब जाते हैं। इस बात को पुलिस भी समझती है, सफाई कर्मचारी भी समझते हैं, और राज्यों की सरहदों पर तैनात बाकी लोग भी समझते हैं। उनके मन इस रंज से भरे हुए हैं कि पूरे देश के सरकारी अमले की जिंदगी को इस तरह खतरे में क्यों डाला गया, क्यों देश के करोड़ों लोगों को इस तरह रातों-रात बेघर कर दिया गया, सड़कों पर ला दिया गया, शरणार्थी बना दिया गया।
यह सब देखकर भी लोगों में जान पर खेलकर काम करने की हसरत कम होती है। लोगों के सामने मिसाल है कि नोटबंदी से देश को मौत और अंधाधुंध घाटे के सिवाय कुछ नहीं मिला था। अब उसी अंदाज में किए गए लॉकडाउन से भी लोगों को मौत और मौत के टक्कर की बेरोजगारी ही मिल रहे हैं, देश करे तो क्या करे? और मजबूर सरकारी अमला करे तो क्या करे? जान दे-दे दिल्ली के गलत फैसलों के लिए ?