दो बड़े गढ़ में पुराने सांसद ही रिपीट हो गए। पहली नजर में ये बेहद सामान्य फैसला है। पर इसके भीतर कई चौकाने और चौकन्ने होने की कहानियां छिपी हैं। इंदौर से शंकर लालवान फिर मैदान में हैं। उज्जैन से अनिल फिरोजिया भी। इन दोनों का बने रहना सत्ता के संतुलन के साथ-साथ ये सन्देश भी हैं कि – कोई कितना भी बड़ा नेता हो वो ये न समझे ‘मैं ही मैं हूँ’ .
पंकज मुकाती (Editor politicswala )
भाजपा ने प्रदेश में बचे पांच टिकट (पत्ते) भी खोल दिए। इसने कई कथित टिकट वितरक सन्नाटे में हैं। उनके तमाम घोड़े ‘मोशाजी’ ने एक झटके में बाँध दिए। सारे जॉकी (घुड़दौड़ के घुड़सवार) भी एक झटके में दौड़ से बाहर हो गए। दरअसल, ये सब (टिकट की दौड़ वाले) अस्तबल में ही थे, कभी किसी घुड़दौड़ का हिस्सा थे ही नहीं। इन्हे तो सिर्फ टोकन बाँट दिए गए थे। उस दौड़ के जो कभी कहीं हुई ही नहीं। अब राजनीति के लोकल रेसकोर्स के सारे मालिक खुद हिनहिना रहे हैं, क्योंकि विजेता तो दिल्ली के रेसकोर्स ने पहले ही तय कर दिया।
भाजपा की दूसरी सूची ने पहली नजर में बिलकुल नहीं चौंकाया। दो बड़े गढ़ में पुराने सांसद ही रिपीट हो गए। पहली नजर में ये बेहद सामान्य फैसला है। पर इसके भीतर कई चौकाने और चौकन्ने होने की कहानियां छिपी हैं। इंदौर से शंकर लालवानी फिर मैदान में हैं। उज्जैन से अनिल फिरोजिया भी। इन दोनों का बनेरहना सत्ता के संतुलन के साथ-साथ ये सन्देश भी हैं कि – कोई कितना भी बड़ा नेता हो वो ये न समझे ‘मैं ही मैं हूँ’ .
इंदौर में दस साल के बाद सत्ता के शीर्ष पर विराजे कैलाश विजयवर्गीय और शंकर लालवानी के बीच के रिश्ते सबको पता है। उज्जैन में अनिल फिरोजिया औरमुख्यमंत्री मोहन यादव के बीच के कहानियां भी किसी से छिपी नहीं है। इंदौर में भाई का दौर लौट आया। ऐसा माहौल पूरे शबाब पर है। अब जो भी होगा भिया ही तय करेंगे। निश्चित ही कैलाश जी बड़े और जमीनी नेता हैं। दिल्ली भी उनकी संगठन शक्ति को जानती है। पर जब दिल्ली को लगता है कि संगठन की शक्ति निजी बाहुबल की तरफ बढ़ रही है, तो वो खेल के नियम बदलने में देरी नहीं करते।
कैलाश विजयवर्गीय ने जिस ढंग से अपने उड़ते, उड़ते अंदाज़ में लालवानी के टिकट कटने का मंच से ऐलान किया। फिर बोले केंद्रीय मंत्री लड़ेंगे ,फिर शिगूफा छोड़ा कोई महिला लड़ेगी। इन सबसे ये साफ़ था कि वे नहीं चाहते लालवानी फिर से मैदान में आएं। निश्चित ही उन्हें ऊपर से भी ऐसे संकेत मिले ही होंगे। यदि मिले थे तो बड़े नेता की तरह उनके भीतर उसको ज़ज़्ब करने की ताकत होनी चाहिए थी। वे ऐसा नहीं कर सके।
इंदौर जैसे शहर में ये सन्देश भी बड़ी तेजी से फैला कि महापौर कैलाश विजयवर्गीय का, चार विधायक उनके अब बस सांसद बनवाने की बारी। इसने ऐसा संकेत ऊपर तक दिया कि प्रदेश की आर्थिक राजधानी में सत्ता का तराजू बराबर रखना जरुरी है। बस इसी वजन की बराबरी के लिए तराजू के दूसरे पलड़े में शंकर लालवानी को बैठा दिया गया। यानी अब इंदौर की ‘जमीन सियासत’ पर किसी एक का कब्ज़ा नहीं रहेगा।
ऐसे ही मामला उज्जैन का है। यहाँ से अनिल फिरोजिया की रिपोर्ट लगातार कमतर भेजी गई। दूसरे नाम सत्ता के शीर्ष के पहुचायें गए। पर सिंहस्थ और दूसरे जमीनों के मामले में पूर्व मंत्री पारस जैन, पूर्व सांसद चिंतामण मालवीय और अनिल फिरोजिया ने लगातार एकजुट होकर आवाज उठाई। सत्ता बदल के बाद ये दिखने लगा था था कि अब अनिल फिरोजिया को टिकट नहीं मिलेगा। यहाँ भी सियासत के तराजू को एक तरफ झुकने न देने की कोशिश की गई है।
इंदौर और उज्जैन के टिकट ने प्रदेश के कद्दावर नेताओं को और उनके समर्थकों को साफ सन्देश दे दिया कि दिल्ली सब देख रही है।