इन 12 सवालों में यदि आपके जवाब हाँ है तो यकीन मानिये आतंकवाद की कामयाबी में आपका भी हाथ है
निधीश त्यागी, वरिष्ठ पत्रकार
ज़ाहिर है, इस वक़्त पूरा देश ही एक तरह के भावनात्मक उफान पर है. परिवारों के साथ पहलगाम गये लोगों को जिस नृशंसता के साथ मारा गया, वह बहुत दुखद है. आतंकवाद खत्म होना ही चाहिए. आतंकवादियों को सज़ा मिलनी ही चाहिए. पर इसके साथ ही यह कुछ सोचने, सवाल करने का भी समय है. यह देखने का भी कि हमारा निजी और सार्वजनिक बर्ताव कैसा है, कहीं आप तो कुछ ऐसा नहीं कर रहे, जिसकी वजह से आतकंवादियों का मिशन कामयाब हो रहा हो. पहलगाम की घटना के बाद भी. क्या आपके जीने, सोचने, महसूस करने का एजेंडा आतंकवादी तय कर रहे हैं? अगर आप पहलगाम हमले के आतंकवादियों के साथ नहीं हैं तो आपको इन 12 बातों पर विचार करना चाहिए।
अपने गिरेबान में … जानिये आतंकवाद की कामयाबी में आपका कितना हाथ ?
पहली बात तो ये कि आप उन आतंकवादियों को किस तरह से देखते हैं. क्या वे ऐसे नौजवान हैं, जिनके दिमाग में नफरत, गुस्सा, हिंसा, बदले की भावना भरी गई है या आई है. ऐसा क्या हुआ है उनके साथ कि वे अपनी जान को जोखिम में डाल कर, अपनी जिंदगी, रिश्ते, करियर ताक पर रख कर अजनबियों को अपनी गोलियों का शिकार बनाने निकल पड़े. किसकी बंदूक है उनके हाथ में. किसके हित सधने हैं इससे. इसमें मजहब का भी हाथ है. वे अपनी ही कौम के ज्यादातर लोगों से अलग होकर इतने कट्टर हुए हैं. उनके बारे में आप कितना सोच पाए हैं. क्या वे पढ़े लिखे हैं, क्या उनके दिमाग और दिल खुल सके हैं? क्या वे धर्म और राजनीति के गड्डमड्ड का शिकार हैं. इनके ज्यादातर जवाब हां में हैं. पर सवाल ये है कि क्या यही प्रवृत्तियां किसी तरह से हमारे भी भीतर जड़ें जमा रही हैं. क्या हमारे दिमागों में ऐसे ही शोर होने लगे हैं।
–कहीं आप इस शोर के शिकार तो नहीं बन रहे? हर तरफ शोर मचा हुआ है. चैनलों में. राजनीति में. मुहल्लों में. आपके और मेरे डिजिटल डिवाइस में. व्हाट्स एप ग्रुप में. हर दिन औसत भारतीय करीब पाँच घंटे मोबाइल पर लगा हुआ है. इतने सारे मैसेज आए जा रहे हैं, जो ट्रिगर करते हैं, उकसाते हैं. इससे पहले कि आप उन्हें सोच–समझ, प्रोसेस कर पाएं, नये आ जाते हैं. हर दिन हर घंटे आपकी सब तरफ यही चल रहा है. क्या आप उन्हें देख, सुन अपनी समझ बना पा रहे हैं? क्या आप देख–परख पा रहे हैं, कि कोई इस तरह का शोर क्यों कर रहा है. तथ्य क्या है. व्यावहारिक धरातल पर सच्चाई कैसी है. क्या आपका इस्तेमाल किया जा रहा है आतंकवाद के मूल में छिपे एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए।
–अगर आपमें भी नफरत और हिंसा का भाव आ रहा है, तो शायद आप इन्हीं के एजेंडे पर चल रहे हैं. उनका मकसद लोगों को मारकर कुछ और हासिल करना भी था. वह आपको भड़काना चाह रहे थे और आप भड़क गये. आपका भड़कना उनकी कामयाबी है ।
–मैंने ऐसी खबरें पढ़ीं, जहां महिला डॉक्टर ने उन मरीजों का इलाज करने से इंकार कर दिया, जो मुस्लिम थे. जाहिर है, ये मरीज न तो सरहद पार से आये थे, न बंदूकें लेकर वे किसी को मारने आये थे. न ही वे आतंकवादी थे. वे तकलीफ में थे, जिसके लिए उन्हें डॉक्टरी सहायता चाहिए थी. ये आतंकवादियों की कामयाबी है कि हम अपनी डॉक्टरी की शपथ, अपनी इंसानियत, अपनी करुणा भूल कर वह करना ही बंद कर दें, जिसके लिए खुद हमने, हमारे देश, सरकार, समाज, परिवार ने हमें इस हुनर के लायक बनाया है. ये पहली बार नहीं हो रहा है. इस तरह की प्रतिक्रिया बताती है कि हम किस कदर सुन्न होते जा रहे हैं. और हम किसी भी हद तक जा सकते हैं।
–अगर आप चुप्पी साध लेते हैं, जब आप या आप में से ही कोई किसी कमजोर व्यक्ति को तकलीफ दे रहा होता है. जब कोई किसी को पीट रहा होता है. नीचा दिखा रहा होता है. उनकी संपत्तियों पर हमले कर रहा होता है. उनसे वे नारे कहने को कह रहा होता है, जो उनके यकीन के नहीं हैं. उनकी हत्या कर रहा होता है. अगर आपको इसमें मज़ा आने लगा है, तो ये आतंकवादियों की कामयाबी है।
आतंकवादी तब सफल हैं, जब हम बंदूकधारी हत्यारों का बदला कमजोर, मामूली, असहाय लोगों, बच्चों, औरतों और बुजुर्गों से ले रहे हों. हर मुसलमान, जो हिंदू के साथ ऐसा करता हो, और हर हिंदू मुसलमान के साथ. जब हम दूसरों के बच्चों के साथ ऐसा बर्ताव करने लगें, जो हम अपनों के साथ नहीं चाहते।
उन नेताओं और मीडिया से अगर आप सावधान नहीं हैं, जो आतंकवादियों की ही नफरत, हिंसा, बंटवारे का जहर मेरे और आपके दिमाग में भर रहे हों. जिनकी जनपक्षधरता संदिग्ध हो. जो एक को दूसरे से ज्यादा महत्व देते हों. जो अमन के नहीं, बल्कि बदले के भाव को तूल देते हों. बदला, जो सबको अंधा कर देगा, कर रहा है. जब हम सच को उसकी अपनी रोशनी, वजन, अनुपात, प्राथमिकता नहीं देख पाते।
अगर आप अराजकता के तरफदार हों. जब आप देश के संविधान, अदालत, कानून, मनुष्यता को दरकिनार कर सब कुछ अपनी भावनात्मक उत्तेजना से तय कर लेना चाहते हों. जब आपका प्रोसेस पर यकीन उठ चुका हो. जब आप एक की सजा दूसरे को देने के तरफदार हों. जब आप दीवारें खड़ी करने के पक्ष में हों, न कि दरवाजे खोलने के।
जब आपने नौ में सारे रस छोड़कर सिर्फ झूठे वीर रस को अपना लिया है, जो दरअसल वीभत्स ज्यादा है. जो आपको दिखलाई नहीं दे रहा. अगर आप बहादुरी और मजबूती की असली और प्रामाणिक परिभाषाएं जानने के बजाय मीडिया और राजनीति की नकली नूराकुश्तियों के नशेड़ी हो चुके हों. आप खबरों में एंटरटेनमेंट हासिल करने लगे हों. जैसा डबल्यू डबल्यू एफ के नकली और फिक्सड मुकाबलों में होता है. अगर आप बिना तथ्य की जाँच किये, दूसरा पक्ष देखे–सुने, बिना उसका इरादा समझे, जो मिला उसी को सच मान रहे हों. अफीम जैसा भी हो, असल का, धर्म का या वीडियो गेम का, हमें बतौर व्यक्ति, नागरिक, और देश कमजोर ही करता है।
जब आप अपनी सरकार और नेता के कामकाज और रिकॉर्ड पर सवाल करना बंद कर देते हों. ऐसा करके आप इस देश को चलाने में अपनी हिस्सेदारी को तो छोड़ ही रहे हैं, बल्कि अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं. आप उस अराजकता को बढ़ाने के हिस्सेदार हैं।
अगर आप अपनी डिजिटल जिंदगियों के असर के बारे में लापरवाह हैं. अगर आपने कभी ब्रेन फॉग या ब्रेन रॉट के बारे में नहीं जानना चाहा. ‘ब्रेन रॉट’ का मतलब है, “किसी व्यक्ति की मानसिक या बौद्धिक स्थिति का कथित ह्रास, विशेष रूप से तुच्छ या अनचैलेंजिंग समझी जाने वाली सामग्री (अब विशेष रूप से ऑनलाइन सामग्री) के अत्यधिक उपभोग के परिणामस्वरूप देखा जाता है. साथ ही: ऐसी कोई चीज जिसे इस तरह के ह्रास की ओर ले जाने वाला माना जाता है.” ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के लिए यह 2024 का ‘वर्ड ऑफ द इयर’ था।
जब आपको क्रिकेट और बॉलीवुड से लेकर कश्मीर तक, पड़ोस से लेकर चुनाव आयोग तक, अदालत से लेकर पुलिस थाने तक मजहब के अलावा कुछ भी नहीं दिख रहा हो. जब आपको नौकरी, शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था, रोजी–रोटी के सवाल गौण लगने लगे हों. जब आप अच्छे संगीत की दाद चाह कर भी नहीं दे पा रहे हों तो. आप देख ही नहीं पा रहे कि कश्मीर के कितने लोग, कितने नौजवान वहां आने वाले लोगों की मदद के लिए, अमन के लिए और इंसानियत के लिए खड़े होते आये हैं।
अगर इन 12 बातों पर आपका जवाब नहीं में है, तो यकीन मानिये, आप आतंकवाद की तरफ नहीं हैं. और अगर हां में है तो आतंकवाद की कामयाबी में आपका भी हाथ है. आप खुद को बधाई दे सकते हैं।
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