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DGMO Press conference -आज 12 मई को सेना की तरफ से हुई DGMO ब्रीफिंग की शुरुआत रामधारी सिंह दिनकर की कविता से हुई। मीडिया ब्रीफिंग शुरू होने से पहले सेना की तरफ से एक नया वीडियो दिखाया गया, जिसमें सेना के ऑपरेशंस की तस्वीरें दिखाई गईं थीं। इसमें रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता भी सुनाई दे रही थी। राष्ट्रकवि दिनकर की यह कविता ‘जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है’ वीडियो में भारतीय सेना की मारक क्षमता को बखूबी बयान कर रही थी।
ये कविता कैसे दुश्मन के लिए एक बड़ा मैसेज है।
ये हैं कुछ पंक्तियाँ
हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूं,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूं।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।
सुनिए….
प्रेस कॉन्फ्रेन्स खत्म हुई तो पत्रकारों के सवाल-जवाब के दौरान एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि ब्रीफिंग शुरू होने से पहले जो वीडियो दिखाया गया, उसमें रामधारी सिंह दिनकर की पंक्ति थी, उसके क्या मायने माने जाएं। इस पर एयर मार्शल भारती ने तुलसीदास के रामचरित मानस की एक चौपाई सुनाते हुए कहा, “विनय ना मानत जलध जड़ गए तीन दिन बीति। बोले राम सकोप तब भय बिनु होय ना प्रीति।”
दरअसल दिनकर की इस कविता का एक खास महत्व है और जब भी इसे गाया जाता है तो लोगों के रौंगटे खड़े हो जाते हैं। जब भगवान कृष्ण पांडवों के शांति दूत बनकर कौरवों की सभा में जाते हैं और कहते हैं कि युद्ध समाप्त कर देना चाहिए तो किस अंदाज में कहते हैं, इसे ही इस कविता में पिरोया गया है-
ये है दिनकर की कविता-
वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।
मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पांच ग्राम,
रखो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!
दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बांधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हां, हां दुर्योधन! बांध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हां-हां दुर्योधन! बांध इन्हें।
भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहां तू है।
अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
सांसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हंसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूंदता हूं लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।
बांधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बांधना चाहे मन,
पहले तो बांध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बांध कब सकता है?
हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूं,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूं।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।
टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुंह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूंद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!
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