शाह -मोदी की जोड़ी फिर लौटेगी बौद्धिक शाखा में
भारतीय जनता पार्टी की वैचारिक शाखा का नेतृत्व हमेशा से राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ के हाथ रहा है. सारे बौद्धिक और रणनीतिक फैसले संघ ही लेता रहा है. अटल, अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, सुंदरलाल पटवा, कल्याण सिंह राजनाथ जैसे तपे, घुटे नेता भी कभी संघ से अलग फैसले लेना का साहस नहीं कर सके. इसके पीछे उनकी बौद्धिक क्षमता की कमी या कमजोर होना नहीं रहा है.असल में ये नेता जानते थे कि संघ बौद्धिक और जमीनी तौर पर जो मजबूती रखता है वो दूरगामी परिणाम देती है. शायद यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी संघ से संचालित होने में अपना भला समझती है. पिछले कुछ वर्षों में खासकर नरेंद्र मोदी के प्रधान सेवक बनने के बाद संघ की बौद्धिकता से
बीजेपी ने किनारे किया. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और नरेंद्र मोदी की जोड़ी ने बीजेपी को ताकत यानी पावर पॉलिटिक्स का गढ़ बना दिया है. अब इस पार्टी में बौद्धिकता और समाज, हिंदूवादी विचार जैसी बातें किनारे कर दी गई. कर्नाटक में जो बीजेपी की नाक कटी है वो निश्चित ही संघ को मजबूत करेगा. क्योंकि संघ ने बीजेपी को कर्नाटक में अल्पमत की सरकार न बनाने की सलाह दी थी.
दरअसल अमित शाह और नरेंद्र मोदी की जोड़ी ने बीजेपी को एक अलग ही पार्टी बना दिया है. ये वो अटल, कुशाभाऊ ठाकरे, दीनदयाल उपाध्याय वाली पार्टी नहीं रह गई. पहले एक नारा था -विचार सर्वोपरि, ये संघ के कई बौद्धिक में मैंने खुद सुना. अब पार्टी का नया नारा है -विचार नहीं व्यापार सर्वोपरि. संघ ने सत्ता के विस्तार के बजाय हिंदूवादी धारा और राष्ट्र प्रेम के विस्तार पर ध्यान दिया। इसका ही नतीजा है कि बीजेपी लगातार लोगों के बीच स्थायी जगह बनाती गई. तमाम बौद्धिक मंचों पर देश में भले बीजेपी और संघ को कोसा जाता रहा हो, पर वे अपनी धुन में अपने प्रति सम्मान और समर्थन हासिल करते गए. आज शाह और मोदी उस बौद्धिकता से बहुत दूर निकल आये हैं. इस जोड़ी का मानना है कि सत्ता और सम्मान छीनकर लिए जाते हैं. ये वही कर भी रहे हैं. पर ये तरीका सम्मान और समर्थन नहीं सिर्फ कुछ वक्त के लिए सत्ता दिला सकता है. इस जोड़ी ने बीजेपी को अस्सी के दशक की कांग्रेस या उससे भी ज्यादा घमंडी बना दिया. खरीद-फरोख्त, ताकत, डर, सत्ता की शीर्ष संस्थानों का इस्तेमाल जितना इस जोड़ी ने किया उतना तो पूरे 60 साल में कांग्रेस
भी नहीं कर पायी. आखिर संघ के सालों की मेहनत क्या ये जोड़ी बरक़रार रख पाएगी. हार में से जीत का स्थायी रास्ता निकालना संघ की ताकत है,यही कारण है कि एक वोट से सरकार गिरने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी बड़े नेता हुए, उनके प्रति समर्थन बड़ा. क्या एक वोट और मिलकर सरकार बन जाती तो अटल को प्रधानमंत्री के तौर पर इतना बड़ा मौका दुबारा मिलता?शायद नहीं. पर जिस तरह से अटल का नाम लेकर कर्नाटक में येदियुरप्पा ने इस्तीफा दिया क्या वो उन्हें दुबारा सत्ता में लौटा सकेगा? शायद कभी नहीं. यही संघ की बौद्धिकता और शाह की अबौद्धिककता है. सत्ता नहीं समर्थन मजबूत होना चाहिए, इस जोड़ी को अब सीखना होगा.
संघ और मोदी-शाह की जोड़ी में कई मुद्दों पर मतभेद रहे हैं. ये कोई आज का मामला नहीं है. रामनाथ कोविद को राष्ट्रपति बनाने में संघ की राय को दरकिनार किया गया. राहुल गाँधी पर स्तरहीन हमले (क्या कभी अटलजी को आपने इंदिरा गाँधी या राजीव गाँधी पर ऐसे हमले करते सुना) अरविन्द केजरीवाल को काम न करने देना( इससे राहुल और अरविन्द के प्रति लोगों की सहानुभूति बड़ी है ) गोवा, मणिपुर, मिजोरम में जोड़ तोड़ से सरकारें खड़ी करना. इनमे संघ की राय को हमेशा किनारे किया गया. मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री का चेहरा न बताना, राजस्थान में यशोधरा को कमजोर करना ,योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता को काटना (इसका नतीजा ये हुआ कि मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तरप्रदेश में उप चुनाव बीजेपी हार गई) कर्नाटक के मामले ने बीजेपी की नाक काट दी. खासकर अमित शाह और मोदी की जोड़ी की. संघ ने कर्नाटक में सरकार न बनाने को कहा था. पर जोड़ीदार नहीं माने नतीजा सामने है. आखिर कर्नाटक में कांग्रेस या जद (एस ) के विधायक तोड़ने के अलावा विकल्प नहीं ही थे. ऐसे में संघ ने चेताया था कि ये रास्ता ठीक नहीं है. सफल हो भी गए तो जनता में ये विश्वास मजबूत होगा कि बीजेपी खरीद-फरोख्त में माहिर है. अमित शाह की छवि वैसे भी कोई वैचारिक अध्यक्ष की नहीं , तोड़, फोड़ जुगाड़ के अमिट शाह जैसी ही है. कर्नाटक की नाक कटने के बाद उम्मीद है संघ फिर मजबूत होगा.