CJI BR Gavai Attack Case

CJI BR Gavai Attack Case

टिप्पणी … गवई के ‘धैर्य’ से सत्ता प्रतिष्ठान के सिंहासनों की चूलें हिल गईं ?

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Comment…Gavai’s ‘patience’ shook the foundations of the thrones of the ruling establishment?

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श्रवण गर्ग (वरिष्ठ पत्रकार )

वह कौन सी एक बात रही होगी जिसने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति भूषण रामकृष्ण गवई को उस तरह की कोई तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से प्रतिबंधित या संयमित किया होगा जिसका इस तरह की असामान्य परिस्थितियों, जैसी कि 6 अक्टूबर 2025 को भरी सुप्रीम कोर्ट में उत्पन्न हुई थी, में प्रकट होना सामान्य अभिव्यक्ति माना जा सकता है ?

कुछ तो ऐसा ‘अदृश्य’ रहा होगा कि विचलित कर देने वाली जिस घटना ने पूरे राष्ट्र की आत्मा को झकझोर कर रख दिया उससे न्यायमूर्ति गवई को कोई ‘फ़र्क़’ ही नहीं पड़ा ! अगर पड़ा भी हो तो उसे अपनी आत्मा से बाहर नहीं झांकने दिया !

राष्ट-जीवन का वह अपमानजनक क्षण शायद उसी तरह का रहा होगा जब 7 जून 1893 को दक्षिण अफ़्रीका के पीटर मैरिट्ज़बर्ग स्टेशन पर बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी को नस्लीय भेदभाव का शिकार बनाते हुए ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर कर प्लेटफार्म पर धकेल दिया गया था।

वह एक घटना कालांतर में इतनी महत्वपूर्ण साबित हुई कि नस्लीय भेदभाव से आज़ादी के लिए अहिंसक प्रतिरोध का हथियार गांधीजी ने ईजाद कर दिया।

दक्षिण अफ़्रीका के उस क्षण को गुज़रे तो सवा सौ साल से ज़्यादा का वक्त बीत गया पर धार्मिक कट्टरवाद के उस नग्न प्रदर्शन को तो अभी तीन साल ही हुए हैं जब वैचारिक असहिष्णुता के चलते भारतीय मूल के प्रसिद्ध लेखक सलमान रुश्दी की जान पर न्यूयार्क में चाकू से हमला किया गया था और उनकी एक आँख की रोशनी हमेशा के लिए चली गई।

सत्ता के सनातनी प्रतिष्ठानों ने न्यायमूर्ति गवई को निशाना बनाकर उछाले गए जूते को संविधान, न्यायपालिका और बापू के करोड़ों हरिजनों का अपमान मानकर शर्मिंदगी तो महसूस नहीं की पर गवई के बौद्ध-प्रेरित धैर्य भाव से उनके सिंहासनों की चूलें ज़रूर हिल गईं।

वे तमाम लोग जो सर्वोच्च संवैधानिक संस्था के असम्मान को अपनी आँखों के सामने होता देखने के साक्षी रहे होंगे अथवा वे तत्व जिनकी घटना में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भागीदारी रही होगी कुछ बड़ा और विस्फोटक होने की प्रतीक्षा कर रहे होंगे।

उस दुर्भाग्यपूर्ण क्षण जब गवई को निशाने पर लिया गया होगा भय व्यक्त किया गया होगा कि मुख्य न्यायाधीश विचलित होकर अपने चैम्बर में चले जाएँगे और कोर्ट का सारा कामकाज ठप पड़ जाएगा। गवई ने सबको निराश कर दिया !

न्यायमूर्ति गवई ने उस क्षण के दौरान उन्हें प्राप्त हुए ‘बोधिसत्व’ से कई अनहोनियों को टाल दिया। उसके लिए उन्हें अपनी आत्मा को अपार कष्ट देना पड़ा होगा ! प्रधानमंत्री ने उनके जिस धैर्य की सराहना की है वह शायद वही ‘सत्व’ रहा होगा !

देश के न्यायिक इतिहास में एक दलित मुख्य न्यायाधीश के अपमान की जो शर्मनाक घटना हुई और जिसके लिये ‘हमलावर’ को कोई दुख अथवा पश्चाताप नहीं है, उसे न्यायपालिका के लिए एक बड़ी चुनौती, चेतावनी और आगे आने वाले वक्त के लिए किसी डरावने अशुभ संकेत की तरह लिया जा सकता है।

मोदी द्वारा की गई गवई के धैर्य की सराहना को प्रधानमंत्री के नेतृत्व में पिछले एक दशक से देश में क़ायम हुकूमत का धैर्य भी समझा जा सकता है कि वह भी समाज के अल्पसंख्यक, पिछड़े और वंचित वर्गों के ख़िलाफ़ बढ़ते धार्मिक कट्टरवाद से क़तई विचलित नहीं है।

न्यायमूर्ति गवई 23 नवंबर को रिटायर हो रहे हैं। वे नहीं चाहते होंगे कि तीस-पैंतीस दिनों के बचे कार्यकाल को धार्मिक आतंकवाद के हवाले कर अब तक की अर्जित सारी प्रतिष्ठा और सम्मान को न्यायपालिका में भी किसी जातिवादी विभाजन की आग के हवाले करते हुए विदाई लें।

न्यायमूर्ति गवई के ‘धैर्य’ को अगर समझना ही हो तो उन्होंने अपने अपमान का जवाब भगवान बुद्ध और गांधी के तरीक़ों से देने का दायित्व उन तमाम दलों और संगठनों के हवाले कर दिया है जो दलितों-पिछड़ों के विकास और उनके सम्मान के नाम पर सत्ता की राजनीति तो करना चाहते हैं पर इस तरह के अवसरों पर सवर्ण वोटों की लालसा से सत्य का साथ देने से कन्नी काट जाते हैं।

न्यायमूर्ति गवई ने अपने विनम्र आचरण से बड़ी चुनौती तो उन तमाम मुख्य न्यायाधीशों के लिये खड़ी कर दी है जो उनके रिटायरमेंट के बाद प्रतिष्ठित पद पर क़ाबिज़ होने वाले हैं।चुनौती यह है कि धार्मिक कट्टरवाद का जो क्रूर चेहरा 6अक्टूबर 2025 प्रकट हुआ अगर वही मुल्क का स्थायी भाव बनने वाला है तो क्या न्यायपालिका उसके सामने समर्पण कर देगी या उसका उतनी ही दृढ़ता और धैर्य के साथ मुक़ाबला करेगी जैसा उन्होंने (न्यायमूर्ति गवई) करके दिखाया ?

 

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