हिंदुस्तान की ‘ब्राहणवादी’ गृह और विदेश नीति

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राकेश कायस्थ (वरिष्ठ पत्रकार )

मैं ब्राहणवाद के लिए कोई और शब्द चाहता हूं। उद्गम चाहे जहां से भी हो लेकिन यह सच यह है कि मौजूदा समय यह बीमारी किसी एक जाति या समाज की नहीं है। आपको बहुत सारे ऐसे ब्राहण मिल जाएंगे जो इस घृणित व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहे हैं और दूसरी जातियों में भी बहुत से ऐसे लोग मिलेंगे जो इसे जिलाये रखने के लिए पूरी ताकत लगा रहे हैं।
मोटे तौर पर समझें तो ब्राहणवाद न्याय रहित वह सामाजिक व्यवहार है, जिसमें सामाजिक पायदान पर उपर खड़ा व्यक्ति अपने से नीचे वाले का शोषण करता है। इस तरह पूरा सर्किल बनता है। सबसे ज्यादा शोषित व्यक्ति विद्रोह ना कर दे, यह सुनिश्चित करने का पुख्ता प्रबंध है, जिसमें पुचकारने से लेकर डराने तक के सारे हथकंडे शामिल हैं। ब्राहणवाद की खासियत है कि यह कभी ताकतवर का विरोध नहीं करता। लेकिन कमजोर को हमेशा रौंदता है।

मौजूदा समय हमारी तमाम नीतियों का आधार ब्राहणवाद है। बहुत ज्यादा उदाहरण गिनाउंगा तो बात लंबी हो जाएगी। सिर्फ दो मिसाल लेते हैं। पहला उदाहरण दो अलग-अलग कानूनों को लेकर सरकार के रूख का है। कृषि कानून आये तो पूरे उत्तर भारत में जबरदस्त विरोध शुरु हो गया।

पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आये किसानों ने दिल्ली में डेरा डाल लिया। सैकड़ों किसानों ने अपनी जान कुर्बान की। सरकार ने शुरु में सख्ती की। लेकिन उसे समझ में आ गया कि उसकी लड़ाई सिर्फ किसानों से नहीं है बल्कि भारत के दो ताकतवर जातीय समूहों यानी जाट और सिखों से हैं। ये कौमे आसानी से हथियार नहीं डालती है।
सरकार को अंदाजा हो गया कि मामला लंबा खिंचेगा तो अच्छा-खासा राजनीतिक नुकसान होगा। यह देखते हुए प्रधानमंत्री ने बयान दिया “ हमारी तपस्या में कोई कमी रह गई। हम इसकी अच्छाइयां किसान भाइयों को नहीं समझा पाये। इसलिए अब इन कानूनों को वापस लेते हैं।“

किसान आंदोलन से ठीक पहले ऐसा ही एक आंदोलन नये नागरिकता कानून को लेकर हुआ था। मौजूदा कानूनों में इस बात का प्रावधान था कि सरकार जिसे चाहती उसे भारत की नागरिकता देती। लेकिन मोदी सरकार नया नागरिकता कानून सिर्फ इस देश के मुसलमानों में भय पैदा करने और कोर हिंदू वोटरों को परपीड़ा का आनंद देने के उदेश्य से लेकर आई और इसने इंडियन नेशन का कोर कैरेक्टर बदल दिया और उस टू नेशन थियरी पर एक तरह से मुहर लगा दी, जिसका विरोध भारत हमेशा से करता आया था।

पूरे देश में मुस्लिम समुदाय के लोगों ने इसे लेकर बेहद शांतिपूर्ण आंदोलन शुरू किया, जिसमें न्याय और संविधान में आस्था रखने वाले दूसरे नागरिक समुदायों के लोगों ने भी हिस्सा लिया। यह आंदोलन लंबा चला लेकिन यहां प्रधानमंत्री मोदी ने यह नहीं कहा कि हम इस देश के लोगों को कानून की अच्छाइयां नहीं समझा पाये, इसीलिए इसे वापस लेते हैं।

कारण क्या था—मुसलमान राजनीतिक रूप से अपेक्षाकृत एक कमजोर समुदाय है। इसलिए इसे आसानी से रौंदा जा सकता है। ऐसे करने के राजनीतिक लाभ भी हैं। अगर लाभ नहीं होता तो रौंदा नहीं जाता, ब्राहणवाद यही है।

भारत की गृह-नीति के साथ विदेश नीति पर भी ब्राहणवादी सोच का गहरा असर है। मालदीव छोटा देश है, इसलिए हैशटैग बायकॉट मालदीव चलाकर इसे वहां भारतीय टूरिस्ट का जाना आप रूकवा सकते हैं। इससे सरकार और नागरिकों का अहं तुष्ट होता है। चीन इतना बड़ा है कि खुद विदेश मंत्री एस.जयशंकर तक सीधे-सीधे कह देते हैं कि हम इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था से लड़ नहीं सकते।

चीन जमीन कब्जाकर बैठा रहे, पाकिस्तान को हथियार थमाकर भारत से छाया युद्ध लड़ता रहे और देश के प्रधानमंत्री का स्टैंड ये हो “ना कोई घुसा था, ना कोई घुसा है” ब्राहणवाद यही है। अमेरिका का राष्ट्रपति खुलेआम एलान कर दे कि युद्ध हमने रुकवाया है और कश्मीर मामले में हम मध्यस्थता करेंगे। भारत के प्रधानमंत्री को सीधे जवाब देने की हिम्मत ना हो और वो इसका खंडन विदेश मंत्रालय के किसी जूनियर अधिकारी से करवायें—ब्राहणवाद यही है।

‘क्या भारत शुरू से ऐसा ही था? आप इतिहास उठाकर देखिये। जब हम नैतिक थे, तब हमारी लड़ाइयां ताकतवर लोगों से थीं। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दुनिया के हर हिस्से में चल रहे उपनिवेशवाद का विरोध किया था। अफ्रीकी देशों में यूरोपिय साम्राज्यवादी शक्तियों की उपस्थिति पर उन्होंने स्टैंड लिया। नेपाल को कभी लाल-लाल आंखे करके नहीं दिखाईं।

दलाई लामा को शरण देना भारत का एक नैतिक फैसला था, जिसकी वजह से चीन के साथ रिश्ते बिगड़े। भारत जैसे गरीब मुल्क में आर्मी का कोई बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं था। फिर भी भारतीय सेना बहादुरी से लड़ी। प्रधानमंत्री नेहरू ने कभी नहीं कहा—ना कोई घुसा था, ना कोई घुसा है।
ब्राहणवाद हर स्तर पर इस देश को दीमक की तरह खोखला कर रहा है। जातिगत जनगणना ने एक मौका दिया इस खतरे को फिर से समझने का और इसके खिलाफ एक ऐसी संगठित और निर्णायक लड़ाई शुरु करने का, जिसके नतीजे में यह देश सच्चे अर्थों में प्रगतिशील, न्यायप्रिय और समावेशी बन सके।

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