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पत्रकार अभिषेक चौधरी की पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पर लिखी गई दो-खंडों की जीवनी का दूसरा और अंतिम भाग ‘बिलीवर्स डिलेमा’ उनकी विरासत का एक जटिल और गंभीर चित्र प्रस्तुत करता है। यह किताब वाजपेयी को केवल एक नरमपंथी और गठबंधन के नेता के रूप में नहीं, बल्कि संघ परिवार की हिंदुत्व परियोजना को सत्ता के केंद्र तक लाने वाले एक महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में देखती है।
चौधरी बताते हैं कि 2018 में वाजपेयी के निधन पर प्रधानमंत्री मोदी का नंगे पैर उनकी शवयात्रा के पीछे चलना सिर्फ़ व्यक्तिगत स्नेह नहीं, बल्कि एक सोचा-समझा पीआर भी था।
किताब में तर्क दिया गया है कि वाजपेयी ने हिंदुत्व संगठनों को वह सम्मान और वैधता दिलाई, जिसका वे 1947 से सपना देख रहे थे। उनके कार्यकाल में RSS और उसके सहयोगी संगठन एक “डीप नेशन” की तरह काम करने लगे, जिन्हें प्रशासनिक निकटता मिली। किताब .. अगर अटल न होते तो न मोदी पीएम होते न संघ को रास्ता मिलता
चौधरी ने भीष्म अग्निहोत्री जैसे व्यक्ति की अमेरिका में समानांतर दूत के रूप में नियुक्ति का उदाहरण दिया, जो दिखाता है कि कैसे संघ का नेटवर्क औपचारिक चैनलों को दरकिनार कर काम कर रहा था।
वाजपेयी के व्यक्तिगत करिश्मे ने DMK और नेशनल कॉन्फ्रेंस जैसी पार्टियों को भी NDA में ला खड़ा किया, जिससे BJP को एक विश्वसनीय सत्ताधारी पार्टी के रूप में स्थापित होने में मदद मिली।
किताब का एक महत्वपूर्ण तर्क यह भी है कि वाजपेयी के दौर में ‘आदर्श नागरिक’ की परिभाषा ‘स्वयंसेवक’ से बदलकर ‘निवेशक’ हो गई, जहाँ हिंदू राष्ट्रवाद और महत्वाकांक्षी पूंजीवाद का संगम हुआ।
2002 के गुजरात दंगों को चौधरी वाजपेयी के साहस की विफलता मानते हैं, न कि दृढ़ विश्वास की. वे मानते थे कि वे संघ को भीतर से बदल सकते हैं, लेकिन गुजरात ने उनके इस भ्रम को तोड़ दिया।
अंत में, चौधरी का मानना है कि यदि वाजपेयी आज जीवित होते, तो वे मौजूदा राजनीतिक माहौल से असहज तो होते, लेकिन अपनी वैचारिक परिवार के प्रति संकट के क्षणों में अपनी स्वाभाविक निष्ठा के कारण विद्रोह का झंडा नहीं उठाते।
किताब: Believer’s Dilemma: Vajpayee and the Hindu Right’s Path to Power, 1977–2018 लेखक अभिषेक चौधरी
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