श्रवण गर्ग (वरिष्ठ पत्रकार )
बिहार के नतीजों की इन उम्मीदों के साथ प्रतीक्षा करना चाहिए कि नीतीश कुमार के अवसरवादी नेतृत्व को बीस वर्षों तक बर्दाश्त करने के बाद राज्य को उनसे मुक्ति मिलने जा रही है ! कहा जा सकता है कि बसपा, शिव सेना और ‘आप’ के साथ किए जा चुके सफल प्रयोगों के बाद बीजेपी की रणनीति का अगला बड़ा शिकार अब जेडी(यू) बनने जा रहा है।
चारों उदाहरणों में एक तत्व कॉमन है कि अपनी तात्कालिक राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिये इनके नेताओं ने बीजेपी के साथ कथित तौर पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष आत्मघाती गठबंधन किए !
बिहार के मामले में उल्लेखनीय यह है कि बीजेपी ने नीतीश कुमार से ‘पिंड’ छुड़ाने का फ़ैसला यह जानते हुए भी ले लिया कि जिन दो बैसाखियों पर मोदी सरकार का साढ़े तीन साल का बाक़ी अस्तित्व टिका रहने वाला है उनमें एक बैसाखी जेडी(यू) के समर्थन की है।
अमित शाह के दूरगामी चिंतन की दाद दी जानी चाहिए और साथ ही आश्चर्य भी व्यक्त करना चाहिए कि इतनी कठिन परिस्थितियों में भी ममता और स्टालिन की सरकारें गृहमंत्री के ताप से कैसे बची हुई हैं ?
नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाने के सवाल पर अमित शाह के जवाब के बाद साफ़ हो गया कि बिहार के दिन भी अन्य बीजेपी राज्यों की तरह ही फिरने वाले हैं और पटना को भी कोई नया भजनलाल, विष्णु देव, मोहन यादव या मोहन चरण प्राप्त हो सकता है !
मानकर चलना चाहिए कि मुख्यमंत्री पद के दावेदार और वर्तमान में उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी और अन्य दागी उम्मीदवारों को हराने की मतदाताओं से अपील करने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री आरके सिंह बीजेपी आलाकमान की मौन स्वीकृति से ही यह साहस दिखा पा रहे होंगे !
नीतीश कुमार को उम्मीद रही होगी कि राजद और कांग्रेस के बीच क़ायम तनाव के चलते महागठबंधन सीएम फेस की घोषणा अंत तक नहीं कर पाएगा और उनके लिए पलटी खाने के दरवाज़े नतीजे आने तक खुले रहेंगे। राहुल को अंततः बोधि सत्व की प्राप्ति हो गई और नामांकन वापस लेने के आख़िरी दिन मुख्यमंत्री के रूप में तेजस्वी यादव के नाम का ऐलान कर दिया गया।
घोषणा के ज़रिए सचिन पायलट को भी राजस्थान संदेश भिजवा दिया गया कि पार्टी आलाकमान के पास अशोक गहलोत का कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है !
जिन दो नज़रियों से चुनावों में झांकने की अब ज़रूरत है उनमें एक यह है कि लालू-राबड़ी-नीतीश द्वारा बिहार के पैंतीस साल सम्मिलित रूप से लील जाने के युग की क्या हक़ीक़त में समाप्ति होने जा रही है ?
दूसरा नज़रिया यह देखना है कि बिहार के रास्ते ‘इंडिया ब्लॉक’ की राष्ट्रीय पटल पर वापसी की जो संभावना ‘वोटर अधिकार यात्रा’ के दौरान राहुल-तेजस्वी की जुगलबंदी से प्रकट हुईं थी वह अभी क़ायम हैं या व्यक्तित्वों के बीच हुए अहंकारों के टकराव की भेंट चढ़ चुकी है ?
पूरे घटनाक्रम से जो बात उभरती है वह यही है कि तेजस्वी की चिंता 2020 की तरह ही इस बार भी कांग्रेस को खुश करके अवसर को गवाने की नहीं बल्कि राहुल की नाराज़गी मोल लेकर भी बाज़ी अपने पक्ष में पलटने की रही।
पिछले चुनाव में ‘इंडिया ब्लॉक’ और एनडीए के बीच वोट शेयर का फ़र्क़ सिर्फ़ 0.03 प्रतिशत या कुल जमा 12,700 वोटों का था पर तेजस्वी सरकार बनाने में 15 सीटों से पीछे रह गए थे। कारण कांग्रेस द्वारा 70 सीटों पर चुनाव लड़कर सिर्फ़ 19 पर जीत दर्ज कराना था। तेजस्वी इसीलिए इस बार एक-एक सीट को लेकर अड़ते रहे ! (इतना सब होने के बावजूद कांग्रेस और राजद चार सीटों पर एक-दूसरे के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ रहे हैं। )
‘महागठबंधन’ के सामने नई चुनौती यह है कि इस बार चिराग़ पासवान पिछली बार की तरह जेडी(यू) को नुक़सान पहुँचाने के लिए अलग से चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। वे इस बार नीतीश के साथ हैं। अतः 2020 में उनकी पार्टी को स्वतंत्र रूप से प्राप्त हुआ 5.66 प्रतिशत का वोट शेयर इस बार एनडीए के खाते में जुड़ने वाला है।
दूसरे यह भी कि जो नुक़सान चिराग़ की पार्टी ने 2020 में 135 सीटों पर चुनाव लड़कर नीतीश को पहुँचाया था लगभग वैसा ही इस बार 116 सीटों पर लड़कर प्रशांत किशोर की ‘जन सुराज पार्टी ‘महागठबंधन’को पहुँचा सकती है। तेजस्वी के सामने संकट बड़ा है।
तेजस्वी के सामने संकट बड़ा है और ‘महागठबंधन’ के भविष्य को लेकर फ़ैसला राहुल को लेना है । इतना तय है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद ‘महागठबंधन’ अगर विजयी हो जाता है तो जीत का सेहरा तेजस्वी के माथे पर ही बंधेगा।
पराजय की स्थिति में क्या होने वाला है अशोक गहलोत और कृष्णा अल्लावरू दोनों को पता है। पिछले साल यूपी में नौ सीटों के लिए हुए उपचुनावों में ‘इंडिया ब्लॉक’ के ख़राब प्रदर्शन का ठीकरा अखिलेश के परिवार के एक सीनियर नेता ने कांग्रेस के ‘अहंकार’ के माथे पर फोड़ दिया था।प्रतीक्षा की जानी चाहिए कि 14 नवंबर के बाद लालू क्या बोलने वाले हैं !
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