शुभ्रांशु चौधरी (जमीनी पत्रकार )
छत्तीसगढ़ में माओवादी आंदोलन के समापन के बाद अब तीन प्रमुख काम बचे हैं. पहला, कैसे अब बचे हुए हज़ार या उससे कम मूलतः आदिवासी भटके हुए पैदल माओवादी सैनिकों का सामूहिक आत्मसमर्पण कराया जाए. दूसरा, आधी सदी से अधिक समय तक चले इस गृहयुद्ध के पीड़ितों को कैसे न्याय दिलाया जाए और तीसरा, बस्तर के वो इलाक़े जो कई दशक बाद “आज़ाद” होने की कगार पर हैं, उनके विकास के रोडमैप पर गम्भीर चिंतन हो.
माओवादी आंदोलन का समापन मैं इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि सरकार ने उनके मुखिया नंबला केशव राव को पिछले हफ़्ते मार गिराया है. उनके नंबर दो वेणुगोपाल दो हफ़्ते पहले ही बस्तर छोड़कर भाग चुके हैं. माओवादियों के मुख्यालय अबूझमाड़ से लगभग दो हफ़्ते पहले ग्रामीणों ने मुझे फ़ोन कर कहा था, “सोनू दादा (वेणुगोपाल बस्तर के गाँवों में इसी नाम से जाने जाते हैं) भाग रहे हैं”. वेणुगोपाल ही अभय के नाम से पिछले कुछ माह से शांति वार्ता का प्रस्ताव देकर कई पत्र लिख चुके हैं. यह खबर अपुष्ट है पर इकोनोमिक टाइम्स ने भी इस पर खबर की है.
मैं इसलिए भी यह कह रहा हूँ कि छत्तीसगढ़ में माओवादी आंदोलन समाप्त हो गया है, क्योंकि छत्तीसगढ़ में यह कभी माओवादी आंदोलन था ही नहीं; जैसा यह बंगाल, बिहार और आँध्र (अब तेलंगाना भी) में था. कहते हैं साहित्य राजनीति की मशाल होती है. यानी जिस जगह का जैसा साहित्य होता है, वहाँ की राजनीति भी थोड़े समय बाद उस राह पर चलती है. बंगाल, आंध्र, नेपाल, बिहार जैसी जगहों में जनवादी साहित्य की लम्बी परम्परा रही है, जिसकी परिणति जनवादी राजनीति में देखने को मिलती है. बस्तर में ऐसा कुछ नहीं हुआ.
माओवादी बस्तर में छुपने के लिए आए थे. माओ के सिद्धांत के अनुसार किसी भी युद्ध में जब आप हार रहे हों तो अपनी सेना के बड़े हिस्से को छुपने वाली जगह में शिफ़्ट कर दीजिए और तब तक का इंतज़ार कीजिए, जब तक युद्ध की परिस्थिति बदल ना जाए. आधुनिक माओवादी आंदोलन बंगाल में 1967 में शुरू हुआ और 10 साल से कम समय में ख़त्म हो गया. माओवादियों ने 1977 में जब समीक्षा बैठक की तो उन्होंने आंदोलन को फिर से शुरू करने के पहले एक छिपने की जगह तैयार करने का सोचा. इसके लिए उन्होंने दंडकारण्य को चुना, बस्तर जिसका हिस्सा है.
बहुत कम लोगों को पता है कि बस्तर में माओवादी आंदोलन शुरू करने का श्रेय भाजपा को जाता है. 1990 में जब भाजपा के पहले मुख्यमंत्री सुन्दरलाल पटवा भोपाल में सत्ता में बैठे ( छत्तीसगढ़ उस समय अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा था) तो उन्होंने छत्तीसगढ़ से दो नेताओं को एक गुप्त बैठक के लिए बुलाया. एक थे सीपीआई के सुधीर मुखर्जी और दूसरे कांग्रेस के अरविंद नेताम. भाजपा को यह समझ थी कि बस्तर में उनका कोई ख़ास जनाधार नहीं है और वहाँ कुछ बड़ा करना होगा तो इन दोनों पार्टियों की मदद से ही करना होगा.
इन दोनों के नेतृत्व में थोड़े दिनों में जन जागरण अभियान, एक सरकारी पुलिसिया कार्यक्रम शुरू किया गया, जिसमें पुलिस ने सीपीआई के लोगों के इशारे पर उन आदिवासियों को परेशान करना शुरू किया, जिसने किसी भी तरह पिछले दस सालों में माओवादियों की मदद की थी. 1980 में 49 माओवादी (7 लोगों के 7 दल) दंडकारण्य में आए थे, इस स्पष्ट आदेश के साथ कि दंडकारण्य में क्रांति नहीं होगी, क्योंकि वहाँ के आदिवासियों में राजनैतिक चेतना नहीं है और हमें उस इलाक़े को एक सुरक्षित छुपने की जगह की तरह विकसित करना है.
पर इन 10 सालों में माओवादियों ने शांतिपूर्ण तरीक़े से जंगल विभाग, व्यापारी और सरकारी अधिकारियों से लड़ाई लड़कर बस्तर के आदिवासियों की ख़ासी मदद की थी. इसलिए जब पुलिस ने जन जागरण अभियान के नाम पर आदिवासियों को परेशान करना शुरू किया, तो आदिवासी सामाजिक नेताओं ने समाज को संदेश दिया कि यदि आप अपने घरों में नहीं रह पा रहे तो यदि आप चाहें तो अपनी सुरक्षा के लिए माओवादियों के साथ जुड़ जाइए. ये अच्छे लोग हैं. इन्होंने पिछले 10 सालों में हमारी बहुत मदद की है, इससे हमारे समाज का भी भला हो सकता है. इस तरह भाजपा का माओवाद समाप्ति का पहला प्रयोग असफल रहा था और बस्तर में माओवाद का जन्म हुआ था.
लगभग ठीक उसी समय पूर्व माओवादी सुप्रीमो गणपति के नेतृत्व में कुछ माओवादी नेताओं, जिनको आंध्र में स्थिति ख़राब होने के कारण वहाँ से बस्तर शिफ़्ट किया गया था, ने अपने पुराने नेता कोंडापल्ली सीतारमैया के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया था, जिन्होंने यह कहा था कि बस्तर में क्रांति नहीं होगी. गणपति और नंबला केशव राव जैसे लोगों ने कहा हम आंध्र के हालात सुधरने का कब तक इंतज़ार करेंगे और क्रांति यहीं से होगी और उन्होंने क्रांति की वजह ढूँढ़ना शुरू किया.
भाजपा का माओवाद ख़त्म करने का दूसरा प्रयोग, जिसे इसके कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा ( जो जन जागरण के समय सीपीआई में थे) ने सलवा जुडुम नाम दिया था और भी बुरी तरह असफल हुआ और उसने माओवादी पार्टी को बहुत ताकतवर बना दिया. पर अपने तीसरे प्रयास में इस बार भाजपा बस्तर से माओवाद का समूल नाश करने में पूरी तरह सफल हुई है और उसका श्रेय उन्हें दिया जाना चाहिए. इस प्रयास में बस्तर की आदिवासी जनता ने उनका पूरा साथ दिया है.
कहा जाता है जनयुद्ध वही जीतता है, जनता जिसके साथ होती है. सलवा जुडुम के लगभग 10 साल बाद उन्हीं आदिवासी नेताओं ने अपने समाज को ये कहा कि माओवादी अच्छे लोग हैं, पुलिस से तो बेहतर हैं, वे हमारे साथ रहते हैं, हमारी भाषा बोलते हैं, पर हमारे समाज का इस आंदोलन से लम्बे समय में फ़ायदा नहीं होगा. माओवादी इस संदेश को समझने में चूक कर बैठे.
बस्तर में चली नई शांति प्रक्रिया ने बार-बार बस्तर की जनता के इस आग्रह को माओवादियों के जंगल और शहर में रहने वाले नेताओं के सामने रखा. पर आज वही लोग जो बढ़-चढ़ कर शांति वार्ता के लिए आंदोलन कर रहे हैं, उनमें से अधिकतर ने इस शांति प्रयास का मखौल उड़ाया और उसे समाप्त करने की पूरी कोशिश की. पिछले काफ़ी समय से बस्तर में दोनों ओर से सिर्फ़ आदिवासियों की ही हत्या हो रही थी, चाहे वे पुलिस के लोग हों, माओवादी हों या बीच के लोग, जिन्हें मुखबिर और माओवादी बोलकर दोनों पक्षों द्वारा मारा गया.
लगभग चार दशक से भी अधिक समय बाद बस्तर शांति के रास्ते आगे बढ़ रहा है. आगे का रास्ता कैसा हो, इसकी राह इंदिरा गांधी ने दिखाई थी. 1980 में इंदिरा गांधी जब फिर से प्रधानमंत्री बनीं तो मध्यप्रदेश के तत्कालीन योजना आयोग के प्रमुख की सलाह पर उन्होंने बस्तर डेवलपमेंट प्लान बनाने का आदेश दिया था. यह अलग कहानी है कि श्रीमती गांधी की हत्या के बाद स्वयं कांग्रेसी सरकारों ने इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया.
बस्तर डेवलपमेंट प्लान यह कहता है कि बस्तर में प्रमुखत: सिर्फ़ दो चीजों पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है. पहला, यह सुनिश्चित किया जाए कि बस्तर के वनवासियों को वनोपज का उचित दाम मिले. दूसरा, यह कोशिश की जाए कि बस्तर का किसान दूसरी फसल उगा सके. बस्तर डेवलपमेंट प्लान लिखने वालों को यह समझ थी कि बस्तर आंध्र, बंगाल और बिहार से अलग है. यहाँ ज़मीन समस्या नहीं है और अगर बस्तर का आदिवासी खुश और व्यस्त है तो वह किसी बाहरी बहकावे में नहीं आएगा.
भाजपा ने पिछले दोनों प्रयासों में कांग्रेस की मदद ली थी, उनको नेतृत्व दिया था . यह उनका बड़प्पन है. क्या तीसरी बार भी वे बस्तर से माओवाद के समूल विनाश के लिए राष्ट्रहित में इंदिरा गांधी की सलाह मानेंगे? हमें डर है कि माओवाद के समापन के बाद एमओयूवाद का उदय होगा, जहां सरकार स्थानीय संवैधानिक विरोधों की उपेक्षा कर माइनिंग आदि के लिए एमओयू करेगी और पिछले पांच दशकों की इस समस्या के पीड़ितों के न्याय के लिए कुछ नहीं करेगी, जिससे कुछ दिन बाद माओवादी उन्हें फिर से बरगला सकें.
(शुभ्रांशु चौधरी पत्रकार और सीजीनेट स्वरा के संस्थापक हैं)
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