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"Gobarha"... the compulsion of untouchables to eat grains by picking them from cow dung

“गोबरहा”….. अछूतों की गोबर से बीनकर अनाज खाने की मजबूरी

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बैल खलिहान में अनाज को भूसे से अलग करने के लिए उस पर चलते, इस दौरान वे कुछ अनाज और भूसा खा लेते. अगले दिन, उनके गोबर से आंशिक रूप से पचा हुआ अनाज निकाला जाता है, छाना जाता, और अछूत मजदूरों को उनकी मजदूरी के रूप में दिया जाता. मजदूर इस अनाज को आटे में बदलकर रोटी बनाते,

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उत्तरप्रदेश के कुछ हिस्सों में, अछूतों को खेती के काम के लिए “गोबरहा” दिया जाता था. जिसका अर्थ है “गोबर का अनाज.” फसल कटाई के मौसम (मार्च या अप्रैल) में बैल खलिहान में अनाज को भूसे से अलग करने के लिए उस पर चलते, इस दौरान वे कुछ अनाज और भूसा खा लेते. अगले दिन, उनके गोबर से आंशिक रूप से पचा हुआ अनाज निकाला जाता है, छाना जाता, और अछूत मजदूरों को उनकी मजदूरी के रूप में दिया जाता. मजदूर इस अनाज को आटे में बदलकर रोटी बनाते, जो उनकी मजबूरी का परिणाम होता.

“द मूकनायक” में गीता सुनील पिल्लई के अनुसार अंबेडकरवादी चिंतक बताते हैं कि “गोबरहा” केवल एक भुगतान का तरीका नहीं, बल्कि जानबूझकर किया गया अपमान था. यह अछूतों को सम्मानजनक श्रम और भोजन से वंचित करने का प्रतीक है, जो उन्हें पशुओं द्वारा त्यागे गए अवशेषों पर जीवित रहने के लिए मजबूर करता था.

अंबेडकर का इस प्रथा का दस्तावेजीकरण जाति व्यवस्था की क्रूरता को रेखांकित करता है, जहां अछूतों के श्रम को इतना कम आंका जाता है कि उनकी जीविका भी अपमानजनक हो जाती है.

पिल्लई लिखती हैं- ज़रा कल्पना कीजिए, एक गरीब मजदूर, जिसने दिनभर तपती धूप में हाड़तोड़ मेहनत की- खेतों में पसीना बहाया, फसल काटी, अनाज को भूसे से अलग करने के लिए बैलों को हांका. उसकी पीठ झुक गई, हथेलियां छिल गईं, लेकिन उसकी आंखों में छोटी-सी उम्मीद रहती कि शायद उसे अपनी मेहनत का कुछ उचित फल मिलेगा.“गोबरहा”….. अछूतों की गोबर से बीनकर अनाज खाने की मजबूरी

थका-हारा, अपने मालिक के सामने अपनी मजदूरी मांगने जाता, यह सोचकर कि शायद उसके बच्चों को पेट भर खाना नसीब होगा. लेकिन मालिक उसे क्या देता?

पैसे न साफ-सुथरा अनाज, बल्कि एक झोली भर “गोबरहा”—वही अनाज, जो बैलों के गोबर से छानकर निकाला जाता. वही दाने, जो पशुओं के पेट से होकर आए और मजदूर की झोली में डाल दिए गए, ताकि वह इन्हें आटे में पीसकर अपने परिवार के लिए रोटी बनाए.

यह कहानी गोबरहा की है—एक ऐसी प्रथा, जो अछूतों की अमानवीयता और हिंदू सामाजिक व्यवस्था की क्रूरता का प्रतीक है, जैसा डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने अपनी रचनाओं में बयान किया है. यह एक ऐसी सच्चाई है, जो दिल को झकझोर देती है और हमें उस उत्पीड़न की गहराई तक ले जाती है, जिसे अछूतों ने सदियों तक सहा.

डॉ. भीमराव अंबेडकर के लेखन और भाषण, खंड 5, अध्याय 4 में भारत के जाति-प्रधान समाज में अछूतों (दलितों) के सामने आने वाली कठोर वास्तविकताओं का मार्मिक वर्णन किया गया है, जिसमें गोबरहा की प्रथा उनकी अमानवीयता के एक प्रमुख प्रतीक के रूप में उभरती है.

“गोबरहा प्रथा” हिंदू सामाजिक व्यवस्था के तहत अछूतों के व्यवस्थित उत्पीड़न पर प्रकाश डालती है. अछूतों को आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से हाशिए पर धकेलने को दर्शाती है, और यह भी बताती है कि कैसे उन्हें तथाकथित “ग्राम गणराज्य” में बाहरी व्यक्ति बनाकर रखा गया.

 

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