सुषमा स्वराज ने उनकी और ललित मोदी की निकटता पर लिखे एक आलोचना लेख कोसाहस और सलीका से सुना और लेखक को बधाई भी दी,अपने साथ हुए इस वाकये को प्रजातंत्र से साझा किया वरिष्ठ पत्रकार जयराम शुक्ल ने
सच सुनने का साहस जरुरी ही होता है। पश्चिम बंगाल में किसी ने कार्टून बनाया ममता दीदी ने उसे जेल भेज दिया। पर इस दौर में अपने ही खिलाफ सच कहने पर कोई हौंसला दे तो निश्चित तौरपर उसकी शख्सियत दूसरों से एक बित्ता ऊपर उठ जाती है। सुषमा स्वराज में सच सुनने का साहस भी था और सलीका भी। एक किस्सा तो मेरे साथ ही जुड़ा है.. सुनिए!
ये बात 2015 की जून के महीने की है। मोदी मंत्रिमंडल में सुषमा जी विदेश मंत्री थीं। उन्हीं दिनों विपक्ष एक विवाद खोज लाया। वो था आईपीएल के जादूगर ललित मोदी से सुषमा जी के जुड़ाव का। ललित मोदी पर भारत में कई आपराधिक मुकदमे हैं उससे बचने के लिए वे इंग्लैण्ड में फरारी काट रहे हैं। ये तो ठीक है..। विवाद की वजह ये थी कि विदेश मंत्री सुषमा जी ने ब्रिटिश गवर्नमेंट से ललित मोदी को पुर्तगाल जाने के लिए वीजा जारी करने की शिफारिश कर दी।
विपक्ष यही बात ले उड़ा। मैंने इस प्रकरण पर एक ब्लॉग लिख दिया कि किस तरह क्रिकेट के ग्लैमर में भारतीय राजनेता गुड़ की मख्खी की तरह खिचे आते हैं और वे किस तरह क्रिकेट के शातिर धंधेबाजों का औजार बन जाते हैं।
ब्लॉग में शरद पँवार, राजीव शुक्ल, अरुण जेटली, वसुंधरा राजे, अनुराग ठाकुर, ज्योतिरादित्य, लालू यादव का जिक्र तो किया ही कुछ लाइनें सुषमा स्वराज और ललित मोदी के संबंधों पर भी थीं।
जिन लाइनों को मीडिया ने पकड़, उछाला और मुझे यकायक राष्ट्रीय ख्याति का ब्लागर बना दिया वो ये थीं- “सुषमा जी को ललित मोदी से यह पूछ लेना चाहिए था कि इंग्लैंड में रहते हुए पुर्तगाल में इलाज कराने का क्या तुक..! ये तो ऐसेई हुआ जैसे कि भोपाल में रहते हुए रायसेन में इलाज कराना।”
यद्यपि इसकी कैफियत में मैंने यह भी लिखा कि… कत्ल की सजा पाए अपराधी का भी मानवाधिकार होता है और ललित मोदी पर आर्थिक हेराफेरी के सिर्फ आरोप हैं जिसे अदालत में अपराध के तौर पर साबित होना है।
इस इस दृष्टि से यह गुनाह भोपाल को कब्रगाह में बदलने वाले वाँरेन एंडरसन और बोफोर्स के दलाल क्वोत्रोची को देश से भगाने के मुकाबले तुच्छ है। संसद पर सुषमाजी-ललित मोदी को लेकर कांग्रेस ही सबसे ज्यादा हमलावर थी।
अब कहानी में ट्विस्ट- मेरा यह ब्लॉग इसलिए महत्वपूर्ण और खबरखेज बन गया क्योंकि मैं दीनदयाल विचार प्रकाशन की पत्रिका चरैवेति का संपादक था और इसे भाजपा की मुखपत्रिका माना जाता है।
सुबह देश के सबसे बड़े हिंदी व अँग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर मिर्च-मसाले के साथ मेरी खबर ली गई थी। टीवी चैनलों में पट्टियां चल रहीं थी। कुछेक रीजनल चैनल ब्रेकिंग दे रहे थे- जयराम शुक्ल का ब्लॉग बम।
भोपाल और दिल्ली के बड़े नेताओं के फोन पर फोन आ रहे थे। घर के बाहर का दरवाजा खोला तो कोई दर्जन भर से ज्यादा चैनलिया संवाददाता लोगो वाले माइक और कैमरे के साथ तैनात थे।
बाइट का असली अर्थ उसी दिन समझ में आया। मुझे तय कर पाना मुश्किल हो रहा था कि चैनलों की ओर से जो सवाल दागे जा रहे हैं वो डाँग-बाइट है कि स्नेक बाइट।
बहरहाल खुद पत्रकार होने का वास्ता देते हुए मैंने सभी से हाँथ जोड़कर कहा- कि कटपेस्ट की पत्रकारिता न करें, मैं पूरा लेख ही बाँचकर सुनाए देता हूँ, कर सकें तो उसे टेलीकास्ट करें। कैसे भी पिंड छूटा।
इसी बीच मेरे एक पत्रकार मित्र का फोन- यार तेरी टीआरपी तो नेताओं, सेलीब्रेटियों को फेल किए हुए है..कोई सफाई मत दे..छपने दे जो छपता है..। उस दिन सुबह से लेकर शाम तक मैं खबरों में था।
चूँकि यह खबर देश के विदेश मंत्री के साथ जुड़ी हुई थी और सच्चाई यह भी थी कि मैं भाजपा के मुख्यालय में ही पत्रिका के दफ्तर में बैठता था, सो जरूरी था कि बात ज्यादा बिगड़े उससे पहले सँभाल ली जाए।
मैंने पूरे ब्लॉग का टेक्स्ट सुषमा जी के सचिव को ई-मेल पर भेज दिया, साथ में एक व्यक्तिगत पत्र को भी टैग करते हुए, जिसमें पूरी कहानी लिखी थी कि यह लेख मेरा निजी ब्लॉग है पत्रिका का इससे कुछ लेना देना नहीं।
क्रिकेट की राजनीति को लेकर जो तिया-पाँचा चल रहा है उसे वैसे ही लिखा जो मुझे ठीक लगा। यदि मेरे लिखे से आपको शाब्दिक आघात लगा हो तो इसके लिए क्षमा चाहता हूँ..और तत्काल ही खुद को इस पत्रिका के दायित्व से मुक्त करता हूँ। पत्र और लेख की एक प्रति तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के सचिव को भी भेज दिया।
बैठे ठाले शुरू हुई कंट्रोवर्सी के लिए खुद को कोस ही रहा था कि मोबाइल कि रिंग बजी। दूसरी ओर से आवाज आई कि माननीय विदेश मंत्रीजी आपसे बात करना चाहती हैं और फोन पर सुषमा जी आ गई।
अभिवादन की औपचारिकता के बाद उन्होंने कहा कि शुक्ला जी आपने बहुत बढ़िया लिखा है….इसमें अफसोस जैसी कोई बात नहीं। एक पत्रकार का ऐसा ही नजरिया होना चाहिए भले ही वह हमारे घर का ही हो।
फिर बोलीं हाँ वो क्वोत्रोची और एंडरसन वाला संदर्भ बहुत बढ़िया लगा। कानों में मिठास घोलती वह आवाज यह कहते हुए बंद हुई…मीडिया को कहने दीजिए, मैंने अन्यथा नहीं लिया है, दिल्ली आएं तो जरूर मिलें।
ये था सुषमा स्वराज जी में सच सुनने का साहस और सलीका। दूसरे दिन लोकसभा में सुषमा जी ने जब अपने ऊपर लगाए गए आरोपों का जवाब दिया तो उसमें क्वोत्रोची और एंडरसन का संदर्भ था। उन्होंने राष्ट्र के इन दोनों अपराधियों के अपराध का ब्योरा देते हुए विपक्ष के तौर पर बरस रहे यूपीए और कांग्रेस को कठघरे में खड़ा कर दिया।
सुषमा जी का यह पलटवार कांग्रेस के नाभिकुंड पर ऐसा लगा कि इसके बाद ऐसा कोई वाकया सुनने को नहीं मिला, जब यूपीए या कांग्रेस ने उनपर कोई आरोप लगाए हों।
आज की राजनीति में सच सुनने का साहस लाखों नहीं करोड़ों में एक है। हर तरफ रावण दरबार सजे हैं। मीडिया की भूमिका भी अस्तुति करत सुनाइ-सुनाई जैसी है।
सुषमा जी सूचना प्रसारण मंत्री रही हैं। उनके दौर में मिडिया की इज्जत प्रतिष्ठा बनी रही। आज चाहे बल्लभभवन हो या दिल्ली के नार्थ-साउथ ब्लाक, पत्रकार बिरादरी को चोर निगाहों से देखा जाता है।
काश हमारे राजनेताओं में सुषमा जी जैसी सौम्य विद्वता, सुनने और सहने का धैर्य और अपने दायित्व के प्रति समर्पण का सवांश भी आ जाए।