अब चोरी पकड़ी गई, तो क्या कुछ किया जाना चाहिए? बीस बिंदू
निधीश त्यागी | (बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक )
राहुल गांधी ने आज फिर साबित कर दिया कि जिस लोकतंत्र और संविधान की बुनियाद पर भारत खुद को खड़ा समझ रहा है, वह अपनी जगह से खिसक और धसक चुकी है. आप उसका वीडियो और उस पर आ रही ख़बरों से अपने निष्कर्ष खुद निकाल सकते हैं. पर सवाल यह है कि इस भंडाफोड़ के बाद आप और हम, ये देश, इसके राजनेता, इसकी पार्टियां, इसकी सरकार, हमारे संस्थान क्या कर सकते हैं.
एक चीज होती है ग़ैरत. आत्मसम्मान जैसा, पर कुछ उससे ज्यादा. थोड़ी भी ग़ैरत होगी इस देश की सरकार में, प्रधानमंत्री में, गृहमंत्री में, चुनाव आयोग में, सर्वोच्च न्यायालय में, तो राहुल गाँधी की बातों को गंभीरता से लेते हुए कार्रवाई करेंगे. अगर वह झूठ है, तो राहुल गाँधी को सज़ा के इंतजाम करने चाहिए.
पर अगर वह सच है, तो लोकतंत्र, संविधान, नागरिक अधिकार, मतदान को लेकर सवाल, संशय और सरोकारों को लेकर एक निष्पक्ष और स्वतंत्र समीक्षा करवाने का गूदा दिखाना चाहिए. अगर गूदा है तो. दिखाना चाहिए.
नहीं दिखाते हैं, जिसकी उम्मीद है और अभी तक का रिकॉर्ड भी, तो फिर वह राहुल के ही आरोपों, दलीलों का समर्थन कर रहे हैं, कि वोट चोरी के जरिये, लोकतंत्र की लंपट झपटमारी में वे सब शामिल है. कुछ सीधे. कुछ चुप रह कर.
चुनाव आयुक्तों को इस्तीफ़ा देना चाहिए. नहीं तो उनसे ले लेना चाहिए. वे न सिर्फ फ़्री और फ़ेयर चुनाव करवाने में असमर्थ रहे. बल्कि उन्होंने सरकार और भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में डंडी मारने का खुले आम काम भी किया. पूरे देश को आश्चर्य करना चाहिए कि ज्ञानेश इस कुर्सी पर क्यों बैठा हुआ है.
हरियाणा सरकार को अपने अवैध होने पर शर्म तो नहीं आएगी, पर उसका इंतेजाम किया जाना चाहिए. हरियाणा के लोगों, नेताओं, पार्टियों, संगठनों को इस इंतेजाम के लिए आगे आना चाहिए. शांतिपूर्ण तरीकों से चाहे वह सड़क पर हो, विधानसभा में हो, अदालतों में हो. नसीब को बदलना चाहिए. मुख्यमंत्री हो या हरियाणा.
नरेन्द्र मोदी को इस पर भी मन की बात कहनी चाहिए. देश को उनसे इस फरमाइशी प्रोग्राम के लिए अपनी रिक्वेस्ट भेजनी चाहिए.
अपनी कुर्सियों में धँसे हुए सुप्रीम कोर्ट और दूसरी अदालतों के जजों को अपने धूल खाते संविधान और दूसरी क़ानूनी किताबों को झाड़ पोंछ कर अपने रिटायरमेंट पोस्टिंग और बेनेफिट सोचने की बजाय आईनों में खुद से निगाह मिलाने की कोशिश करनी चाहिए ये तय करने के लिए कि वे किस तरफ हैं. संविधान, नागरिक, मतदाता, लोकतंत्र की तरफ़ या फिक्स्ड मैच के मिलावटी रेफ़री की तरह भ्रष्ट सरकार की तरफ.
वकीलों को इस देश की विकलांग अदालतों में याचिकाओं के ढेर लगाने चाहिए, ताकि अदालतें इस मुल्क की सच्चाई से मुँह चुराना भी चाहें, तो कोई कोना न मिले.
कांग्रेस पार्टी को वैसे ही वापस गांधी की तरफ जाना चाहिए, जैसा वह आज़ादी के पहले गई थी. उन्हीं तरीकों के साथ, जैसा महात्मा ने अपनाए थे. सत्याग्रह का इससे ज्यादा मुफ़ीद और जरूरी मौक़ा और कौन सा हो सकता है?
अगर अब भी वह खुद को आंदोलन में नहीं बदल पाती है, तो हमें समझना पड़ेगा कि भारत अपनी नियति में ग़ुलामी के कैंसर से तो मुक्त हुआ, पर जो कैंसर लोकतंत्र और संविधान को आज़ाद भारत में इस सरकार, सत्तारूढ़ पार्टी और उसके संघी गुरूओं ने लगाया है, वह लाइलाज है, जो देश को ख़त्म कर देगा, कम से कम उस तरह से जैसा हम जानते समझते थे.
संघ और भारतीय जनता पार्टी के लोगों को भी समझना होगा कि वे इस लूट पर आखिर कब तक चुप रहना और सच के बगल से निकलना चाहते हैं. क्या मोदी भारत से बड़ा है? क्या सत्ता के लिए चाल, चरित्र, चोला सिर्फ इस बदचलनी के लिए बचा कर रखा था?
वे सारे नौकरशाह जो इस प्रक्रिया में शामिल रहे, क्योंकि इतनी बड़ी डकैती न अकेले केंचुआ के बस की है, न मोदी सरकार की, उन्हें ये सोचना चाहिए कि किस किताब की शपथ लेकर, किस देश के लिए प्रतिबद्धता जताकर वे इस जुर्म में शरीक हुए हैं. और ये कॉन्फीडेंस उनमें कहां से और कैसे आया कि उनकी चोरियां पकड़ी नहीं जाएँगी.
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को संविधान के साथ इस खुले आम, दिन दहाड़े हो रही नंगई और गुंडई का संज्ञान लेते हुए बजाय आलतू फालतू बातों पर प्रेस विज्ञप्तियां जारी करवाने के ये तलाशना चाहिए कि लोकतंत्र का चीरहरण करती सरकार, उसके संवैधानिक संस्थान, सत्तारूढ़ पार्टी की आपराधिक संलिप्तता पर कैसे लगाम कसी जाएगी.
मोहन भागवत के पास संघ के सौवें साल एक बेहतरीन मौका है कि वे भारत माता, उसकी अखंडता, एकता के लिए बजाय पंचगव्य के अब ऐसा कुछ कहें, करें जिससे लोग कह सकें कि संघ बेगैरत संस्थान नहीं है. आख़िर हर साधु का अतीत होता है, हर शैतान का भविष्य. ये साबित करने की शुभ घड़ी और क्या हो सकती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सचमुच इस मुल्क से प्यार करता है, भारत माता का सम्मान करता है, और उसके लिए कोई भी त्याग, समर्पण और बलिदान कर सकता है. सिर्फ़ डॉक्टर भागवत ही क्यों यह बात तो हर स्वयंसेवक के लिए लागू होती है.
वे सारे लोग जो दीन और धर्म की बात करते हैं. जो धर्माचार्य हैं, मठाधीश हैं, जो खुद को ईश्वर और जनता के बीच का पुल समझते हैं, नैतिकता के ठेकेदार बनते हैं, उन सबका वक्त आ गया है. कि साफ़ करें कि ईश्वर उनसे क्या कह रहा है? कहने को. करने को.
विपक्षी दलों को लामबंद होना चाहिए क्योंकि उनका भी नंबर आएगा. आ रहा है. आ चुका है. वे चुन सकते है कि किस तरह उनको इसका सामना करना है. अकेले, अलग रह कर, चुप रह कर, बगल से निकल कर या फिर देश की आत्मा को बचाने के लिए सच का सामना कर.
ये बात भारतीय जनता पार्टी के एनडीए के घटक दलों पर और भी ज्यादा लागू होती है. जब इतिहास उनसे पूछेगा कि तुम क्या कर रहे थे, जब मुमकिन मोदी भारत के लोकतंत्र का चीर हरण कर रहे थे? ये जवाब कितना शर्मनाक होगा कि हम बग़ल में खड़े होकर चीयरलीडरों की तरह फुंदने हिलाते हुए जयजयकार कर रहे थे. नायडू और नीतीश, उनकी पार्टी के लोग, उनके समर्थकों के लिए ये सवाल लाजिमी है.
बॉलीवुड के सितारों और क्रिकेट के खिलाड़ियों को भी सरकारी फरमाइश पर भौंडे नाच, घटिया ट्वीट और सोशल मीडिया करने से अब मना करना चाहिए. उनके साथ उन सारे लोगों को भी जो संस्कृति, साहित्य से जुड़े लोग हों. जैसे आज की शाम से ही बड़े मीडिया के प्राइम टाइम ज़मूरों को राहुल गाँधी के अकाट्य तथ्यों से मुँह चुराना बंद करना चाहिए.
इस देश के लोगों को हर मुमकिन प्लेटफ़ॉर्म तलाशने चाहिए, जहां उनके मताधिकार के साथ हो रहे दमन, हनन के ख़िलाफ़ वे आवाज उठा सकें. उन्हें सरकार, सत्ता, चुनाव आयोग, भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस को कठघरे में खड़ा करना चाहिए. ये साबित करने के लिए कि ये देश नरेन्द्र मोदी से बहुत ज्यादा बड़ा है. कि यह लोकतंत्र और आज़ादी एक बड़ी विरासत है, जिसके हम सब लाभार्थी हैं. और उससे खिलवाड़ करने की इजाजत किसी को नहीं है. न चुनाव आयोग को. न नरेन्द्र मोदी को.
आज के राहुल गांधी के उस प्रजेंटेशन के बाद कई पत्रकार ये पूछते हुए दिखे कि अब वे क्या करेंगे? टीम राहुल ने ये काम कर दिया कि वोट चोरी हुई है, और उसके चौकीदार चोर हैं. अब ये देश और उनके रहवासियों को तय करना है कि वे इसके साथ क्या करना चाहते हैं.
अगर इनमें से सारे या कुछ या बहुत ये सब नहीं कर सकते, तो समझ लीजिए कि गुलिस्ताँ बरबाद हो चुका है. हमें लोकतंत्र और संविधान दोनों के बाद के भारत को अपनी मजबूर नियति मान लेना चाहि
