सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )
मध्यप्रदेश के सतना में दो छोटे जुड़वां भाईयों का अपहरण हुआ, परिवार से बीस लाख रूपए की फिरौती ली गई, और अब उनकी लाशें पानी मेें तैरते मिली हैं। इस बीच प्रदेश की कांग्रेस सरकार के खिलाफ भाजपा ने जमकर हल्ला बोला, और विपक्ष का अपना जिम्मा निभाया। अब जब हत्यारा पकड़ाया है तो वह आरएसएस और बजरंग दल, भाजपा और उसके नेताओं का करीबी निकला है, जिन गाडिय़ों का इस्तेमाल अपहरण और कत्ल में हुआ है, उन पर नंबर प्लेट की जगह रामराज्य लिखा हुआ है, हिन्दू धर्म के दूसरे निशान बने हुए हैं, और मोदी-भाजपा का झंडा लगा हुआ है। हत्यारे का फेसबुक पेज उसके संघ-भाजपा नेताओं के साथ तस्वीरों से भरा हुआ है। मध्यप्रदेश में यह अपने किस्म की अकेली वारदात नहीं है। इसके पहले केन्द्र की मोदी सरकार की जांच एजेंसियों ने और मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार की पुलिस ने पाकिस्तान के लिए जासूसी करने के जुर्म में जिन लोगों को गिरफ्तार किया था, उनमें भी भाजपा का एक नेता शामिल था।
अब सवाल यह उठता है कि जब साम्प्रदायिक संगठनों और राजनीतिक दलों का बैनल इस्तेमाल करने वाले लोग स्थानीय पुलिस पर एक दबाव बनाते हुए जुर्म करते हैं, तो उनके पकड़ाने की गुंजाइश वैसे भी कम हो जाती है। हिन्दुस्तान में शायद ही ऐसा कोई राज्य होगा जहां पर पुलिस सत्तारूढ़ पार्टी के दबाव के बिना काम करती होगी, और रिश्वत दिए बिना अपनी खुद की कोई पोस्टिंग पाती होगी। हिन्दुस्तान वैसे तो कई मुद्दों पर जगह-जगह बंटा हुआ है, लेकिन इस एक बात पर कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है कि पुलिस सत्तारूढ़ पार्टी के भ्रष्टाचार का, उसके लोगों के जुर्म छुपाने का, सबसे बड़ा जरिया है। ऐसे में भ्रष्ट पुलिस का हौसला वैसे भी मंदा रहता है, और वह सत्तारूढ़ नेताओं या सत्ता की मेहरबानी हासिल किए हुए नेताओं के जुर्म को अनदेखा करने की आदी हो जाती है। लेकिन इस एक बात से परे की भी एक दूसरी बात जगह-जगह सामने आई है कि धर्म और जाति के नाम पर, सम्प्रदाय और साम्प्रदायिकता की राजनीति करने वाले लोगों में से हिन्दू संगठनों के ही लोग ऐसे अधिक मिल रहे हैं जो कि तरह-तरह के जुर्म में शामिल पकड़ा रहे हैं। देश के राज पड़ोस के दुश्मन माने जाने वाले देश को बेचने की गद्दारी करने वाला मध्यप्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा से जुड़ा हुआ था।
सत्ता का मिजाज ही ऐसा होता है कि वह अपने बीच के मुजरिमों का हौसला बढ़ाती है। ऐसे में पार्टियों को, उनसे जुड़े हुए धार्मिक और साम्प्रदायिक संगठनों को यह सोचना चाहिए कि अगर वे सचमुच अपने संगठन की किसी भी इज्जत की परवाह करते हैं, तो उन्हें कैसा बर्ताव करना चाहिए, अपने लोगों के कैसे बर्ताव पर काबू करना चाहिए। आज अगर मध्यप्रदेश में इस ताजा भांडाफोड़ के बाद भी भाजपा, आरएसएस, और बजरंग दल के मुंह बंद हैं, तो यह चुप्पी इन संगठनों के भीतर के बाकी मुजरिमों का हौसला बढ़ाने वाली है। दिक्कत यह है कि दूसरे राजनीतिक दलों के पास अपने कुछ और मुजरिम हैं, जो उनके पसंदीदा, चहेते, और इस्तेमाल के हैं। इसलिए मौका पडऩे पर लोग दूसरी पार्टी के मुजरिमों का नाम लेकर तो तोहमत लगा लेते हैं, लेकिन अपने मुजरिमों की बात आने पर चुप्पी साध लेते हैं। ऐसे में मीडिया अकेला ऐसा रह जाता है जो संगठनों से जवाब मांगता है। जनता के बीच के संगठनों को भी गैरराजनीतिक रूप से, राजनीतिक-निष्पक्षता निभाते हुए ऐसे हर मामले पर सवाल उठाने चाहिए, और पूछना चाहिए कि उनके संगठन के ऐसे मुजरिमों के बारे में उनका क्या कहना है। दूसरी बात यह कि सार्वजनिक जीवन में गाडिय़ों पर झंडे-डंडे और नारे लगाकर चलने का सिलसिला खत्म करना चाहिए। छत्तीसगढ़ में अब रोजाना यह दिखता है कि सत्तारूढ़ पार्टी बदली तो गाडिय़ों की नंबर प्लेट पर भाजपा पदाधिकारियों के नाम दिखना कम हो गए, और आज की सत्तारूढ़ पार्टी के हजारों लोगों की तख्तियां नंबर प्लेट की जगह लग गई। ऐसी बददिमागी से सड़कों पर पुलिस पर एक निहायत अनैतिक दबाव पड़ता है, और यह सिलसिला कड़ाई से खत्म करना चाहिए। मजे की बात यह है कि जब चुनाव आचार संहिता लागू होती है, तब चुनाव आयोग के डंडे से डरा-सहमा पुलिस-प्रशासन ऐसी नंबर प्लेट पर कार्रवाई करता है, लेकिन चुनाव निकलते ही मानो देश से कानून खत्म हो जाता है। मध्यप्रदेश के इस ताजा दोहरा अपहरण-हत्याकांड में यह बात सामने आई है कि इस हत्यारे पर कोई धरपकड़ इसलिए नहीं हो पाई क्योंकि अपहरण के बाद वह भाजपा के झंडे-डंडे वाली, मोदी की तस्वीर वाली गाड़ी चला रहा था। कम से कम ऐसी हत्याओं के बाद तो पुलिस को अपना तौर-तरीका सुधारना चाहिए, और सरकार को सार्वजनिक जीवन से अराजकता खत्म करनी चाहिए।
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