श्रवण गर्ग (वरिष्ठ पत्रकार )
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर द्वारा भाजपा के दिग्गज लालकृष्ण आडवाणी को उनके 97वें जन्मदिन पर दी गई एक शुभकामना ने भारतीय राजनीति में एक नया भूचाल ला दिया है।
थरूर ने आडवाणी को “अटूट सेवा” और सार्वजनिक जीवन का प्रतीक बताया, लेकिन यह महज़ एक शिष्टाचार भेंट नहीं थी। इसने कांग्रेस और भाजपा के बीच एक तीखी बहस छेड़ने के साथ-साथ आडवाणी की जटिल और विवादास्पद विरासत को एक बार फिर चर्चा के केंद्र में ला दिया है।
इस पूरे प्रकरण पर वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग ने हरकारा डीप डाइव में जो विश्लेषण प्रस्तुत किया, वह इस घटना को एक बड़े राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में रखता है। इसे आपके लिए #politicswala पेश कर रहा है।
यह विवाद महज़ एक ट्वीट का नहीं है, बल्कि यह भारतीय राजनीति के दो महत्वपूर्ण मोड़ों का प्रतिबिंब है। श्रवण गर्ग के अनुसार, भारत की राजनीति में दो बड़ी घटनाएं हुईं जिन्होंने देश की दिशा बदल दी।
पहली, 1977 में जेपी आंदोलन के बाद पहली गैर-कांग्रेसी सरकार का बनना. इस घटना ने यह साबित किया कि नेहरू-गांधी परिवार के बिना भी देश चल सकता है, हालांकि यह प्रयोग असफल रहा और इंदिरा गांधी भारी बहुमत से सत्ता में लौटीं।
दूसरा और शायद सबसे प्रभावशाली मोड़ 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा थी। गर्ग इसे एक ऐसा प्रयोग मानते हैं जिसने यह स्थापित किया कि केंद्र में एक गैर-कांग्रेसी सरकार न सिर्फ़ बन सकती है, बल्कि वह सांप्रदायिक भी हो सकती है।
आडवाणी की रथ यात्रा ने देश में जो ध्रुवीकरण किया, बाबरी मस्जिद विध्वंस तक का जो माहौल बनाया, उसने भारतीय राजनीति का चरित्र हमेशा के लिए बदल दिया. गर्ग कहते हैं, “इस वक्त का जो भारत है, उसके डिज़ाइनर आडवाणी हैं।
थरूर को आडवाणी को इस बात के लिए बधाई देनी चाहिए कि “आपने जो सांप्रदायिकता के बीज बोए, उसकी फ़सलें अब मोदी जी काट रहे हैं।
थरूर का यह बयान उनके ‘मनमौजी’ राजनीतिक चरित्र को भी दर्शाता है। वे अक्सर पार्टी लाइन से हटकर बयान देते हैं, चाहे वह वंशवाद की आलोचना हो या प्रधानमंत्री मोदी की प्रशंसा।
श्रवण गर्ग उन्हें कांग्रेस की “अतृप्त आत्मा” मानते हैं, जो पार्टी के भीतर अपने लिए जगह तलाश रहे हैं। आडवाणी की तारीफ़ करके उन्होंने मोदी समर्थकों को नाराज़ किया, तो वंशवाद की आलोचना कर वे कांग्रेस नेतृत्व के निशाने पर आते हैं।
आडवाणी की विरासत विडंबनाओं से भरी है। वे 2002 में नरेंद्र मोदी के राजनीतिक तारणहार बने, लेकिन बाद में उन्हीं मोदी ने उन्हें राजनीतिक हाशिये पर धकेल दिया।
उन्होंने जिन्ना की मज़ार पर जाकर उन्हें “धर्मनिरपेक्ष” बताकर अपने ही समर्थकों को चौंका दिया. उनकी रथ यात्रा ने भाजपा को सत्ता के शिखर तक पहुँचाया, लेकिन इसकी क़ीमत देश ने गहरे सांप्रदायिक विभाजन के रूप में चुकाई। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने उन्हें “स्वतंत्र भारत का सबसे विभाजनकारी राजनेता” कहा है।
अंततः, थरूर के एक ट्वीट ने कई पुराने घावों को फिर से हरा कर दिया है. यह विवाद महज़ एक जन्मदिन की बधाई का नहीं, बल्कि इस बात का है कि हम अपने इतिहास के नायकों और खलनायकों को कैसे याद करते हैं. यह हमें उस सफ़र की याद दिलाता है, जिसके एक छोर पर आडवाणी की रथ यात्रा थी और दूसरे छोर पर आज का भारत खड़ा है, जिसकी फ़सल लहला रही है और पूरा देश उसकी क़ीमत चुका रहा है।
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