कृष्ण प्रताप सिंह (वरिष्ठ पत्रकार )
हिजरी कैलेंडर के रमजान महीने (इस्लाम धर्म के अनुयायियों द्वारा जिसे सबसे मुक़द्दस यानी परम पवित्र माना जाता है) के आखिरी शुक्रवार को जुमातुलविदा भी कहा जाता है और इस दिन मस्जिदों में अलविदा की जो नमाज पढ़ी जाती है, उसे बेहद खास बताया जाता है.
लेकिन क्या आपको मालूम है कि यह शुक्रवार एक ऐतिहासिक कारण से न सिर्फ इस्लाम के अनुयायी भारतीयों बल्कि सारे देशवासियों के लिए बहुत स्मरणीय है? यों जिस तरह इस ऐतिहासिक कारण को भुला दिया गया है, ‘स्मरणीय है’ के बजाय ‘स्मरणीय हो सकता था’ कहना बेहतर होगा.
बहरहाल, अगर आप यह कारण जानते हैं तो बहुत अच्छी बात है और नहीं जानते, तो हम बताते हैं: यह शुक्रवार भारत की आजादी का दिन है. हिजरी कैलेंडर के मुताबिक उसकी वर्षगांठ.दरअसल, 1947 में 15 अगस्त को लंबे संघर्ष के बाद हमने अपनी सैकड़ों साल लंबी गुलामी का जुआ अपने सिर से उतार फेंका तो रमजान का सत्ताईसवां रोज़ा और आखिरी शुक्रवार था.
विभाजित मानसिकता
भले ही यह आजादी देश के बंटवारे की बिना पर लाखों-लाख लोगों के जान-माल से हाथ धो बैठने व दर-ब-दर होने के संत्रास से गुजरती हुई आई थी, अंतरिम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने ऐतिहासिक भाषण में उसके सिलसिले में ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ (नियति से साक्षात्कार) की जो बात कही थी, वह उस दिन जुमातुलविदा यानी अलविदा की नमाज पढ़ने वालों पर भी लागू होती थी. खासकर उनकी उस विभाजित मानसिकता पर, जिसके उन दिनों चहुंओर चर्चे थे.
इस मानसिकता के कारण जहां उनका एक हिस्सा महसूस कर रहा था कि रमजान के महीने में (जो कुरान नाजिल होने की शुरुआत का महीना है और जिसमें रोजा रहने के साथ ईश्वर के प्रति समर्पण और चिंतन के रास्ते अपने विश्वास को मजबूत और खुद को आध्यात्मिक रूप से विकसित किया जाता है.) की नेमत मिल जाने से उसकी खुशी दोगुनी हो गई है,
जबकि दूसरा मगन था कि ‘नेकियों का बसंत’ कहलाने वाले इस पवित्र महीने में उसे उसको वांछित पाकिस्तान हासिल हो गया है. कांग्रेस के कद्दावर नेता मौलाना अबुल कलाम आजाद के शब्दों में कहें तो यह हिस्सा हिजरत के पवित्र नाम पर पलायनवादी जीवन के चुनाव पर आमादा था, जो उसके लिए ऐतिहासिक आत्मघात सिद्ध होने वाला था. तब मौलाना ने जामा मस्जिद से आह्वान किया था कि वह यह आत्मघाती राह छोड़ दे और भारत में ही बना रहे, जहां उसके किसी बात की फिक्र करने की कोई वजह नहीं है, जिसका थोड़ा बहुत असर भी दिखा था.
इस स्थिति का एक पहलू यह भी था कि अलग-अलग कारणों से ही सही आजादी की खुशी से कोई भी महरूम नहीं था. अलबत्ता, इस खुशी पर बेकाबू सांप्रदायिकता का सर्वग्रासी ग्रहण भी लगा हुआ था.
इसीलिए तीन दिन बाद 18 अगस्त को ईद मनाई गई तो माहौल की बेचैनी (जो इस कारण बढ़ती जा रही थी कि देश का विभाजन कराने में सफल रही मुस्लिम लीग के नेता लगातार प्रचार कर रहे थे कि अब भारत हिंदू देश बन जाएगा, जिसमें मुसलमान रह ही नहीं पाएंगे) ने उसकी खुशियों को सिर्फ इस अर्थ में खुशियां रहने दिया था कि वह फर्ज थी.
हां, खुशी की एक बात यह भी थी कि बंटवारे ने भले ही दिलों में बहुत दूरियां पैदा कर दी थीं, जमीनी स्तर पर हिंदू मुस्लिम सद्भाव की जड़ें सलामत थीं. पाकिस्तान का अस्तित्व उन्हें पूरी तरह खोद नहीं पाया था. इसलिए देश में जहां ऐसे लोग थे, जिनके लिए शताब्दियों से साथ रहते और निभाते आ रहे मुसलमान एक झटके में पराये या बेगाने हो गए थे, वहीं ऐसे होशमंद लोग भी थे (और बहुत ज़्यादा थे) जो सारी कड़वाहट के बावजूद रिश्तों की कलाई एकबारगी मरोड़कर उन्हें बेमौत मार देने को तैयार नहीं थे. ये होशमंद आगे आकर मुसलमानों में यह विश्वास जगाने में लगे थे कि यह देश जितना बंटवारे के पहले उनका था, आगे भी उतना ही बना रहेगा और उन्हें इसको छोड़कर कहीं जाने की जरूरत नहीं है.
इतिहास के जानकार बताते हैं कि यह विश्वास पुख्ता करने के लिए कांग्रेस कमेटियां न सिर्फ देश व प्रदेशों की राजधानियों बल्कि देश भर के छोटे-बड़े ईदगाहों में जाकर ईद के आयोजनों का हिस्सा बनी थीं.
कलकत्ता में गांधी
कांग्रेस के कार्यकर्ता ईदगाहों में नमाज अदा करने पहुंचे लोगों से गले मिले थे, उनको मिठाइयां खिलाईं थीं और परंपरा से चले आते हिंदू-मुस्लिम सद्भाव की पुष्टि की थी. कहते हैं कि तब उनकी आंखें पूछती-सी लगती थीं कि इतने सुंदर देश को छोड़कर वे क्या पाएंगे भला और उनके पाकिस्तान जाने का हासिल क्या है?
लेकिन स्थिति का दूसरा अपेक्षाकृत जटिल पहलू भी था. देश के अनेक हिस्सों से आ रही मारो-काटो की खबरों से व्यथित महात्मा गांधी ने स्वतंत्र भारतीय संघ के पहले गवर्नर जनरल लुईस माउंटबेटन और अंतरिम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का 15 अगस्त को राजधानी दिल्ली में रहकर आजादी के जश्न में शामिल होने का अनुरोध ठुकरा दिया था और यह कहते हुए कलकत्ता (अब कोलकाता) चले गए थे कि वहां उनकी ज़्यादा ज़रूरत है, क्योंकि सांप्रदायिक हिंसा की बेकाबू लपटें वहां सब कुछ खाक कर देने पर आमादा हैं.
बीबीसी की एक रिपोर्ट के शब्द उधार लेकर कहें तो 14 अगस्त की रात जब भारत आज़ाद हो रहा था और नेहरू संसद के केंद्रीय हॉल में अपना ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ वाला ऐतिहासिक भाषण दे रहे थे, तीन दशकों से भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाला सबसे बड़ा नेता (यानी बापू) हैदरी मंज़िल के एक अंधेरे कमरे में फ़र्श पर गहरी नींद में सोया हुआ था.बहरहाल, महात्मा कलकत्ता गए तो वहां उनका हैवान बन गए इंसानों के जंगल और विकट सांप्रदायिक दावानल से सामना हुआ.
लेकिन वहां शांतिबहाली के उनके अनथक प्रयत्न रंग लाए तो ईद के दिन उन्होंने मोहम्मडन स्पोर्टिंग फ़ुटबॉल क्लब के मैदान पर प्रार्थना सभा आयोजित की. यह सभा प्रार्थना सभा के साथ-साथ ईद मिलन का समारोह का रूप भी थी, जिसमें जानी दुश्मन बन गए दोनों धर्मों के कोई पांच लाख लोग शामिल हुए.
उन दिनों के हिसाब से यह बहुत बड़ी संख्या थी. इस कारण और कि शहर में जो माहौल था, उसके कारण अंदेशे फैले हुए थे कि मुसलमान ठीक से ईद मना भी पाएंगे या नहीं. पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री पीसी घोष भी इस सभा में आए और उन्होंने दोनों धर्मों के बीच विश्वास बहाली के महात्मा के प्रयत्नों को हर तरह के सहयोग की बात कही.
सभा में महात्मा ने इस बात पर प्रसन्नता व्यक्त की कि हिंदू मुसलमान एक साथ ईद मना रहे हैं और मुख्यमंत्री घोष ने कहा कि हिंदू मुस्लिम एकता का यह प्रदर्शन सांप्रदायिक राजनीति की हार है.
इससे जो वातावरण बना, उसका देश के दूसरे अविश्वास पीड़ित व उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों में भी असर हुआ और अंततः मुस्लिम लीग तक ने माना कि कलकत्ता में शांति बहाल करने और भाईचारा बढ़ाने के महात्मा गांधी के निर्भय व ईमानदार प्रयासों से ह़ज़ारों मासूम लोगों की जान बच गई है. कांग्रेसजनों के साथ कई मुस्लिम सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ताओं ने भी ईद से जुड़े अपने आयोजनों में बारम्बार दोहराया कि यह ईद बहुत खास है, क्योंकि इसने हमारी गुलामी को हमेशा के लिए विदा कर दिया है और पहली बार यह स्वतंत्र भारत में मनाई जा रही है.
अब ऐसे बहुत कम लोग बचे हैं, जो देश के किसी भी कोने में उस ईद के साक्षी रहे हों, उसकी यादें साझा कर सकते और इस सवाल का जवाब दे सकते हों कि आगे चलकर ऐसा क्या हुआ कि आजादी के दिन के तौर पर पंद्रह अगस्त ही हमारी स्मृति में रह गया और रमजान की सत्ताईसवीं तारीख या कि उसके आखिरी शुक्रवार को भुला दिया गया? इसके पीछे राजकाज वाले कैलेंडर की केंद्रीयता ही एकमात्र कारण थी या कुछ और भी?
लेकिन उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक बस्ती जिले के एक छोटे से गांव में जन्मे शायर साहिल भारती (जिन्होंने फैजाबाद के मदरसों में पढ़ाते हुए ज़िंदगी काटी, जो इन पंक्तियों के लेखक के दोस्त थे और अब इस संसार में नहीं हैं) जब तक इस संसार में रहे, अपने दोस्तों से आजादी की उस पहली ईद से जुड़ी अपनी यादें उत्साहपूर्वक साझा करते रहे.
जब भी शहर में किसी कारण सांप्रदायिक तनाव, बदअमनी के अंदेशे, मुसलमानों के खलनायकीकरण अथवा ‘पाकिस्तान जाओ’ जैसी फुटानियों से उनका सामना होता, वे उस ईद की यादों का पिटारा खोलकर बैठ जाते तत्कालीन इतिहास को जीवंत कर देते.
बताते कि देश बंट गया तो उनके दादा गहरी चिंता में डूब गए कि क्या करें, बस्ती में जहां पैदा हुए और पले-बढ़े, वहीं बने रहें या पाकिस्तान चले जाएं? बने रहें तो लगातार खराब होते जा रहे माहौल को कैसे सहें और पाकिस्तान जाएं तो कैसे जाएं, गांठ के पूरे भी तो नहीं हैं, पैसे कौड़ी भी तो नहीं हैं. फिर हिजरत में कुछ बुरा बीता तो क्या करेंगे, उससे कैसे पार पाएंगे? क्या पता पाकिस्तान में कहां ठिकाना पाएंगे?
एक थाली में खा लेंगे, जाने न देंगे
एक दिन इसी चिंता में घर में चूल्हा भी नहीं जला और पड़ोसियों को खबर हुई तो उन्होंने गांव के और लोगों को भी बता दिया. फिर तो साथ ग्रामवासी मिलकर आए और बोले, ‘मन मैला मत करो मियां और न बेवजह चिंता में घुलो. मजे से ईद मनाओ और सिंवई पकाओ. घर में किसी चीज़ की कमी हो तो बताओ.’
दादा कुछ नहीं बोले. उनकी आंखें भर आईं तो अम्मा उन्हें संभालने लगीं. तभी उनके मुंहबोले पंडित दादा ने आगे बढ़कर उनके कंधे पर हाथ रखा और बोले, ‘माहौल से मत घबराओ मियां. जरूरत पड़ेगी तो हम तुम्हारे साथ एक थाली में खा लेंगे, लेकिन तुम्हें बिछड़ने नहीं देंगे!’
इतना सुनाकर साहिल ‘पाकिस्तान जाओ’ की फुटानियां बोलने वालों से पूछते, ‘अब दो पुश्तों के बाद तुम हमको पाकिस्तान भेजना चाहते हो तो क्या हमारे पुरखों को ही लजा रहे हो, अपने नहीं?’ फिर तो फुटानियां बोलने वाले मुंह छिपाने लगते.
एक दिन किसी कमजोर क्षण में उन्होंने इस लेखक से कहा था, ‘तुम्हें एतबार नहीं होगा, बंटवारे के बावजूद उस वक्त मुसलमान आज जितने बेगाने नहीं हुए थे. न ही इतने खलनायक बने थे. …उस वक्त उन्हें वहां (पाकिस्तान) बुलाने और ले जाने वाले थे तो यहां रोकने और हरगिज न जाने देने की बात कहने वाले भी. मगर आज यहां ‘पाकिस्तान जाओ’ के नारे सुनने पड़ते हैं और जो पाकिस्तान चले गए हैं, उन्हें मुहाजिर कहलाना पड़ता है. वह दौर था, जब देश बंट जाने के बावजूद त्योहारों का बंटवारा नहीं हुआ था, ईद हो, दशहरा, होली या दीवाली, सब लोग मिलकर मनाते थे.’
आज होते तो कौन जाने, अपनी बात में इतना और जोड़ते कि अब तो होली रमजान में किसी जुमे के रोज पड़ जाए तो उसके बहाने भी दूरियां बढ़ाने वाले बवाल किए जाने लगते हैं. घर में कैद रहने को कहा जाने लगता है.
भारत के मुसलमां
प्रसंगवश, बंटवारे के वक्त उर्दू के एक के खासे मकबूल शायर थे जगन्नाथ आजाद, जिन्होंने जिन्ना के अनुरोध पर पाकिस्तान का पहला कौमी तराना लिखा था, क्योंकि जिन्ना उसे किसी मुस्लिम शायर से नहीं लिखाना चाहते थे. आजाद ने भारत के मुसलमानों को भारत में उनके भविष्य के प्रति आश्वस्त करते हुए ‘भारत के मुसलमां’ शीर्षक एक लंबी नज्म लिखी थी, जिसमें कहा था कि ‘तुलसी का दिलावेज़ तराना है तेरा भी…/जो कृष्ण ने छेड़ा था फ़साना है तेरा भी…मेरा ही नहीं है ये खज़ाना है तेरा भी!’
इस नज़्म की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं:
इस दौर में तू क्यूं है परेशान-ओ-हिरासां/क्या बात है क्यूं है मुतज़लज़ल तेरा ईमां/दानिश-कदा-ए-दहर की ऐ शम-ए-फ़रोज़ां/ऐ मतला-ए-तहज़ीब के ख़ुर्शीद-ए-दरख़्शां!/हैरत है घटाओं में तेरा नूर हो तरसां/भारत के मुसलमां!
तू दर्द-ए-मोहब्बत का तलबगार अज़ल से/तू मेहर-ओ-मुरव्वत का परस्तार अज़ल से/तू महरम-ए-हर-लज़्ज़त-ए-असरार अज़ल से/विर्सा तेरा रानाई-ए-अफ़कार अज़ल से/रानाई-ए-अफ़कार को कर फिर से ग़ज़ल-ख़्वां/भारत के मुसलमां!
हाफ़िज़ के तरन्नुम को बसा कल्ब व नज़र में/गुज़री हुई अज़मत का ज़माना है तेरा भी/रूमी के तफ़क्कुर को सज़ा कल्ब व नज़र में/तुलसी का दिलावेज़ तराना है तेरा भी/साअदी के तकल्लुम को बिठा कल्ब व नज़र में/जो कृष्ण ने छेड़ा था फ़साना है तेरा भी/दे नग्म ए खय्याम को जा कल्ब व नज़र में/मेरा ही नहीं है ये खज़ाना है तेरा भी/ये लहन हो फिर हिंद की दुनिया में पुर अफ़शां
छोड़ अब मेरे प्यारे गिल-ए-तन्गी का ये दामां/भारत के मुसलमां.मज़हब जिसे कहते हैं वो कुछ और है प्यारे/नफ़रत से परे इसका हर इक तौर है प्यारे/मज़हब में तअ’स्सुब तो बड़ा जौर है प्यारे/अक़्ल-ओ-ख़िरद-ओ-इल्म का ये दौर है प्यारे/इस दौर में मज़हब की सदाक़त हो नुमायां/भारत के मुसलमां!
निस्संदेह, आज देश में नफ़रत और अविश्वास भरे जो हालात बना दिए गए हैं, वे फिर से मुसलमानों को इसी आश्वस्ति के साथ संबोधित करने की मांग करते हैं. सांप्रदायिक ताकतें हमें जिस तरह रोज-रोज धमकाने लगी हैं, उसके मद्देनजर हमें और अधिक अंतर-सांप्रदायिक संवादों व समारोहों की आवश्यकता है.
यह याद रखने की भी कि रमजान, जुमातुलविदा और ईद केवल इस्लामी नहीं, हमारी स्वतंत्रता और राष्ट्रीय एकता का उत्सव भी हैं. आखिरकार नेहरू जिस ‘नियति से साक्षात्कार’ की बात कह गए हैं, उसने कुछ सोच-समझकर ही हमारी आजादी का रमजान और उसके जुमातुलविदा से मेल कराया होगा!
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