आरएसएस मोदी पर काबू करना चाहता है…

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सत्य हिंदी के सह संस्थापक, पत्रकार, और लेखक आशुतोष की

नई किताब ‘रीक्लेमिंग भारत’ देश के पहले प्रधानमंत्री

जवाहर लाल नेहरू और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना करते हुए कहती है कि-

“नेहरू को शुरू से ही पता था कि वह कोई सुपरहीरो नहीं हैं, न ही उनके पास कोई जादू की छड़ी है. अवास्तविक वादे नहीं करते थे, इसके विपरीत, मोदी अतिश्योक्ति के साथ रहते हैं, बड़े-बड़े वादे करते हैं और उनके इर्द-गिर्द कथानक बुनते हैं. वहीं, आरएसएस के बारे में कहा गया है कि भागवत और संघ एक उग्र बाघ (मोदी) की सवारी कर रहे हैं और अब वे इस पर काबू करना चाहते हैं. 2013 में मोदी ने खुद को ‘भगवान द्वारा भेजा गया’ बताया था. तब इसमें संकोच और जटिलता का भाव था, लेकिन 2024 आते-आते यह घोषणा स्थिर या निर्लज्ज हो गई. आरएसएस मोदी पर काबू करना चाहता है…

किताब के कुछ चुनिंदा हिस्से :

नेहरू एक आधुनिक व्यक्ति थे-

धर्मनिरपेक्षता उनका मूलमंत्र था और वह दृढ़ता से मानते थे कि भारत तभी जीवित रह सकता है, जब वह बहुलवाद का सम्मान करे और अपनी विविधता को अपनी पहली प्रकृति के रूप में अपनाए. वह जानते थे कि भारत एक हिंदू बहुल राष्ट्र है, लेकिन मुसलमानों, ईसाइयों और अन्य अल्पसंख्यकों की हर क्षेत्र में सक्रिय भागीदारी के बिना उसकी कल्पना नहीं की जा सकती. उन्होंने हिंदू बहुसंख्यकवादी राजनीति के खतरों की पहले ही कल्पना कर ली थी और यह कोई संयोग नहीं है कि उन्होंने पहले चुनाव (1951-52) को हिंदू सांप्रदायिक राजनीति पर जनमत संग्रह में बदल दिया. उस समय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सक्रिय था और विभाजन तथा उसके बाद हुए रक्तपात के कारण देश के कई हिस्सों में उसकी गहरी जड़ें बन चुकी थीं. पहले चुनाव की पूर्व संध्या पर, नेहरू के एक समय सहयोगी रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने, आरएसएस के कहने पर, जनसंघ नामक एक राजनीतिक पार्टी बनाई. लेकिन, सांप्रदायिकता के खतरे से लड़ने के लिए, नेहरू ने दमनकारी उपायों का सहारा नहीं लिया, बल्कि लोकतंत्र के उपकरणों का उपयोग किया. उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधियों को कमजोर करने के लिए राज्य की शक्ति का उपयोग नहीं किया, न ही असहमति की आवाजों को दबाया. उनके लिए संसद केवल ईंट और गारे से बनी इमारत नहीं थी, वह लोकतंत्र का मंदिर थी. इसी शासन भावना के साथ नेहरू ने सत्रह वर्षों तक देश का नेतृत्व किया और लगातार तीन चुनाव दो-तिहाई बहुमत से जीते.

वर्तमान सरकार, भले ही इस बात पर खुश हो कि उसने लगातार तीन संसदीय चुनाव जीतकर नेहरू के रिकॉर्ड की बराबरी कर ली है, लेकिन उसके कवच में दरारें स्पष्ट दिखने लगी हैं. मोदी एक अजीब समस्या का सामना कर रहे हैं. उन्हें खुद से ही लड़ना है. 2014 के मोदी, 2024 के मोदी से कुछ कठिन सवाल पूछ रहे हैं. जब उन्होंने 2014 में प्रधानमंत्री पद के लिए प्रचार किया, तो मोदी ने लोगों की उम्मीदें जगाईं. उन्होंने देश की सभी समस्याओं के लिए खुद को बड़ी चतुराई से “एक-खिड़की” समाधान के रूप में प्रस्तुत किया. खासकर, हिंदी पट्टी में लोगों को यह विश्वास दिलाया कि वह ही वो “मसीहा” हैं, जिसका देश लंबे समय से इंतजार कर रहा था. एक बार जब वह प्रधानमंत्री बने, तो मुख्यधारा की मीडिया ने इस छवि को कई गुना बढ़ा दिया. यह ठीक वैसा ही था, जैसा स्वतंत्रता के समय, जब लोगों की आकांक्षाएं आसमान छू रही थीं. आम आदमी को विश्वास था कि अब जब देश ने विदेशियों से आज़ादी पा ली है और अब कोई अपना ही शासक है, तो रोजमर्रा की ज़िंदगी की मामूली समस्याएं अपने आप गायब हो जाएंगी. लेकिन, नेहरू को शुरू से ही पता था कि वह कोई सुपरहीरो नहीं हैं, न ही उनके पास कोई जादू की छड़ी है. वह जानते थे कि धैर्य और दृढ़ता ही लोगों का विश्वास जीतने का कवच है, और शिक्षा व प्रशिक्षण ही आगे बढ़ने का रास्ता है. इसके विपरीत, 2013 में जब से उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया, उन्होंने खुद को भगवान द्वारा भेजा गया बताया. यदि 2013-14 में यह संकेत सूक्ष्म और जटिल था, तो 2024 में यह उनके भीतर दिव्यता की घोषणा में पूरी तरह से अडिग और निर्लज्ज है.

भागवत और आरएसएस एक उग्र बाघ की सवारी कर रहे हैं

उपसंहार में, आशुतोष ने आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बारे में भी कलम चलाई है. लिखा है– भागवत के बयानों से यह स्पष्ट होता है कि 2024 के फैसले से बहुत पहले ही उन्होंने हिंदुत्व की सीमाओं को समझ लिया था, और वह चाहते थे कि अगर आरएसएस को अखिल भारतीय स्तर पर प्रभावी बनना है, तो उसे अपनी वैचारिक दिशा बदलनी होगी. चुनावों के बाद भी उन्होंने मोदी समर्थकों के गुस्से को न्यौता देते हुए चुनाव प्रचार की मोदी की शैली पर सीधा हमला किया. बिना मोदी का नाम लिए, उन्होंने उन्हें अहंकारी कहा, एक ऐसा व्यक्ति जो खुद को ‘भगवान’ समझता है.

भागवत के सामने दो समस्याएं हैं. एक- वह और आरएसएस एक “उग्र बाघ” की सवारी कर रहे हैं, और अब वे उस बाघ को काबू में करना चाहते हैं, उसे अपनी दहाड़ कम करने की सलाह देना चाहते हैं. लेकिन अपने सौ साल के इतिहास में, आरएसएस ने कई पीढ़ियों के हिंदुओं को मुस्लिम विरोध के साथ पैदा और उनका पालन-पोषण किया है. अब उनसे मुसलमानों को अपनाने के लिए कहना, अपने अनुयायियों से अपनी ही पहचान, अपने अस्तित्व को नकारने जैसा है. यह खतरनाक है. इससे बाघ क्रोधित हो सकता है, और अपनी नाराजगी भागवत और आरएसएस की ओर मोड़ सकता है. हाल ही में, आरएसएस प्रमुख, जिन्हें परम पूजनीय माना जाता है, जिनकी राय अंतिम मानी जाती है, उन्हें हिंदुत्ववादियों द्वारा सोशल मीडिया पर कड़ी आलोचना और गालियां दी जा रही हैं. दू

सरी बात- यह मानने का क्या कारण है कि भागवत कोई छल-कपट का खेल नहीं खेल रहे? उनके बयान एक दिखावा भी हो सकते हैं, जबकि वह एक साथ अच्छा और बुरा पुलिस वाला बनने की रणनीति अपना रहे हों. जैसा पहले भी कहा गया है, सरदार पटेल जैसे नेताओं ने भी कहा है कि आरएसएस छल करता है; वे कुछ कहते हैं और कुछ और करते हैं.

मैं भागवत को संदेह का लाभ देने को तैयार हूं. मैं मानने को तैयार हूं कि वह सचमुच उस रास्ते को बदलना चाहते हैं, जिस पर हिंदुत्व पिछले सौ वर्षों में चला है. मेरे आरएसएस के मित्रों ने मुझे बताया है कि भागवत आज एक चिंतित व्यक्ति हैं. वह चिंतित हैं, क्योंकि उन्होंने महसूस किया है कि अगर हिंदुत्व की यात्रा को नियंत्रित नहीं किया गया या उसकी दिशा नहीं बदली गई, तो कट्टर इस्लाम की तरह, हिंदुत्व भी बदनाम हो जाएगा, गाली बन जाएगा, न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर भी. वैश्विक मीडिया, विशेषकर पश्चिमी दुनिया में, हिंदुत्व के मुद्दे पर मोदी शासन की कड़ी और लगभग सार्वभौमिक आलोचना ने भगवत को झकझोर दिया है. कई वरिष्ठ आरएसएस नेता उनकी राय से सहमत हैं, और भाजपा में भी कुछ लोग ऐसा सोचते हैं. उनके अनुसार, अगर हिंदुत्व अपनी भाषा में नरमी नहीं लाता, तो हिंदू एकता परियोजना का पूरा उद्देश्य गंभीर संकट में पड़ जाएगा, और आरएसएस ऐसा होने नहीं दे सकता. उनकी समझ में, मोदी और भाजपा सरकार बनाने की महत्वाकांक्षा से प्रेरित हो सकते हैं; आरएसएस पर ऐसी कोई बाध्यता नहीं है. उनके लिए राजनीति द्वितीयक है; मुख्य उद्देश्य हिंदुओं की प्राचीन महिमा को पुनः प्राप्त करना है, जो तब तक संभव नहीं है, जब तक हिंदुत्व और हिंदू शब्द ही हिंसा, असहिष्णुता और घृणा का पर्याय न बन जाए. यह आरएसएस के लिए सभ्यतागत आत्महत्या होगी.आरएसएस मोदी पर काबू करना चाहता है…

2024 के चुनाव परिणाम एक चेतावनी संकेत हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व ने भी यह संकेत प्राप्त कर लिया है. इसीलिए, जाति जनगणना के मुद्दे पर, हिंदू एकता के लिए, आरएसएस ने मान लिया है कि यह—राजनीति के लिए नहीं, बल्कि कल्याण के लिए—हो सकती है. लेकिन ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ और ‘एक हैं तो सेफ हैं’ जैसी भाषा, जो संसद चुनाव के बाद महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनावों में इस्तेमाल हुई, यह भी दर्शाती है कि आरएसएस के भीतर भी संघर्ष चल रहा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने संघर्ष समाधान तंत्र के लिए जाना जाता है, यही कारण है कि उसके इतिहास में कभी उसका विभाजन नहीं हुआ. लेकिन फिर, उसने कभी इतनी बड़ी “पावर” का स्वाद नहीं चखा, और “पावर” की अपनी ही गतिशीलता होती है. पावर किसी भी साम्राज्य को बना या बिगाड़ सकती है और आरएसएस भी इसका अपवाद नहीं है.

अंत में, यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन की भूमिका बहुत बड़ी है. इसने काफी हद तक बाघ को काबू करने में सफलता पाई है; 2024 चुनाव में उसने काफी जमीन वापस हासिल की है. उसने हिंदुत्व की ताकतों को कमजोर किया है. यूपी और महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव में भाजपा को निर्णायक रूप से हराने के बाद, इसने यह उम्मीद फिर से जगा दी है कि हिंदुत्व अजेय नहीं है, और हिंदू राष्ट्र की यात्रा को रोका जा सकता है; गांधी, नेहरू, पटेल, बोस, आज़ाद और अंबेडकर का भारत फिर से हासिल किया जा सकता है, बशर्ते वह अपने तमाम अंतर्विरोधों और महत्वाकांक्षाओं के टकराव के बावजूद एकजुट रहे.

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