पंकज मुकाती
दिल्ली जल रही है। पहले ढाई महीने सरकारें चुप रहीं। चुनाव जो थे। चुनाव हुए। फिर जागे। जो हारे वो प्रवचन देने बाज़ार में उतर गए। जो जीते वो जिम्मेदारी गांधी पर डालने राजघाट जा बैठे। आखिर क्यों ? कैसे ? कब ? इतनी अराजकता हमारे मन में, दिमाग में और गलियों में घुस गई। हमने इस संक्रमण को पनपने,का भरपूर मौका दिया। तनाव की जुबान जब करवटें ले रही थी, तब भी गृह और सुरक्षा वाले खामोश रहे।कई घंटे तक पुलिस को शान्ति,अहिंसा के आदेश से बांधकर रखा गया। जब तक की अहिंसा के अंदर का अ पूरी तरह मिट नहीं गया, हिंसा को हवा मिलती रही । फिर हमारे एक जांबाज़ सिपाही रतनलाल की सरेआम हत्या हो गई। उस रात पूरी दिल्ली नहीं सोई, देश भी आंखें खोले सोचता रहा कि आखिर दिल्ली इतनी संक्रमित, असुरक्षित है, तो हमारा क्या होगा ?
क्या सरकारें वाकई इतनी लाचार है या ये लाचारी के पीछे एक साजिश है, सब कुछ मिटा देने की। ज़ज़्बातों के एक तरफा हो जाने के इंतज़ार की इससे बड़ी कोई सुनियोजित कहानी शायद दिल्ली ने मुगलों और ब्रिटिश शासन के बाद पहली बार देखी (1984 एक तात्कालिक मामला था, वो ढाई-तीन महीने में तैयार की गई कहानी नहीं थी ) .
समान नागरिकता अधिनियम को लेकर संविधान की दुहाई देने वाले समर्थक और विरोधी दोनों का राष्ट्रवाद क्या यही है ? क्या तिरंगे और गांधी की तस्वीर हाथ में लेकर अपना हक़ मांगने वाले और तिरंगे के तले महात्मा को याद करके नागरिकों के अधिकार सुरक्षित रखने की शपथ लेने वालों। दोनों पर दिल्ली की हिंसा एक सवाल है।
क्या वाकई #दिल्ली की सत्ता इतनी कमजोर है कि मुट्ठी भर शाहरुख़ उसे चुनौती दे सकें, या #शाह रुख की तैयारी में ऐसे# शहरुखों को फलने-फूलने, पिस्तौल लहराने को भरपूर पोषण दिया गया।