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राजनेताओं की सत्ता की तरह बहुमत के गणित में कई दशक तक लोगों को उलझाए रखा सट्टा किंग

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राजनेताओं की सत्ता की तरह बराजनेताओं की सत्ता की तरह बहुमत के गणित में
कई दशक तक लोगों को उलझाए रखा सट्टा किंग

इंदौर में सट्टे के नंबर की दीवानगी और टोटके बता रहे वरिष्ठ पत्रकार कीर्ति राणा

इंदौर। अरे..! सट्टा किंग रतन खत्री का निधन हो गया….मुझे दशकों पहले के दिन याद आगए। ‘प्रभात किरण’ पहले साप्ताहिक अखबार था। किशनराव उस्ताद जो मुंह बोले किशन मामा थे, मुझे प्यार से किरन कहा करते थे। उन्होंने झाडू लगाने, प्रिटिंग मशीन (ट्रेडल, सिलेंडर आदि)साफ करने के पर मुझे भी लगा दिया था 15 पैसे घंटे में। किशन मामा को सट्टा लगाने का शौक था। सराफा में प्रभात किरण वाली बिल्डिंग के कोने पर मूत्रालय के पास चाय दुकान पर और जबरेश्वर महादेव के सामने राजेंद्र-प्रेम का सट्टा कारोबारी के रूप में भी नाम चलता था उस पतली सी गली में छोटे-छोटे मुड्डों पर रसीद कट्टे जैसी डायरी लेकर सट्टा लिखने वाले बैठे रहते थे। किशन मामा जिस जूट, पत्ते पर पैसा लगाते, अपन भी उस नंबर पर चार आने लगा देते।

सालवी बाखल (सब्जी मंडी) में जहां नानी के साथ हम रहते थे। हमारे एक किराएदार विजय सिंह (मामा) चौहान हुआ करते थे, उनकी आय का एक आकस्मिक साधन सट्टा लगाना भी था, बाद में उनके पुत्र मनोहर ने भी इसे अपना लिया।रात की साढ़े आठ बजते ही बैचेनी शुरु हो जाती थी कि ओपन नें कौनसा पत्ता खुलेगा, उस तीन अक्खर का टोटल में जो नंबर आता वह नंबर (1से 9 तक कोई एक नंबर) होता था। क्लोज खुलता रात 11.30 बजे बाद कभी भी। इस ओपन-क्लोज के जोड़ से यदि लगाया हुआ नंबर मेल खा जाता तो सिंगल अक्खर, पत्ते आदि की बलन मिल जाती थी।

ये हकीकत है तब कि जब मैं हिमाविप्र क्रमांक 30 से 6टीसे 8वीं तक पढ़ रहा था।लोधीपुरा गली नं 3 में रहने वाले एक शिक्षक महेशचंद्र गुप्ता सामाजिक अध्ययन पढ़ाने के साथ ट्यूशन भी लेते थे।हमारा घर बीच सेंटर में होने से वो ट्यूशन यहीं पढ़ाते थे, मुझ से ट्यूशन की फीस नहीं लेते थे। उनका लिखा सांई चालीसा उस जमाने में जितना लोकप्रिय था उतना ही उनके द्वारा (प्रोफेसर गुप्ता) द्वारा तैयार किया जाने वाला सट्टे का पाना भी हाथोंहाथ लिया जाता था । इस किताब में पूरे महीने में कौनसा पत्ता कितनी बार खुला, कौनसा अक्खर कब खुला आदि जानकारी के साथ भविष्यवाणी भी होती थीं कुत्ते ने काटा, सड़क पर दूध ढुला, रमूज मिली सट्टे के नंबर लगाने में कई बार अनुमान भी सटीक बैठ जाते थे ।

किस्सा ऐसा है कि घर के पीछे मराठी स्कूल क्रमांक 17 था, मदरसे में नीम के पेड़ की खोह में कुतिया ने 6-8 बच्चे दिए थे।जब मैं नवजात कुत्तों के पिल्लो के बीचबैठा उन्हें दुलार रहा था, तभी उनकी मां को यह लगा कि मैं पिल्लों को परेशान कर रहा हूं। उसने मेरी पीठ पर इतनी जोर से दांत गड़ाए कि मैं बिलबिला उठा। रोता हुआ घर पहुंचा तो पहले नानी ने गर्म पानी करने के लिए चूल्हे में जलती लकड़ी से पिटाई की, तू क्यों गया,यहां से उठकर। पिटाई के बाद पीठ पर चूना लगाया। तब कुत्ता काटे के 14 इंजेक्शन लगते थे। रोज नानी के साथ लाल अस्पताल (एमटीएच कंपाउंड) जाता। एक दिन लौटते में देखा कि सड़क पर दूध वाला गिर पड़ा दूध फैल गया था। नानी से मैंने कहा रमूज मिली है। वो बोली कैसे मैंने कहा सड़क के सात और दूध के दो। यानी आज 2*7 या 7*2 खुलेगा। नानी को बात जम गई, दोनों नंबरों पर एक-एक रुपया लगा दिया, अनुमान सही निकला और दो रुपए के बदले शायद निन्यानवे रु की बलन मिली थी। इस तरह मैंने भी कई बार बलन भी ली है। लाखों परिवारों के सपने जुड़े रहते थे मटके या ओपन-क्लोज से । पहले रतन खत्री का एकतरफा काम था, बाद में कल्याण मैदान में आया, अब कुछ और भी हैं।

तब नईदुनिया में मिस्टर ब्लांडी वाली स्ट्रीप छपा करती थी, उसके हाथ के इशारे, वेशभूषा टोप आदि देखकर अक्खर तय करते और चार आने, एक रुपया लगा देते, कई बार सट्टा खुल भी जाता था।आज स्थानीय दैनिक अखबारों में फिर चाहे वह इंदौर समाचार हो या अन्य सब के लिए सट्टे के अंक (लाभ-शुभ या किसी अन्य नाम से) देना अनिवार्यता इसलिए हो गई है कि सैंकड़ों पाठक तो बस ओपन-क्लोज देखने के लिए ही अखबार लेते हैं।हुमत राजनेताओं की सत्ता की तरह बहुमत के गणित में
कई दशक तक लोगों को उलझाए रखा सट्टा किंग

इंदौर में सट्टे के नंबर की दीवानगी और टोटके बता रहे वरिष्ठ पत्रकार कीर्ति राणा

इंदौर। अरे..! सट्टा किंग रतन खत्री का निधन हो गया….मुझे दशकों पहले के दिन याद आगए। ‘प्रभात किरण’ पहले साप्ताहिक अखबार था। किशनराव उस्ताद जो मुंह बोले किशन मामा थे, मुझे प्यार से किरन कहा करते थे। उन्होंने झाडू लगाने, प्रिटिंग मशीन (ट्रेडल, सिलेंडर आदि)साफ करने के पर मुझे भी लगा दिया था 15 पैसे घंटे में। किशन मामा को सट्टा लगाने का शौक था। सराफा में प्रभात किरण वाली बिल्डिंग के कोने पर मूत्रालय के पास चाय दुकान पर और जबरेश्वर महादेव के सामने राजेंद्र-प्रेम का सट्टा कारोबारी के रूप में भी नाम चलता था उस पतली सी गली में छोटे-छोटे मुड्डों पर रसीद कट्टे जैसी डायरी लेकर सट्टा लिखने वाले बैठे रहते थे। किशन मामा जिस जूट, पत्ते पर पैसा लगाते, अपन भी उस नंबर पर चार आने लगा देते।

सालवी बाखल (सब्जी मंडी) में जहां नानी के साथ हम रहते थे। हमारे एक किराएदार विजय सिंह (मामा) चौहान हुआ करते थे, उनकी आय का एक आकस्मिक साधन सट्टा लगाना भी था, बाद में उनके पुत्र मनोहर ने भी इसे अपना लिया।रात की साढ़े आठ बजते ही बैचेनी शुरु हो जाती थी कि ओपन नें कौनसा पत्ता खुलेगा, उस तीन अक्खर का टोटल में जो नंबर आता वह नंबर (1से 9 तक कोई एक नंबर) होता था। क्लोज खुलता रात 11.30 बजे बाद कभी भी। इस ओपन-क्लोज के जोड़ से यदि लगाया हुआ नंबर मेल खा जाता तो सिंगल अक्खर, पत्ते आदि की बलन मिल जाती थी।

ये हकीकत है तब कि जब मैं हिमाविप्र क्रमांक 30 से 6टीसे 8वीं तक पढ़ रहा था।लोधीपुरा गली नं 3 में रहने वाले एक शिक्षक महेशचंद्र गुप्ता सामाजिक अध्ययन पढ़ाने के साथ ट्यूशन भी लेते थे।हमारा घर बीच सेंटर में होने से वो ट्यूशन यहीं पढ़ाते थे, मुझ से ट्यूशन की फीस नहीं लेते थे। उनका लिखा सांई चालीसा उस जमाने में जितना लोकप्रिय था उतना ही उनके द्वारा (प्रोफेसर गुप्ता) द्वारा तैयार किया जाने वाला सट्टे का पाना भी हाथोंहाथ लिया जाता था । इस किताब में पूरे महीने में कौनसा पत्ता कितनी बार खुला, कौनसा अक्खर कब खुला आदि जानकारी के साथ भविष्यवाणी भी होती थीं कुत्ते ने काटा, सड़क पर दूध ढुला, रमूज मिली सट्टे के नंबर लगाने में कई बार अनुमान भी सटीक बैठ जाते थे ।

किस्सा ऐसा है कि घर के पीछे मराठी स्कूल क्रमांक 17 था, मदरसे में नीम के पेड़ की खोह में कुतिया ने 6-8 बच्चे दिए थे।जब मैं नवजात कुत्तों के पिल्लो के बीचबैठा उन्हें दुलार रहा था, तभी उनकी मां को यह लगा कि मैं पिल्लों को परेशान कर रहा हूं। उसने मेरी पीठ पर इतनी जोर से दांत गड़ाए कि मैं बिलबिला उठा। रोता हुआ घर पहुंचा तो पहले नानी ने गर्म पानी करने के लिए चूल्हे में जलती लकड़ी से पिटाई की, तू क्यों गया,यहां से उठकर। पिटाई के बाद पीठ पर चूना लगाया। तब कुत्ता काटे के 14 इंजेक्शन लगते थे। रोज नानी के साथ लाल अस्पताल (एमटीएच कंपाउंड) जाता। एक दिन लौटते में देखा कि सड़क पर दूध वाला गिर पड़ा दूध फैल गया था। नानी से मैंने कहा रमूज मिली है। वो बोली कैसे मैंने कहा सड़क के सात और दूध के दो। यानी आज 2*7 या 7*2 खुलेगा। नानी को बात जम गई, दोनों नंबरों पर एक-एक रुपया लगा दिया, अनुमान सही निकला और दो रुपए के बदले शायद निन्यानवे रु की बलन मिली थी। इस तरह मैंने भी कई बार बलन भी ली है। लाखों परिवारों के सपने जुड़े रहते थे मटके या ओपन-क्लोज से । पहले रतन खत्री का एकतरफा काम था, बाद में कल्याण मैदान में आया, अब कुछ और भी हैं।

तब नईदुनिया में मिस्टर ब्लांडी वाली स्ट्रीप छपा करती थी, उसके हाथ के इशारे, वेशभूषा टोप आदि देखकर अक्खर तय करते और चार आने, एक रुपया लगा देते, कई बार सट्टा खुल भी जाता था।आज स्थानीय दैनिक अखबारों में फिर चाहे वह इंदौर समाचार हो या अन्य सब के लिए सट्टे के अंक (लाभ-शुभ या किसी अन्य नाम से) देना अनिवार्यता इसलिए हो गई है कि सैंकड़ों पाठक तो बस ओपन-क्लोज देखने के लिए ही अखबार लेते हैं।के गणित में
कई दशक तक लोगों को उलझाए रखा सट्टा किंग

इंदौर में सट्टे के नंबर की दीवानगी और टोटके बता रहे वरिष्ठ पत्रकार कीर्ति राणा

इंदौर। अरे..! सट्टा किंग रतन खत्री का निधन हो गया….मुझे दशकों पहले के दिन याद आगए। ‘प्रभात किरण’ पहले साप्ताहिक अखबार था। किशनराव उस्ताद जो मुंह बोले किशन मामा थे, मुझे प्यार से किरन कहा करते थे। उन्होंने झाडू लगाने, प्रिटिंग मशीन (ट्रेडल, सिलेंडर आदि)साफ करने के पर मुझे भी लगा दिया था 15 पैसे घंटे में। किशन मामा को सट्टा लगाने का शौक था। सराफा में प्रभात किरण वाली बिल्डिंग के कोने पर मूत्रालय के पास चाय दुकान पर और जबरेश्वर महादेव के सामने राजेंद्र-प्रेम का सट्टा कारोबारी के रूप में भी नाम चलता था उस पतली सी गली में छोटे-छोटे मुड्डों पर रसीद कट्टे जैसी डायरी लेकर सट्टा लिखने वाले बैठे रहते थे। किशन मामा जिस जूट, पत्ते पर पैसा लगाते, अपन भी उस नंबर पर चार आने लगा देते।

सालवी बाखल (सब्जी मंडी) में जहां नानी के साथ हम रहते थे। हमारे एक किराएदार विजय सिंह (मामा) चौहान हुआ करते थे, उनकी आय का एक आकस्मिक साधन सट्टा लगाना भी था, बाद में उनके पुत्र मनोहर ने भी इसे अपना लिया।रात की साढ़े आठ बजते ही बैचेनी शुरु हो जाती थी कि ओपन नें कौनसा पत्ता खुलेगा, उस तीन अक्खर का टोटल में जो नंबर आता वह नंबर (1से 9 तक कोई एक नंबर) होता था। क्लोज खुलता रात 11.30 बजे बाद कभी भी। इस ओपन-क्लोज के जोड़ से यदि लगाया हुआ नंबर मेल खा जाता तो सिंगल अक्खर, पत्ते आदि की बलन मिल जाती थी।

ये हकीकत है तब कि जब मैं हिमाविप्र क्रमांक 30 से 6टीसे 8वीं तक पढ़ रहा था।लोधीपुरा गली नं 3 में रहने वाले एक शिक्षक महेशचंद्र गुप्ता सामाजिक अध्ययन पढ़ाने के साथ ट्यूशन भी लेते थे।हमारा घर बीच सेंटर में होने से वो ट्यूशन यहीं पढ़ाते थे, मुझ से ट्यूशन की फीस नहीं लेते थे। उनका लिखा सांई चालीसा उस जमाने में जितना लोकप्रिय था उतना ही उनके द्वारा (प्रोफेसर गुप्ता) द्वारा तैयार किया जाने वाला सट्टे का पाना भी हाथोंहाथ लिया जाता था । इस किताब में पूरे महीने में कौनसा पत्ता कितनी बार खुला, कौनसा अक्खर कब खुला आदि जानकारी के साथ भविष्यवाणी भी होती थीं कुत्ते ने काटा, सड़क पर दूध ढुला, रमूज मिली सट्टे के नंबर लगाने में कई बार अनुमान भी सटीक बैठ जाते थे ।

किस्सा ऐसा है कि घर के पीछे मराठी स्कूल क्रमांक 17 था, मदरसे में नीम के पेड़ की खोह में कुतिया ने 6-8 बच्चे दिए थे।जब मैं नवजात कुत्तों के पिल्लो के बीचबैठा उन्हें दुलार रहा था, तभी उनकी मां को यह लगा कि मैं पिल्लों को परेशान कर रहा हूं। उसने मेरी पीठ पर इतनी जोर से दांत गड़ाए कि मैं बिलबिला उठा। रोता हुआ घर पहुंचा तो पहले नानी ने गर्म पानी करने के लिए चूल्हे में जलती लकड़ी से पिटाई की, तू क्यों गया,यहां से उठकर। पिटाई के बाद पीठ पर चूना लगाया। तब कुत्ता काटे के 14 इंजेक्शन लगते थे। रोज नानी के साथ लाल अस्पताल (एमटीएच कंपाउंड) जाता। एक दिन लौटते में देखा कि सड़क पर दूध वाला गिर पड़ा दूध फैल गया था। नानी से मैंने कहा रमूज मिली है। वो बोली कैसे मैंने कहा सड़क के सात और दूध के दो। यानी आज 2*7 या 7*2 खुलेगा। नानी को बात जम गई, दोनों नंबरों पर एक-एक रुपया लगा दिया, अनुमान सही निकला और दो रुपए के बदले शायद निन्यानवे रु की बलन मिली थी। इस तरह मैंने भी कई बार बलन भी ली है। लाखों परिवारों के सपने जुड़े रहते थे मटके या ओपन-क्लोज से । पहले रतन खत्री का एकतरफा काम था, बाद में कल्याण मैदान में आया, अब कुछ और भी हैं।

तब नईदुनिया में मिस्टर ब्लांडी वाली स्ट्रीप छपा करती थी, उसके हाथ के इशारे, वेशभूषा टोप आदि देखकर अक्खर तय करते और चार आने, एक रुपया लगा देते, कई बार सट्टा खुल भी जाता था।आज स्थानीय दैनिक अखबारों में फिर चाहे वह इंदौर समाचार हो या अन्य सब के लिए सट्टे के अंक (लाभ-शुभ या किसी अन्य नाम से) देना अनिवार्यता इसलिए हो गई है कि सैंकड़ों पाठक तो बस ओपन-क्लोज देखने के लिए ही अखबार लेते हैं।

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