आकार पटेल (वरिष्ठ पत्रकार )
1990 के दशक से लेकर हाल तक, भारत ने ‘डि-हाइफनेशन’ नामक अवधारणा पर जोर दिया है. हाइफन से यहां तात्पर्य ‘इंडो-पाक’ शब्द में प्रयुक्त हाइफन से था, जिस तरह दुनिया दक्षिण एशिया को देखती थी. बाहरी दुनिया में दोनों देशों को एक-दूसरे के साये के बिना नहीं देखा जाता था.
क्लिंटन प्रशासन की एक अधिकारी रॉबिन राफेल जैसे भारत आने वाले अमेरिकी राजनयिक, भारत के दौरे पर आते समय संबंधों में ‘संतुलन’ बनाने के लिए पाकिस्तान जाना सुनिश्चित करते थे. राष्ट्रपति क्लिंटन स्वयं जब मार्च 2000 में भारत आए थे, तो वापस जाते समय इस्लामाबाद को यह आश्वासन देने के लिए कि उसे भुलाया नहीं गया है, कुछ घंटों के लिए पाकिस्तान भी रुके थे.
भारत हाइफनेशन से चिढ़ता था, क्योंकि वह खुद को, वाजिब तरीके से ही, एक बड़ी ताकत, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और कई मायनों में पश्चिम के समान मानता था, जबकि इसके विपरीत हमारा पड़ोसी आतंकवाद निर्यात करने वाला, विफल राज्य था. पर दूसरे देश हमेशा इसे इस तरह नहीं देखते थे. दुनिया इंडो-पाक के हाइफनेशन पर टिकी हुई थी, विशेष रूप से 1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारत ने मई के बीच में परमाणु परीक्षण किए और फिर नवाज़ शरीफ के नेतृत्व में पाकिस्तान ने भी 28 मई को ऐसा ही किया. दुनिया अस्थिरता और लापरवाही को लेकर चिंतित थी और यह चिंता 1999 के कारगिल युद्ध के साथ और बढ़ गई, जो आधिकारिक तौर पर युद्ध नहीं था — क्योंकि किसी भी देश ने युद्ध की घोषणा नहीं की थी — हालांकि 1,000 से अधिक सैनिक मारे गए थे.
पाकिस्तान और भारत ने पारंपरिक तरीके से तोपखाने और वायु सेना के साथ लड़ाई लड़ी, जिसमें अनकही समझ यह थी कि परमाणु युद्ध तक मामला बढ़ाया नहीं जाएगा. यह पहला मौका था, जब दुनिया में परमाणु शक्ति संपन्न राज्यों के बीच ऐसा संघर्ष देखा गया था. दोनों पक्षों के मीडिया और जनता को उस तरह के उन्माद के साथ लामबंद किया गया था, जिससे हम परिचित हैं. दुनिया हैरान थी और क्लिंटन ने दखल किया और पाकिस्तान को कारगिल से अपनी सेनाओं को वापस लेने के लिए मजबूर किया.
इसके बाद दो चीजें हुईं, जिसने हाइफन हटा दिया. पहला था 11 सितंबर 2001 का हमला, जिसने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के टावरों को गिरा दिया, जिससे अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ युद्ध की घोषणा की. तालिबान नियंत्रित अफगानिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण के लिए कराची की जरूरत थी और लगभग सभी ईंधन, गोला-बारूद और अतिरिक्त सामग्री जिसकी अमेरिकी/नाटो सैन्य बलों को जरूरी थी, पाकिस्तान के माध्यम से भेजी गई थी, जिसकी कीमत अदा की गई. 1979 में अफगानिस्तान पर सोवियत आक्रमण के बाद जनरल जिया-उल-हक की तरह, जनरल परवेज मुशर्रफ अचानक खुद को स्वीकार्य पाने लगे और नवाज़ शरीफ के खिलाफ उनके तख्तापलट को नज़रअंदाज़ कर दिया गया.
भारत सरकार शुरू में चिंतित, नाराज और शायद वैश्विक मंच पर मुशर्रफ को मिले सारे ध्यान से ईर्ष्या भी करती थी, लेकिन वाजपेयी ने समझदारी के साथ इस रोमांचक स्थिति से दूरी बनाए रखी. अब अमेरिकियों ने ‘अफ-पाक’ शब्द गढ़ा. इंडो-पाक हाइफन धुंधला हो गया.
दूसरा कारण ‘इंडिया शाइनिंग’ शब्द से सर्वोत्तम रूप से प्रदर्शित होता है, जो इस धारणा पर शुरू किया गया विज्ञापन अभियान था कि आर्थिक विकास के मामले में भारत अगला चीन है. 2004 में, यूपीए मंत्री जयराम रमेश ने इस उम्मीद में ‘चिनडिया’ शब्द का प्रयोग किया कि “भारत-चीन आगे की चुनौतियों का सामना करने के लिए सहयोग कर सकते हैं और साथ काम कर सकते हैं.”
भारत अपने उत्तर-पूर्व के बड़े पड़ोसी के सापेक्ष देखा जाना चाहता था और उत्तर-पश्चिम वाले से अपने आप को अलग करना चाहता था. दुर्भाग्य से, चिनडिया शब्द स्थायी नहीं रहा. चीन के शानदार उत्थान का मतलब था कि आर्थिक रूप से कोई मुकाबला नहीं था. भारत ने कुछ संभावना तो दिखाई, लेकिन उसमें प्रदर्शन के बजाय शेखी ज्यादा थी.
सच कहें तो चिनडिया का फ्लॉप होना उतना बुरा भी नहीं था. देखिए, पाकिस्तान के साथ जोड़े जाने पर भारत की नाराजगी सिर्फ रोष से थी. हम खुद को श्रेष्ठ माने जाने की और गरीब चचेरे भाइयों के साथ न जोड़े जाने की इच्छा रखते थे. हालांकि, वास्तविकता यह थी और है कि भारत सबसे अधिक स्वाभाविक अंदाज में पाकिस्तान के साथ मुकाबला करते वक़्त ही होता है. जबकि चीन या यहां तक कि बांग्लादेश के साथ व्यवहार करना ऐसा नहीं है.
संयुक्त राष्ट्र जैसे मंचों पर जब हमारे राजनयिक पाकिस्तान पर बोलते हैं, भारत जो जोश दिखाता है, वह हम अन्य देशों के लिए प्रदर्शित नहीं करते. हमने जो भाषण दिए हैं, जैसे कि स्वर्गीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के द्वारा, जो दिखावटी तौर पर वैसे तो महासभा के लाभ के लिए थे, लेकिन वास्तव में एक विशेष देश को ही लक्षित करते थे.
पाकिस्तान का मुकाबला करना वह स्थिति है जो सबसे संतोषजनक है और जहां भारतीय प्रतिष्ठान खुद को सबसे आरामदायक महसूस करता है. यह विशेष रूप से भाजपा के अधीन भारत के लिए सच है, जिसके लिए पाकिस्तान उसके प्राथमिक दुश्मन का बाहरी प्रकटीकरण है. हमारे ‘सामरिक मामलों का समुदाय’ में शामिल सेवानिवृत्त फौजी अफसर शामिल हैं, स्वाभाविक रूप से पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध चलाने के लिए उत्साही है जैसा हम देख सकते हैं. सोशल मीडिया और टीवी बहसों पर उनके बेलाग विचार बहुत कुछ बताते हैं.
यहां तक कि भारतीय जनता की भागीदारी भी तब अपने चरम पर होती है, जब उसे पाकिस्तान के खिलाफ लामबंद किया जाता है. विदेशों में भारतीयों को दूतावासों के बाहर गाली देते और इशारे करते हुए दिखाने वाले दृश्य कुछ को अप्रिय लग सकते हैं, लेकिन कई लोगों को खुशी देते हैं. हम नहीं चाहते कि दुनिया इंडो-पाक पर ध्यान केंद्रित करे, लेकिन हम निश्चित रूप से इसमें डूबना चाहते हैं. यह इंडो-पाक डि-हाइफनेशन का विरोधाभास है. हम इतने महत्वपूर्ण हैं कि पाकिस्तान के साथ जोड़े जाना नहीं चाहते, लेकिन इससे इतनी गहराई से जुड़े हैं कि खुद को उनसे सफलतापूर्वक अलग भी नहीं कर सकते.
स्वर्गीय विद्वान स्टीफन कोहेन ने इस पर अंतर्दृष्टि प्रदान की : “संरचनात्मक रूप से, भारत-पाक संबंध विषाक्त है. यह उस चीज का एक क्लासिक उदाहरण है, जिसे मैं ‘पेयर्ड माइनॉरिटी कॉन्फ्लिक्ट’ कहता हूं. इन स्थितियों में दोनों पक्ष खुद को कमजोर, खतरे में, घिरा और जोखिम में देखते हैं. उनमें एक अल्पसंख्यक या छोटी-शक्ति का कॉम्प्लेक्स है, जिसका यह भी मतलब है कि पारंपरिक नैतिकता उन पर लागू नहीं होती” और यह कि “पाकिस्तान भारतीय सोच में गहराई से अंतर्निहित है.” कोहेन का मानना था कि श्रीलंका (सिंहला बनाम तमिल) और मध्य पूर्व में भी इसी तरह के संबंध हैं. कोहेन की 2019 में मृत्यु हो गई और दुनिया ने कई वर्षों से हाइफन का उपयोग नहीं किया है. लेकिन कभी-कभी घटनाएं हमें इसे खुद से जोड़ने का अवसर देती हैं.
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