-सुनील कुमार (संपादक दैनिक छत्तीसगढ़)
पिछले हफ्ते-दो हफ्ते में छत्तीसगढ़ में बड़े भयानक ऐसे जुर्म हुए हैं जिनसे या तो पुलिस खुद जुड़ी रही, या उसके परिवार के लोग। एक महिला इंस्पेक्टर ने अपने पति को गोली मारी कि उसका किसी और से अवैध संबंध है। जख्मी पति ने अस्पताल में बयान दिया कि उसकी इंस्पेक्टर पत्नी का एक सिपाही से अवैध संबंध है, और इस वजह से उसने गोली मारी है। रायगढ़ में एक पुलिस अफसर का बेटा बलात्कार में पकड़ाया। रायपुर में दो दिन पहले एक कार चोरी में एक सिपाही गिरफ्तार हुए। इसके पहले दुर्ग में एक सिपाही एक कत्ल में गिरफ्तार हुआ। कल रायपुर में एक सिपाही पुलिस की रायफल लेकर एक व्यापारी के शोरूम पहुंचा, और खरीदी की किसी बहस पर उसे गोली मारकर खत्म कर दिया।
अगर गिने-चुने दिनों में इतनी घटनाएं नहीं होतीं, तो शायद पुलिस के बारे में कुछ सोचने की जरूरत भी नहीं होती। लेकिन एक के बाद एक ऐसे मामले हो रहे हैं जिनमें पुलिस बड़े संगीन जुर्म करते पकड़ा रही है। यह समझने की जरूरत है कि जिस पुलिस पर जुर्म दर्ज करके मुजरिम को पकडऩे का जिम्मा रहता है, वही जब जुर्म में शामिल हो जाती है, तो शुरुआती दौर में उसके फंसने का खतरा बड़ा कम रहता है। दुर्ग में तो जिस पुलिस सिपाही को कत्ल के जुर्म में पकड़ा गया वह कई दिन तक खुद ही जांच में शामिल घूम रहा था। ऐसे में पुलिस के खिलाफ न तो तेजी से शिकायत आती, और न ही आसानी से सुबूत जुटते। इसलिए जब पुलिस की गिरफ्तारी की नौबत आ जाती है तो यह मानकर चलना चाहिए कि ऐसे, या दूसरे किस्म के, सैकड़ों मामले हो जाने के बाद ही किसी एक मामले में जब सुबूत चीख-चीखकर बोलते हैं, तब पुलिस अपने साथ के लोगों को गिरफ्तार करती है।
छत्तीसगढ़ में पुलिस की नौबत को लेकर सोचने की जरूरत कई वजहों से है। लोगों को याद होगा कि पिछली भाजपा सरकार के आखिरी महीनों में पुलिस-परिवार आंदोलन चला जिसमें पुलिस की काम की स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए कई मांगें सामने रखी गईं। पुलिस और प्रशासन ने अपनी पूरी ताकत से इस आंदोलन को कुचलकर रख दिया था, और इसके पीछे जो लोग थे उनको गिरफ्तार भी किया गया था। इसके बाद बनी एक कमेटी ने पुलिस को साप्ताहिक अवकाश देने सहित कई किस्म की सिफारिशें की थीं, और वर्तमान सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ने चुनाव के पहले ऐसा वायदा भी किया था कि पुलिसवालों का हाल सुधारा जाएगा।
देश में पुलिस का तनाव, और उसके भीतर अपराध की भावना न तो नई बात है, और न ही यह छत्तीसगढ़ तक सीमित है। कई दशक पहले पुलिस तनाव और पुलिस की हिंसा को लेकर अर्धसत्य जैसी फिल्म बनी थी, और लोग उस हिंसक चेहरे को एक कहानी में भी देखकर हड़बड़ा गए थे जबकि वह हकीकत के एकदम करीब था। इसके बाद मुम्बई फिल्म उद्योग ने अब तक 56 नाम की फिल्म सामने रखी जिसमें मुठभेड़-हत्याओं की शौकीन पुलिस का किरदार था। फिल्मों में ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर बनी कई पुलिस सुधार रिपोर्ट में भी तरह-तरह के सुझाव पिछले दशकों में सामने आए हैं कि पुलिस के भीतर तनाव और कुंठा की वजहों को कैसे सुधारा जाए, कैसे उनके परिवार को हिंसा से दूर रखा जाए, कैसे पुलिस जवानों के बच्चों को अपराधी बनने से रोका जाए। लेकिन बस्तर में हिंसा करने वाली, बलात्कार और मुठभेड़-हत्या करने वाली, गांव जलाने वाली पुलिस को छत्तीसगढ़ ने अच्छी तरह दर्ज किया है। दूसरी तरफ राजधानी रायपुर में पुलिस के बड़े अफसरों ने किस कदर नियम-कायदे तोड़कर पिछली सरकार के दौरान गलत काम किए थे, वह जांच अभी चल ही रही है। ऐसे में छत्तीसगढ़ पुलिस को अपने मुखिया के स्तर पर राजनीतिक लोगों के साथ बैठकर यह सोचने की जरूरत है कि इतने, और ऐसे-ऐसे जुर्म में शामिल पुलिस को देखते हुए, इस महकमे में कैसे सुधार की जरूरत है। यह हाल देश के दूसरे प्रदेशों में भी हो सकता है, लेकिन छत्तीसगढ़ में यह लगातार सामने आ रहा है, और इतने कम अरसे में पुलिस के ऐसे इतने जुर्म लोगों को याद नहीं पड़ रहे हैं। वर्तमान सरकार को इस बारे में गंभीरता से देखना चाहिए।
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