मांझी सच ही बोले- धार्मिक जुलूस बंद कर दो !

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बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने कहा कि -देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बनने वाले धार्मिक जुलूसों पर रोक लगा देनी चाहिए।मांझी जैसे नेता का ये कहना एक दुस्साहस ही है क्योंकि आज की राजनीति में किसी भी नेता में धार्मिक सच कहने की हिम्मत ही नहीं बची है।

सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )

किसी नई सोच के लिए कई बार नए किस्म के लोगों की जरूरत पड़ती है। अब देश की नई राजनीतिक पार्टियों के बड़े नेताओं को धर्म के बारे में कुछ कहते हुए संसद और विधानसभाओं में अपनी सीटों का खतरा अधिक दिखता होगा, इसलिए किसी छोटी पार्टी के नेता की ऐसी बात कह सकते थे कि देश में धार्मिक जुलूसों पर रोक लगाई जाए।

बिहार के एक पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने यह ट्वीट किया है कि अब वक्त आ गया है जब देश में हर तरह के धार्मिक जुलूस पर रोक लगा दी जाए, धार्मिक जुलूसों के कारण देश की एकता और अखंडता खतरे में पड़ती दिखाई दे रही है, इन्हें तुरंत रोकना होगा।

जीतन राम मांझी दलित समुदाय के हैं, और शायद अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि भी उन्हें धर्म के खतरे को समझने में मदद कर रही है। दलित समुदाय धर्म की मार को हमेशा ही झेलते आया है, और जीतन राम मांझी उत्तर भारत के बिहार की राजनीति में हैं, तो यह जाहिर है कि उन्होंने दलितों के साथ धर्म के सुलूक को अच्छी तरह देखा होगा।

आज हिन्दुस्तान में जिन लोगों को रोजी-रोटी और परिवार की फिक्र है, उनमें से बहुत से लोगों की मन की बात मांझी ने की है। इंसान और समाज दोनों की जिंदगी में धर्म की एक सीमित भूमिका ही रहनी चाहिए।

धर्म या तो लोगों के मन और घरों में रहे, या फिर एक सीमित दायरे में रहे। जब धर्म हमलावर तेवरों के साथ हर बरस कई-कई बार एक-एक धर्म के हथियारबंद जुलूसों की शक्ल में सडक़ों पर आतंक फैलाता है, और टकराव का सामान बनता है, तो वह एक राष्ट्रीय खतरा भी बन जाता है।
हिन्दुस्तान में आज कुछ राजनीतिक दलों और नेताओं की मेहरबानी से धर्म से बड़ा कोई आंतरिक खतरा नहीं रह गया है। और जिस अंदाज में इस देश में एक अल्पसंख्यक तबके को घेरकर मारा जा रहा है, तो उससे यह सिर्फ देश का आंतरिक खतरा नहीं रह गया है, बल्कि यह एक अंतरराष्ट्रीय खतरा भी बन गया है क्योंकि हिन्दुस्तानी लोग दुनिया के जितने किस्म के देशों में बसे हुए हैं, और रोजी-रोटी कमा रहे हैं, उन पर भी खतरा है।

भारत के दूसरे कई देशों के साथ संबंधों में भी भारत के भीतर की धार्मिक असहिष्णुता का तनाव पड़ रहा है, और सडक़ों पर झंडा-डंडा लेकर नंगा नाच करने वाले लोगों को यह अंदाज भी नहीं होता कि उनकी हरकतों का देश बाहर क्या दाम चुकाता है। दरअसल जब देश में चुनावों को धार्मिक जनमत संग्रह में बदलने की कोशिश लगातार चल रही हो, तब देश को दुनिया में क्या नुकसान हो रहा है इसकी बहुत अधिक फिक्र भी नहीं की जाती है।

आज जिन लोगों को अमन-चैन से जीना पसंद है, उनके लिए यह बहुत तकलीफ का मौका है कि आए दिन सडक़ों पर साम्प्रदायिक और धर्मान्ध टकराव खड़ा किया जा रहा है। बहुत से समझदार लोग सोशल मीडिया पर बरसों से यह सवाल उठाते हैं कि सडक़ों पर साम्प्रदायिकता की आग मेें नौजवानों की जिस भीड़ को झोंका जा रहा है, क्या उनमें से कोई भी नौजवान किसी बड़े नेता की औलाद है?
बड़े नेता तो अपने बच्चों को बड़े-बड़े कारोबार में लगाते हैं, वे बड़े-बड़े पेशेवर काम करते हैं, दुनिया भर में जाकर प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से विदेशी डिग्रियां लेकर अंतरराष्ट्रीय काम करते हैं। दंगे भडक़ाने वाले नेताओं में से किसी की भी औलाद झंडा-डंडा लेकर चलने वाली नहीं रहती।
आज जिन लोगों को इस आग में झोंका जा रहा है, उन्हें अगर धर्म और जाति के नाम पर, साम्प्रदायिकता के नाम पर उलझाकर नहीं रखा जाएगा, तो उन्हें इस बात का अहसास हो जाएगा कि वे बेरोजगार हैं, उनके आगे पढऩे की गुंजाइश नहीं है, आगे बढऩे की गुंजाइश नहीं है।

उन्हें हकीकत का यह अहसास न हो जाए इसलिए उन्हें किसी न किसी बवाल का हिस्सा बनाकर रखा जाता है, और फिर उनके मन में भक्तिभाव और राष्ट्रवाद को भरकर उन्हें हिंसक प्रदर्शनकारी बनाने से अधिक असरदार उलझाव और क्या हो सकता है?
धर्म और देश के नाम पर वे दो सौ रूपए लीटर पेट्रोल खरीदने पर आमादा हैं, और इस देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता हो गई है।

ऐसे जहरीले माहौल में बहुसंख्यक तबके की साम्प्रदायिकता के मुकाबले अल्पसंख्यक तबके की साम्प्रदायिकता खड़ी होना तय है, और फिर मानो एक तबके में दूसरे तबके के दलाल भी बैठे हुए हैं जो कि पत्थर चलवाना शुरू करते हैं।
ऐसे में समझदारी की बात तो यही होगी कि हिन्दुस्तान के तमाम धर्मस्थलों पर से लाउडस्पीकर हटा दिए जाएं, तमाम धार्मिक जुलूसों पर सौ फीसदी रोक लगा दी जाए।

लेकिन किसी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के नेता इस तरह की बात कहकर लोगों को नाराज करना नहीं चाहेंगे। जीतन राम मांझी उतने बड़े नेता नहीं हैं, और उनका राजनीतिक भविष्य इतने बड़े दांव पर नहीं लगा हुआ है कि वे खरी बात कहने से हिचकें।

नतीजा यह मांझी सच ही बोले- धार्मिक जुलूस बंद कर दो !

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने कहा कि -देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बनने वाले धार्मिक जुलूसों पर रोक लगा देनी चाहिए।
मांझी जैसे नेता का ये कहना एक दुस्साहस ही है क्योंकि आज की राजनीति में किसी भी नेता में धार्मिक सच कहने की हिम्मत ही नहीं बची है।

सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )
किसी नई सोच के लिए कई बार नए किस्म के लोगों की जरूरत पड़ती है। अब देश की नई राजनीतिक पार्टियों के बड़े नेताओं को धर्म के बारे में कुछ कहते हुए संसद और विधानसभाओं में अपनी सीटों का खतरा अधिक दिखता होगा, इसलिए किसी छोटी पार्टी के नेता की ऐसी बात कह सकते थे कि देश में धार्मिक जुलूसों पर रोक लगाई जाए।

बिहार के एक पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने यह ट्वीट किया है कि अब वक्त आ गया है जब देश में हर तरह के धार्मिक जुलूस पर रोक लगा दी जाए, धार्मिक जुलूसों के कारण देश की एकता और अखंडता खतरे में पड़ती दिखाई दे रही है, इन्हें तुरंत रोकना होगा।

जीतन राम मांझी दलित समुदाय के हैं, और शायद अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि भी उन्हें धर्म के खतरे को समझने में मदद कर रही है। दलित समुदाय धर्म की मार को हमेशा ही झेलते आया है, और जीतन राम मांझी उत्तर भारत के बिहार की राजनीति में हैं, तो यह जाहिर है कि उन्होंने दलितों के साथ धर्म के सुलूक को अच्छी तरह देखा होगा।

आज हिन्दुस्तान में जिन लोगों को रोजी-रोटी और परिवार की फिक्र है, उनमें से बहुत से लोगों की मन की बात मांझी ने की है। इंसान और समाज दोनों की जिंदगी में धर्म की एक सीमित भूमिका ही रहनी चाहिए।

धर्म या तो लोगों के मन और घरों में रहे, या फिर एक सीमित दायरे में रहे। जब धर्म हमलावर तेवरों के साथ हर बरस कई-कई बार एक-एक धर्म के हथियारबंद जुलूसों की शक्ल में सडक़ों पर आतंक फैलाता है, और टकराव का सामान बनता है, तो वह एक राष्ट्रीय खतरा भी बन जाता है।
हिन्दुस्तान में आज कुछ राजनीतिक दलों और नेताओं की मेहरबानी से धर्म से बड़ा कोई आंतरिक खतरा नहीं रह गया है। और जिस अंदाज में इस देश में एक अल्पसंख्यक तबके को घेरकर मारा जा रहा है, तो उससे यह सिर्फ देश का आंतरिक खतरा नहीं रह गया है, बल्कि यह एक अंतरराष्ट्रीय खतरा भी बन गया है क्योंकि हिन्दुस्तानी लोग दुनिया के जितने किस्म के देशों में बसे हुए हैं, और रोजी-रोटी कमा रहे हैं, उन पर भी खतरा है।

भारत के दूसरे कई देशों के साथ संबंधों में भी भारत के भीतर की धार्मिक असहिष्णुता का तनाव पड़ रहा है, और सडक़ों पर झंडा-डंडा लेकर नंगा नाच करने वाले लोगों को यह अंदाज भी नहीं होता कि उनकी हरकतों का देश बाहर क्या दाम चुकाता है। दरअसल जब देश में चुनावों को धार्मिक जनमत संग्रह में बदलने की कोशिश लगातार चल रही हो, तब देश को दुनिया में क्या नुकसान हो रहा है इसकी बहुत अधिक फिक्र भी नहीं की जाती है।

आज जिन लोगों को अमन-चैन से जीना पसंद है, उनके लिए यह बहुत तकलीफ का मौका है कि आए दिन सडक़ों पर साम्प्रदायिक और धर्मान्ध टकराव खड़ा किया जा रहा है। बहुत से समझदार लोग सोशल मीडिया पर बरसों से यह सवाल उठाते हैं कि सडक़ों पर साम्प्रदायिकता की आग मेें नौजवानों की जिस भीड़ को झोंका जा रहा है, क्या उनमें से कोई भी नौजवान किसी बड़े नेता की औलाद है?
बड़े नेता तो अपने बच्चों को बड़े-बड़े कारोबार में लगाते हैं, वे बड़े-बड़े पेशेवर काम करते हैं, दुनिया भर में जाकर प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से विदेशी डिग्रियां लेकर अंतरराष्ट्रीय काम करते हैं। दंगे भडक़ाने वाले नेताओं में से किसी की भी औलाद झंडा-डंडा लेकर चलने वाली नहीं रहती।
आज जिन लोगों को इस आग में झोंका जा रहा है, उन्हें अगर धर्म और जाति के नाम पर, साम्प्रदायिकता के नाम पर उलझाकर नहीं रखा जाएगा, तो उन्हें इस बात का अहसास हो जाएगा कि वे बेरोजगार हैं, उनके आगे पढऩे की गुंजाइश नहीं है, आगे बढऩे की गुंजाइश नहीं है।

उन्हें हकीकत का यह अहसास न हो जाए इसलिए उन्हें किसी न किसी बवाल का हिस्सा बनाकर रखा जाता है, और फिर उनके मन में भक्तिभाव और राष्ट्रवाद को भरकर उन्हें हिंसक प्रदर्शनकारी बनाने से अधिक असरदार उलझाव और क्या हो सकता है?
धर्म और देश के नाम पर वे दो सौ रूपए लीटर पेट्रोल खरीदने पर आमादा हैं, और इस देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता हो गई है।

ऐसे जहरीले माहौल में बहुसंख्यक तबके की साम्प्रदायिकता के मुकाबले अल्पसंख्यक तबके की साम्प्रदायिकता खड़ी होना तय है, और फिर मानो एक तबके में दूसरे तबके के दलाल भी बैठे हुए हैं जो कि पत्थर चलवाना शुरू करते हैं।
ऐसे में समझदारी की बात तो यही होगी कि हिन्दुस्तान के तमाम धर्मस्थलों पर से लाउडस्पीकर हटा दिए जाएं, तमाम धार्मिक जुलूसों पर सौ फीसदी रोक लगा दी जाए।

लेकिन किसी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के नेता इस तरह की बात कहकर लोगों को नाराज करना नहीं चाहेंगे। जीतन राम मांझी उतने बड़े नेता नहीं हैं, और उनका राजनीतिक भविष्य इतने बड़े दांव पर नहीं लगा हुआ है कि वे खरी बात कहने से हिचकें।

नतीजा यह है कि उन्होंने एक ऐसी बात कही है जिससे देश की साम्प्रदायिक ताकतों के हाथ से एक बड़ा हथियार निकल जाएगा। यह बात हिन्दुस्तान की राजनीतिक व्यवस्था के तहत मुमकिन है या नहीं, आज के कानून के तहत मुमकिन है या नहीं, इसमें गए बिना हम एक सोच के रूप में इस बात की तारीफ करते हैं, और अगर इस देश को बचाना है तो साम्प्रदायिकता के ऐसे प्रदर्शन रोकने होंगे, जिन्हें देख-देखकर अलग-अलग धर्मों के ईश्वर भी थके हुए होंगे।
आज दिक्कत यह भी है कि हिन्दुस्तान की न्यायपालिका देश के दर्जनों प्रदेशों में सरकारों की साम्प्रदायिकता पर भी कुछ नहीं कर पा रही हैं, और केन्द्र सरकार के जाहिर तौर पर साम्प्रदायिक दिखते फैसलों पर भी कुछ नहीं कर पा रही हैं।

यह लोकतंत्र एक बड़ा ढकोसला साबित हो रहा है जिसमें संसद गिरोहबंदी के बाहुबल से काम कर रही है, अदालतें अपनी अवमानना की फिक्र से अधिक और कुछ करना नहीं चाहतीं, और देश की बहुसंख्यक आबादी साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता, और हमलावर राष्ट्रवाद के सामूहिक सम्मोहन की शिकार हो चुकी है। कोई अगर यह सोचें कि देश के ताने-बाने को हुआ इतना नुकसान अगले दस-बीस बरस में सुधर सकता है, तो ऐसे लोग हकीकत के अहसास बिना जीने वाले लोग ही हो सकते हैं।
है कि उन्होंने एक ऐसी बात कही है जिससे देश की साम्प्रदायिक ताकतों के हाथ से एक बड़ा हथियार निकल जाएगा। यह बात हिन्दुस्तान की राजनीतिक व्यवस्था के तहत मुमकिन है या नहीं, आज के कानून के तहत मुमकिन है या नहीं, इसमें गए बिना हम एक सोच के रूप में इस बात की तारीफ करते हैं, और अगर इस देश को बचाना है तो साम्प्रदायिकता के ऐसे प्रदर्शन रोकने होंगे, जिन्हें देख-देखकर अलग-अलग धर्मों के ईश्वर भी थके हुए होंगे।
आज दिक्कत यह भी है कि हिन्दुस्तान की न्यायपालिका देश के दर्जनों प्रदेशों में सरकारों की साम्प्रदायिकता पर भी कुछ नहीं कर पा रही हैं, और केन्द्र सरकार के जाहिर तौर पर साम्प्रदायिक दिखते फैसलों पर भी कुछ नहीं कर पा रही हैं।

यह लोकतंत्र एक बड़ा ढकोसला साबित हो रहा है जिसमें संसद गिरोहबंदी के बाहुबल से काम कर रही है, अदालतें अपनी अवमानना की फिक्र से अधिक और कुछ करना नहीं चाहतीं, और देश की बहुसंख्यक आबादी साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता, और हमलावर राष्ट्रवाद के सामूहिक सम्मोहन की शिकार हो चुकी है। कोई अगर यह सोचें कि देश के ताने-बाने को हुआ इतना नुकसान अगले दस-बीस बरस में सुधर सकता है, तो ऐसे लोग हकीकत के अहसास बिना जीने वाले लोग ही हो सकते हैं।

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