इस झूठ और फरेब के नंगे नाच में सरकार शामिल है और ये उसकी कामयाबी है कि अपनी
विश्वसनीयता को गिरवी रखकर भी वे सरकारी चाटुकारिता कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं.
निधीश त्यागी (बीबीसी इंडिया के पूर्व संपादक )
मुख्यधारा के मीडिया को सरकार ने गुरुवार को शाबाशी दी कि उनका भारत पाकिस्तान सैन्य संघर्ष के दौरान कवरेज शानदार रहा. केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा कि जिस तरह से चैनलों ने, प्रिंट मीडिया ने, रीजनल प्रेस ने संघर्ष में अपनी भूमिका निभाई उसके लिए उन्हें सैल्यूट बनता है। वे कह तो रहे हैं कि सेना का साथ देने का शुक्रिया, पर उनका मतलब सरकार और अपने नेता से ही है।
आप चाहे तो सोच में पड़ सकते हैं। मैं उन काबिल संपादकों, प्रोड्यूसरों और मीडिया मालिकों के चेहरों की कल्पना कर रहा हूँ, जिनकी ये सुन कर बांछें खिल रही होंगी कि खुद सरकार ही हमारे हर उस धत्कर्म की वाहवाही कर रही है, जिसके बारे में हर हलाल पत्रकार, जानकार दर्शक-पाठक मज़ाक उड़ा रहा है। औऱ यहां तक, पाकिस्तान में भी खुल कर खिल्ली उड़ाई जा रही है। विदेशों में भी। यहां पर लोगों ने अपनी जान दांव पर लगा रखी थी और मीडिया कर क्या रहा था?
भारतीय नौसेना ने कराची बंदरगाह पर हमले किए; कि भारतीय सेना ने अंतरराष्ट्रीय सीमा पार की; कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बंकर में भाग गए; या कि उसके सेना प्रमुख को तख्तापलट में अपदस्थ कर दिया गया. सरकार के लिए ये संतोष की बात है कि मीडिया झूठी लंतरानियां, गपोड़ी किस्से, फर्जी रिपोर्टिंग, भड़काऊ कवरेज और नफरती जहर सुबह शाम दोपहर हर रोज परोस रहा है, उनके एंकर तोतों की तरह एक ही सुर में एक साथ एक ट्वीट कर रहे हैं और अगर उसमें कोई एक बात गायब है तो वह जनपक्षधरता है. इस झूठ और फरेब के नंगे नाच में सरकार शामिल है और ये उसकी कामयाबी है कि अपनी विश्वसनीयता को गिरवी रखकर भी वे सरकारी चाटुकारिता कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं.
वैष्णव वह मंत्री हैं, जो संविधान और सच की शपथ लेकर यहां तक पंहुचते हैं. यह वह प्रेस है, जिसका काम लोकतंत्र में सच को लोगों तक पंहुचाना होता है. और सत्ता से सवाल करना होता है. सवाल, जिनके जवाब सरकार के पास नहीं हैं. इन ग्यारह सालों में देखते देखते मीडिया को एक चौकीदार से अमीबा बना दिया गया है और इस काबिलियत की भी शाबाशी है, जो हमें बताती है कि हम किस अमृत काल में आ चुके हैं.
वैष्णव को खुश होना ही चाहिए. इस समय फरेबी नैरेटिव के कारखाने में जो इंटर्न, ट्रेनी पत्रकार काम करने आएगा, इस समय जो पीढ़ी मीडिया और पत्रकारिता के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई कर रही होगी, उसके मन में कई सवाल होंगे. उन्हें पढ़ाने वाले मीडिया लॉ और एथिक्स क्या कह कर पढ़ाएंगे. जरूरत ही नहीं रह जाएगी उन बुनियादी उसूलों और कायदे की. उसे समझ भी आ रहा होगा कि अगली बार कराची नहीं, काबुल तक पर कब्जा किया जा सकता है. रावलपिंडी ही नहीं कंधार के आगे ईरान तक मार की जा सकती है.
वैष्णव का मीडिया के लिए सैल्यूट इसलिए भी है कि अब न सच का मतलब रह गया है, इसलिए झूठ हमारा न्यू नारमल है. न भाषा का, न तहजीब का, और न विश्वसनीयता का. उन्होंने सफलतापूर्वक अपने नैरेटिव को ऐसे कोरस में बदल दिया है, जिसे चलाने वाले नवसाक्षर संपादक और व्यवहारकुशल मालिकान सरकारी इशारा पाते ही एक हांके में बदल देते हैं. एक ऐसे तमाशे में जहां न्यूज का मुकाबला एंटरटेनमेंट चैनलों से है, क्योंकि वे ज्यादा फूहड़ता, ज्यादा सनसनी, ज्यादा फेंकन, ज्यादा ड्रामा परोसते हैं. उन्होंने एटमी हथियार वाले दो मुल्कों के बीच सैन्य संघर्ष को एक वीडियो गेम से चल रहे सट्टा ऑपरेशन में बदल दिया था, जिसमें मुकाबला सच के पास जाने का नहीं था, सामने वाले से ज्यादा बड़ी टुच्ची पटकने का था.
एक जिम्मेदार सरकार होती तो फेक न्यूज फैलाने वालों पर कार्रवाई कर रही होती. पर न उन्होंने सोशल मीडिया पर झूठ फैलाने वालों पर कार्रवाई की, न नफरत और हिंसा उकसाने वालों पर. जो उन पर नहीं किया तो इन पर क्या होता. कार्रवाई जब भी की तो उन प्लेटफॉर्म्स पर, जो अब भी जिम्मेदारी से, तथ्यों के साथ और सच की पत्रकारिता कर रहे हैं. जिनसे शायद सरकार को अब भी ख़तरा महसूस होता है.
ये ख़तरा किस बात का है. उस सवाल का, जिससे कहीं असलियत न उजागर हो जाए. सवाल जो मीडिया अब नहीं करता. जैसे प्रधानमंत्री के पास सर्वदलीय बैठक में जाने का समय कैसे नहीं है, अगर उनके पास अडानी के कार्यक्रम और बिहार में चुनावी रैली में जाने का टाइम है. उन जवाबदेहियों का, जिम्मेदारियों का जिनके ठीक से न निभाए जाने के कारण पहलगाम जैसी वारदात हुई. सवाल जिनका जिक्र ‘हरकारा’ यहां और यहां करता रहा है.
मुख्यधारा का मीडिया अगर देश और उसकी जनता को लेकर ईमानदार और प्रतिबद्ध होता, तो ये सवाल करता. पूछता कि हमारे जहाजों का क्या हुआ, जिनके बारे में क्या-क्या सुनने में आ रहा है. कश्मीरियों के साथ हो रही ज्यादतियों पर सवाल करता. सवाल नहीं किया कि जिस विदेश सचिव और फौजी कर्नल की बेइज्जती जब मोदी समर्थकों ने की, तो सरकार, और वैष्णव चुप कैसे रहे. वैष्णव की शाबाशी इस चुप्पी बनाए रखने की भी है.
पर अपनी पत्रकारिता और लोकतांत्रिक जिम्मेदारी को भुलाकर भारत की मुख्यधारा की मीडिया इंडस्ट्री ने सरकार का टहलुआ गुलाम बनना सहर्ष स्वीकार किया है. इसीलिए जब बहुत से एंकर जमीन पर जब उतरते हैं, जनता उनका तिरस्कार करके भगाती हुई दिखाई देती है. गोदी मीडिया अब एक संस्थागत ढांचा बना है बदौलत मोदी सरकार.
पर जैसा कि किसी ने मजे लेते हुए लिखा, रात में कराची और रावलपिंडी जीत लिया और सुबह लौटा भी दिया. एक बार ये पढ़कर हंसी आ सकती है. आप भी देखिये दूसरी बार नहीं आएगी. अश्विनी वैष्णव जितना भी खुश हो लें.
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