श्रवण गर्ग (वरिष्ठ पत्रकार )
देश के 140 करोड़ नागरिकों की तरफ़ से सरकार को पूरा समर्थन है कि पहलगाम नरसंहार का बदला लेने के लिए पाकिस्तान में पनप रहे आतंकवादियों के तमाम ढाँचों को पूरी तरह नेस्तनाबूत कर दिया जाना चाहिए. ठीक उसी तरह जैसे अमेरिका ने ‘नौ-ग्यारह’ के आतंकी हमलों के बाद ‘अल-क़ायदा’ का अफ़ग़ानिस्तान से भी सफ़ाया कर दिया था और उसके सरग़ना ओसामा-बिन-लादेन को उसके पाकिस्तान स्थित ठिकाने में घुस कर मार गिराया था.बराक ओबामा प्रशासन द्वारा इस्लामाबाद की हुकूमत को तब किसी भी स्तर पर पूर्व जानकारी भी नहीं दी गई थी और परवेज़ मुशर्रफ ने इसे लेकर नाराज़गी भी जताई थी.
देश की जनता इस मामले में भी पूरी तरह से सरकार के साथ है कि पाकिस्तान की सेना अगर आतंकवादियों के समर्थन में खड़ी होती है तो उसके ख़िलाफ़ भी हमारी सेनाओं द्वारा निर्णायक कार्रवाई की जानी चाहिए. इसी तरह, इस्लामाबाद की हुकूमत भी अगर इस मामले में आतंकवादियों और सेना के पक्ष में खड़ी होती है तो अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसकी नक़ाब भी उतारी जानी चाहिए.
यहाँ बहस सिर्फ़ ऐसे संवेदनशील मुद्दे को लेकर है, जिस पर अगर जनता की राय मांगी जाए तो ज़्यादा संभावना इसी बात की है कि वह सरकार के निर्णय के पक्ष में खड़ी नहीं होगी. मामला पाकिस्तान के उन नागरिकों के हितों से जुड़ा है, जिनके हमारे यहाँ बस रहे करोड़ों लोगों के साथ खून के रिश्ते रहे हैं. आत्माओं के तार आज भी आपस में जुड़े हुए हैं ,सिर्फ़ शरीर अलग कर दिये गए हैं.
मुद्दा इस सवाल से जुड़ा हुआ है कि क्या आतंकवाद के ख़िलाफ़ कार्रवाई में आम नागरिकों को पानी के लिए तरसाया जाना चाहिए जैसे दावे किए जा रहे हैं ? क्या इस ‘उपलब्धि’ का गर्व के साथ मीडिया के चैनलों और अख़बारों में बखान किया जाना चाहिए कि हमने जबसे सिंधु जल बटवारे की संधि के अमल पर रोक लगाई है : ‘वहाँ के नागरिक बूँद-बूँद पानी के लिये तरसने लगे हैं !’ क्या हमारी कार्रवाई से आतंकवादियों, पाकिस्तानी सेनाओं और शासकों पर फ़र्क़ पड़ गया है कि उन्हें भी पानी की कमी का सामना करना पड़ रहा है ?
हमारी लड़ाई आतंकवाद और उसके संरक्षकों के ख़िलाफ़ है. देश के नागरिकों की सरकार को खुली मैंडेट भी उसी को लेकर मानी जानी चाहिए. अगर हम यूक्रेन और गाजा के नागरिकों, महिलाओं और बच्चों के उत्पीड़न को लेकर इतने चिंतित होते हैं तो ऐसा हरेक मुल्क के संदर्भ में होना चाहिए !
विचार किया जाना चाहिए कि केवल कुछ हज़ार या सिर्फ़ सैंकड़ों की संख्या वाले आतंकवादियों से बदले की कार्रवाई में निशाने पर 25 करोड़ नागरिकों को भी लेकर कहीं उन्हें भी तो भारत-विरोधी तो नहीं बनाया जा रहा है! या हम मानकर ही चलते हैं कि पूरा पाकिस्तान ही भारत-विरोधी है?
हमें जानकारी नहीं है कि पाकिस्तान की ज़मीन से भारत के ख़िलाफ़ चल रही आतंकवादी कार्रवाइयों के ख़िलाफ़ विदेश यात्राओं पर गए हमारे प्रतिनिधिमंडलों से किस तरह के सवाल वहाँ की सरकारों और नागरिकों द्वारा किए गए या किए जा रहे होंगे! अगर किसी ने पूछा होगा या पूछा जाएगा कि पाकिस्तान के नागरिकों का पानी क्यों बंद किया गया या रोका गया तो हमारा जवाब क्या होना चाहिए?
एक जवाब शायद यह हो सकता है कि पानी और अनाज जैसी ज़रूरी चीज़ों के अभावों से त्रस्त होकर वहाँ की जनता अपनी हुकूमत, सेना और आतंकवादियों को दोषी मानते हुए उनके ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर सकती है! पाकिस्तान की सैन्य ताक़तें शायद उसी क्षण की प्रतीक्षा में भी हों कि कब ऐसा हो और बचा-खुचा लोकतंत्र भी ख़त्म करके देश में सैन्य तानाशाही क़ायम कर दी जाए! सवाल यह भी है कि हम किस तरह का पाकिस्तान अपने पड़ोस में देखना चाहेंगे, जबकि देख रहे हैं कि किस तरह के बांग्लादेश का पुनर्जन्म हमारी पूर्वी सीमाओं पर हो रहा है!
विपक्ष द्वारा माँग की जा रही है कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को लेकर संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए! मानसून सत्र के पहले अगर ऐसा कोई सत्र आमंत्रित करने का साहस सरकार दिखा पाती है तो फिर उसमें पानी बंद करने को लेकर भी कोई प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित करवाया जाना चाहिए! देश की जनता की सहमति अथवा असहमति उसी से प्रकट होगी!
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