AAMIR KHAN INTERVIEW-दिमाग का तंतु बिना मेहनत के ही जरा में सक्रिय होकर कह रहा -मजा आ गया

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आमिर ख़ान से यह ख़ास बातचीत उनकी रिलीज हुई फ़िल्म ‘सितारे ज़मीन पर’ के सेट पर हुई थी।

अजय ब्रह्मात्मज

पिछले 25 सालों में सिनेमा तो काफी बदल गया है। अब यह बदलाव अच्छे के लिए है

या तबाही के लिए है? आप क्या सोचते हैं?

इस वक्त सिनेमा का हाल देखें तो बहुत सारी बातें दिमाग में घूमती हैं। हम थिएटर को मास मीडियम समझते रहे। हम यही कहते रहे कि सिनेमा मास मीडियम है। हर आदमी फिल्म देखने के लिए टिकट खरीदता था और उसके लिए कुछ पैसे खर्च करता था। अब ऐसा नहीं है। मजदूर तबका अब थिएटर जा ही नहीं रहा है। इस तथ्य से मैं खुश नहीं हूं। मैं चाहता हूं कि मेरी फिल्म मजदूर तबके के बीच पहुंचे।
आम दर्शकों के बीच उनकी जेब के मुताबिक पहुंचे। 25 सालों की यह सबसे बड़ी तब्दीली है कि मांस मीडियम का प्रोडक्ट मास के लिए नहीं रह गया है। आज थिएटर में जाकर फिल्म देखने का मतलब है एक मोटी रकम खर्च करना। ढेर सारे तकनीकी बदलाव आ गए हैं। फिल्म मेकिंग बहुत बदल गई है। विजुअल इफेक्ट से आप कुछ भी दिखा सकते हैं। अब तो सोच की सीमा है। पर्दे पर उसे लाने में कोई दिक्कत नहीं है।
आप जो सोच सकते हैं, वह पर्दे पर लाया जा सकता है। अपनी हर कल्पना को पर्दे पर उतार सकते हैं। कुछ चीजें बहुत अच्छी हो गई है और कुछ चीजें ठीक नहीं भी हुई है। हमेशा यह एक प्रक्रिया होता है। क्रिएटिविटी के हिसाब से सोचें तो जब मैं फिल्मों में आया था तब मेनस्ट्रीम में एक ही तरह की फिल्में बनती थीं। एक किस्म की तो नहीं कहूंगा लेकिन दायरा बहुत संकीर्ण था। ज्यादा इधर या उधर गए तो वह मेनस्ट्रीम नहीं रह जाएगा।
मैं हमेशा उस संकीर्ण पथ को चुनौती देता था। मैंने अपने करियर में हमेशा उस कांसेप्ट को चैलेंज किया है। बहुत सोच समझ कर मैंने ऐसा कुछ नहीं किया था, लेकिन मेरा चुनाव ऐसा होता था कि कुछ अलग परिणाम आते थे। बाकी लोगों का चुनाव अलग होता था।
मेरा चुनाव बिल्कुल अलग होता था। मैं नोटिस कर पाता हूं कि मेरा चुनाव हमेशा मेनस्ट्रीम सिनेमा से अलग ही रहा है। मेनस्ट्रीम की परिभाषा को मैंने चुनौती देने की हर संभव कोशिश की है। यह मैं किसी जिद के तहत नहीं करता रहा। अब जैसे कि ‘तारे जमीन पर’ मुझे पसंद है, लेकिन मैं हरगिज नहीं चाहूंगा कि उसे केवल दो लोग देखें। चाहूंगा कि देश का हर आदमी देखे।
सभी पर उसका असर हो। उस फिल्म को ऐसे बनाओ कि हर दर्शक पर उसका असर हो। अगर आप किसी निर्माता को यह बताएं कि डिस्लेक्सिया से पीड़ित एक बच्चे पर फिल्म बनानी है तो उसका पहला सवाल यही होगा कि डिस्लेक्सिया होता क्या है? और फिर अगर आपने बता दिया तो वह पूछेगा कि इस फिल्म की जरूरत क्या है? क्यों नहीं एक रोमांटिक फिल्म बनाओ। फाइट, एक्शन और गाने डालो।
कहां तुम बच्चे की लर्निंग डिसेबिलिटी पर फिल्म बना रहे हो। क्या कोई डॉक्यूमेंट्री बना रहे हो?आप देखें की मेनस्ट्रीम की संकीर्णता अब नहीं रह गई है। उसमें काफी विस्तार आया है। मुझे अपने समय में कोई दूसरा ऐसा नजर नहीं आ रहा है। ‘लगान’ के पहले के मेरे करियर के 10 सालों में तो मुझे कोई नजर नहीं आता। ‘
कोई भी अलहदा काम करता नहीं दिखता। आपको कोई याद आए तो मुझे जरूर बताइए। 21वीं सदी में आए निर्देशकों में अनुराग कश्यप, अनुराग बसु और ढेर सारे युवा निर्देशक असामान्य विषयों की तलाश में दिखाई पड़े।
वे अलग-अलग शहरों से मुंबई आए। उनके पास अलग-अलग कहानियां थीं। उन्होंने उन कहानियों पर फिल्में बनाई। उन सभी के पास एक सिनेमाई भाषा है और उनके पास कुछ बताने के लिए है। पिछले 25 सालों में यह काफी दिखाई पड़ा है। आज की तारीख में ’12th फेल’ भी मेनस्ट्रीम है। 20 साल पहले हम इस पर सवाल कर देते। ये फिल्में अलग हैं और कामयाब भी हुई हैं। दर्शकों का नजरिया बदला है। निर्देशकों की सोच बदली है। उनमें अलग-अलग विषय उठाने की परिपक्वता आई है।

मुझे लगता है कि नए निर्देशक बहुत जल्दी चूक गए? ऐसा लगता है कि इनके पास कहने के लिए

नया कुछ नहीं है या फिर इनकी सृजनशीलता खत्म हो गई।

इस सवाल का जवाब में ऑन रिकॉर्ड नहीं दे पाऊंगा। मैं सच बोलूँगा और सच सुनने पर मुझे इंडस्ट्री से बाहर कर दिया जाएगा।
शुरू-शुरू में जब कॉर्पोरेट आए। वह मुझे भी मिलने आए कि आप क्या रिकमेंड करेंगे? मैंने उनसे यही कहा कि आप सब लोग एलए(लॉस एंजेल्स) जाइए और वहां से राइटिंग का कोर्स करके आइए। मैंने उन्हें यही कहा कि आपको तो स्क्रिप्ट सेलेक्ट करनी है ना? आपकी समझ में तो आए कि राइटिंग क्या होती है? कैरेक्टर कैसे बिल्ड होता है? प्लॉट कैसे लॉक होता है? स्क्रिप्ट की समझ नहीं होगी तो आप उसे सुनकर कैसे ग्रीन लाइट करेंगे? आपको लिखने की जरूरत नहीं है, लेकिन आपको लिखाई की समझ होनी चाहिए। जब तक आप वह नहीं करेंगे, तब तक आप केवल अनुमान से काम करेंगे। उसमें कभी आप सफल हो जाएंगे और ज्यादातर असफल रहेंगे।
मेरा ट्रैक रिकॉर्ड इतना अच्छा क्यों है? आप पलट कर देख लीजिए। मेरी 80% फिल्में सफल हैं। मैं तो 90% कहूंगा, क्योंकि उसमें ‘ठग्स ऑफ हिंदुस्तान’ भी आती है। मैं सख्त खिलाफ था ‘ठग्स ऑफ हिंदुस्तान’ के। जो ओरिजिनल कहानी विक्टर ने मुझे सुनाई थी, वह तो बनी ही नहीं। उसे अमित जी ने बदलवाया। आदित्य ने बदलवाया। उन बदलावों से मेरी भी सहमति थी। अपने आप को मैं उसे हटानहीं रहा हूं।
जब फिल्म बनकर सामने आई(जिसे फर्स्ट कट कहते हैं वह फिल्म रिलीज होने के 1 साल पहले आई) फर्स्ट कट देखकर ही मैंने कहा कि यह फिल्म एक दिन नहीं चलेगी। क्योंकि हम स्ट्रक्चरली गलत हैं। मेरी भी गलती है कि मैं उन सभी से सहमत था। मैंने कहा भी कि उस समय मैं आपके बदलावों से सहमत था। जब पूरी फिल्म सामने आई तब लगा कि स्ट्रक्चरली हम गलत चले गए। तब भी सुधारा जा सकता था, लेकिन निर्माता और निर्देशक मेरी बात सुनें तब ना? मेरी निराशा यह थी कि मैं वैसे दो लोगों को समझा रहा था, जो फिल्म को सही समझ रहे थे।

यह तो आम समस्या है?

हमारे यहां अधिकांश लोगों को काम ही नहीं आता है। यही सच्चाई है। सबको कच्चा-कच्चा काम आता है। आप जिस फील्ड में काम कर रहे हैं, उसकी समझदारी का ना होना अछि बात तो नहीं है।
फिल्म मेकिंग में हम अपने मशहूर निर्देशकों को छोड़कर ग्लोबल हुई दुनिया के प्रभाव में आकर अपनी भारतीय कहानी और भावनाओं को व्यक्त करने में भटक गए हैं? आजकल के संवाद सुनाई ही नहीं पड़ते। और इसे नैचुरल संवाद अदायगी के नाम पर बढ़ावा दिया जा रहा है। अब तो किरदारों के नाम भी याद नहीं रहते।
कैसे याद रहेंगे? किरदारों को अच्छी तरह गढ़ा और दिखाया नहीं जाता। ‘जो जीता वही सिकंदर’ के संजय लाल को याद करें। आपको पता है कि संजय लाल कैसा है” उसे गढ़ने में लेखक ने मेहनत की है। वह आपकी यादों में रह जाता है।

क्या यह हॉलीवुड की नकल नहीं है?

हॉलीवुड सारी दुनिया से कहीं बहुत आगे हैं। वहां फिल्मों के लेखन पर पूरा ध्यान दिया जाता है। वहां फिल्मों के लेखन पर ज्यादा जोर दिया जाता है। इंस्टिट्यूट में भी यही पढ़ाते हैं। वहां के फिल्ममेकर अपने इंस्टिट्यूट से यह सब सीख कर निकलते हैं। यहां और वहां में यह बहुत बड़ा फर्क है।

हमारे यहां सिनेमा की जो स्थिति बन गई है, उससे हम कैसे निकलेंगे? एक व्यवस्थित

अभियान चलाया गया है फिल्म इंडस्ट्री के खिलाफ, जिसमें वे कामयाब हो गए हैं। कहा जाता है कि फिल्म इंडस्ट्री के लोग राष्ट्रविरोधी हैं।

इन सब चीजों पर कमेंट करना बहुत मुश्किल है मेरे लिए। मैं कैसे कमेंट करूं?

आपका यह कहना वाजिब है की फिल्मों की थिएटर और ओटीटी रिलीज का अंतर ज्यादा होना चाहिए।

इस मामले में मेरे विचार स्पष्ट हैं और ये कई सालों से हैं। पहले ओटीटी आया, फिर कोविड आया। फिर कोविड की वजह से ओटीटी पर फिल्में फौरन आने लगी। कोविड के पहले 6 महीने का गैप होता था। 6 महीने का वह गैप दक्षिण में बदलकर चार हफ्ते का हो गया।
मुंबई में 6 हफ्ते से 8 हफ्ते हैं। फिल्म नहीं चलती है तो दो हफ्ते में भी आ जाती है। अब यह जो बिजनेस मॉडल है, वह किसी भी प्रोडक्ट को लेकर ग्राहकों के लिए इतना सस्ता और आसान हो गया है कि कोई भी उसे तत्काल नहीं खरीदना चाहेगा।
अगर आप कम कीमत में उसे घर तक पहुंचा दे रहे हैं तो वह थोड़ा इंतजार कर लेगा। दर्शकों को लग रहा है कि ओटीटी मुफ्त में मिल रहा है या कम कीमत में मिल रहा है, लेकिन आप तो उसके पैसे पहले दे चुके हैं। आपने मेरी आने वाली फिल्में भी खरीद ली हैं। बताइए यह कोई बिजनेस मॉडल हुआ?
यह तो अभी भी कुछ दर्शकों का जुनून है कि कुछ फिल्में हिट हो जा रही हैं। यह बिजनेस मॉडल इतना दोषपूर्ण है। लोग जब मुझसे पूछते हैं कि फिल्में क्यों नहीं चल रही है तो मैं हंस देता हूं और पूछता हूं कि आपको पता नहीं चल रहा है क्यों नहीं चल रही है? इस बिजनेस मॉडल की वजह से नहीं चल रही है। एक दो फिल्मों का उदाहरण छोड़ दीजिए। ज्यादातर फिल्मों का हाल देखिए।

फिर क्या उपाय है?

अगर आपको सिनेमाघर के बिजनेस पर ध्यान देना है तो इस बिजनेस मॉडल को छोड़ना पड़ेगा। इसका कोई और इलाज नहीं है मेरे हिसाब से।

तो क्या हम मान कर चलें कि आपकी फिल्म एक गैप के बाद ओटीटी पर दिखेगी?

मेरी यही कोशिश है। मैं थिएटर प्रेमी हूं। मैं चाहूंगा कि मेरी फ़िल्में थिएटर में आएं। मैं यह भी चाहूंगा कि देश में हजारों और थिएटर हों और वे दर्शकों की जेब के अनुकूल हों। कम आमदनी के दर्शक भी फिल्में देख सकें। टिकट किफायती दर पर होगा तो वे देख पाएंगे।
यूएफओ के संजय गायकवाड़ ने कभी मुझे बताया था कि वे 10,000 स्क्रीन बनाएंगे। खासकर उन जिलों में जहां एक भी स्क्रीन नहीं है। मैं उनको काफी प्रोत्साहित कर रहा हूं कि आप यह कीजिए। ऐसा होगा तभी सिनेमा फिर से मास मीडियम बनेगा। तभी कम कमाई के दर्शक भी छाती ठोक कर थिएटर में घुसेंगे।

अभी तो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की श्रद्धांजलि लिखी जा रही है?

अभी हम जो यहां बातें कर रहे हैं, कुछ महीने पहले अमेरिका में चल रही थी। सबसे पहले थिएटर एसोसिएशन के प्रमुख ने बयान दिया। उन्होंने थेटर और ओटीटी पर फिल्में रिलीज़ करने में गैप बढ़ने की बात की। उनकी बातें जाहिर सी बात है कि अमेरिका के संदर्भ में चल रही थीं। दर्शकों की कमी की तकलीफ सिर्फ भारत में नहीं है, हर जगह हो रही है। उन्होंने कहा कि ओटीटी का विंडो बड़ा होना चाहिए। यानी फिल्में देरी से ओटीटी पर आएं। इस पर नेटफ्लिक्स के हेड ने कहा कि आप गैप बढ़ाना चाहते हैं, लेकिन जो ट्रेंड चल रहा है उस हिसाब से 10 सालों के बाद थिएटर रहेंगे ही नहीं। उसने साफ शब्दों में कहा है कि 10 सालों में थिएटर का धंधा खत्म होने वाला है।

मुझे भी लगता है कि थिएटर धीरे-धीरे गायब हो जाएंगे।

यह गहरी विवेचना की बात है। 2005 में स्मार्ट फोन आया। स्मार्ट फोन आने के बाद से इंसान बदल चुका है। इस फोन में पूरी दुनिया समा गई है। मेरे हाथ में स्मार्ट फोन हो और मैं घर से नहीं निकलूं तो भी मेरा पूरा दिन आराम से निकल जाएगा। इसमें इतनी चीज हैं देखने, पढ़ने और सीखने की।

कोविड में तो हम इसी के भरोसे रहे।

आज की तारीख में घर से निकलने की जरूरत ही नहीं है। मुझे जो कुछ भी चाहिए फोन पर आर्डर कर सकता हूं। कपड़े, जूते, खाने-पीने के सामान, मेडिकल जांच… सब कुछ तो फोन के जरिए किया जा सकता है। अभी तो हर विषय पर ऑनलाइन क्लासेस है। यह चीज इतनी भयानक है। इसके आने से मनुष्य बदल गया है।
मैं उदाहरण देकर बताऊंगा कि कैसे बदला है? एक वक्त था जब मेरी फ़िल्में देखते वक्त दर्शक उससे बंधे रहते थे। बंधने का मतलब क्या है कि दर्शक का पूरा ध्यान फिल्म के ऊपर है। और कहीं ध्यान नहीं है। अगर बुरी फिल्म है तो बुरी लग रही है। अच्छी फिल्म है तो अच्छी लग रही है। ध्यान एक ही तरफ है, क्योंकि एक ही चीज चल रही है और वह पर्दे पर फिल्म का होना। आज का दर्शक घर में फिल्म देखे या सिनेमाघर में फिल्म देखे।
फिल्म देखते वक्त भी उसके हाथ में पूरी दुनिया है। उसने फिल्म शुरू होने के पहले अपना फोटो डाला है फेसबुक पर और अब वह बेताब है जानने के लिए कि उसे कितने लाइक मिले हैं? इंस्टा हो सकता है। एक्स हो सकता है। सोशल मीडिया का और कोई प्लेटफार्म हो सकता है। एक जमाना था कि जब मैं आपको कहानी सुना रहा हूं तो आपका पूरा ध्यान मेरी कहानी पर होता था। अब मेरी कहानी के साथ-साथ बहुत सारी चीजें दिख रही हैं और वह भी रंगीन।
आपका ध्यान बार-बार उन रंगीनियों पर जा रहा है। अब मैं अपनी कहानी बंटे हुए दर्शक को सुना रहा हूं। अब वह बंधा हुआ दर्शक नहीं है, इसलिए कहानी सुनाते वक्त अब मुझे अपना तरीका बदलना पड़ेगा। अब मुझे कोशिश करनी होगी कि आपका ध्यान मेरी तरफ ही रहे। कहानी के प्रति आपका खिंचाव बना रहे। उसके लिए हमें कॉन्सेप्ट फिल्म लेकर आना होगा। ‘लापता लेडीज’ कॉन्सेप्ट फिल्म है। आपको शुरू में ही पता चल गया कि दो दुल्हन हैं, वे बदल गई हैं। अब आपकी रुचि बन गई है यह जानने में कि उनके साथ क्या होगा? रुचि जागते ही आप फोन अलग कर देंगे।
हमें हाई कॉन्सेप्ट फिल्म बनानी होगी। वह अपने आप में इतनी आकर्षक होती है कि हमारा ध्यान खींच लेती हैं। बासु चटर्जी की फिल्म आज आप नहीं बना सकते हैं। हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म नहीं बना सकते हैं। उनकी फिल्में हाई कॉन्सेप्ट फिल्में नहीं हैं। साथ ही उनमें निवेश भी बहुत ज्यादा नहीं था। उसमें ऐसा कुछ बड़ा घटने वाला भी नहीं है। ‘खट्टा-मीठा’, ‘छोटी सी बात’, ‘बातों बातों में’, ‘रजनीगंधा’ आदि फिल्मों को याद करें।
ये सारी फिल्में इमोशन की फिल्में हैं और हमें बहुत अच्छी लगती थीं। आज वैसी फिल्में दर्शकों को बिठा ही नहीं पाएंगी। उससे ज्यादा रोचक चीजें तो मेरे फोन में हैं। हमें ऐसे विषय चुनने होंगे, जिनमें चुंबकीय गुण हो। उनमें गुरुत्वाकर्षण हो। उनका खिंचाव इतना जबरदस्त होगा कि आप तुरंत चिपक जाएंगे। या फिर फिल्म का कम्युनिकेशन इतना शार्प रखना होगा कि दर्शक आपसे जुड़ जाए।
स्मार्ट फोन आने के बाद एक और बात हुई है कि इसके यूजर को हर मनचाही चीज मिल जाती है। अगर कुछ नहीं चाहिए तो वह अपनी तर्जनी से उसे हटा देता है। मैं मनोरंजन जगत की बात कर रहा हूं। मैं दिल्ली का वीडियो देख रहा हूं, पसंद नहीं आ रहा है तो कहीं और का देखने लगूंगा। यूजर एक झटके में हटा देते हैं। अगर हल्का सा भी लगे कि समय बर्बाद हो रहा है तो उसको हटा देते हैं। पहले हम सुकून और मजे में रहते थे।
फ़िल्में देख कर आते थे तो कहते थे आज बहुत मजा आया। 4 घंटे का संश्लिष्ट आनंद होता था। मैं टेनिस खेलता था। टेनिस खेल कर आता था तो थक जाता था और कहता था मजा आ गया। पहले संतोषजनक आनंद के लिए दो-तीन घंटे का समय लगता था। आज हम 10 सेकंड में आनंदित हो जाना चाहते हैं। बिल्ली और कुत्तों के वीडियो देखकर हम खुश हो जाते हैं। 20 से 30 सेकंड में जानवरों की हरकतें देख करके हम खुश होने लगते हैं। चलते-चलते कोई आदमी गिर गया या कुछ भी उटपटांग हो गया तो हमें हंसी आ जाती है।
दिमाग का तंतु बहुत जल्दी सक्रिय हो जा रहा है। पहले मेहनत करके उसे स्पार्क करना पड़ता था। आप सुबह टहलने या दौड़ने जाते हैं। शुरू में हो सकता है आलस्य लगे, लेकिन लौट कर आते हैं तो आप खुश होते हैं कि मजा आ गया। इसमें एक से डेढ़ घंटा समय जाता है। अब सेकंड में सटिस्फेक्शन होता है और अगर ज्यादा समय लग रहा है तो आप तर्जनी का उपयोग कर लेते हैं। यही हमारी सोच हो गई है। मुझे लगता है कि हमारे ब्रेन की वायरिंग बदल गई है। अब हम अलग इंसान हैं। अब मुझे अपनी कहानी बिल्कुल अलग किस्म के इंसानों को सुनानी है। यह 2005 के पहले का इंसान नहीं है।

इस बदलाव में खुद को कैसे समायोजित कर रहे हैं?

मेरा कहानियों में पूरा यकीन है। मैं मानवीय भावनाओं में भरोसा करता हूं। अगर आपकी कहानी में मानवीय भावनाएं हैं और आप दर्शक को संतुष्ट कर पाते हैं तो आप गलत नहीं हो पाएंगे। कहानी कहने की कला आपके पास है तो आप दर्शक जुटा लेंगे। मेरी फिल्म रिलीज होगी तो पता चल ही जाएगा।
मान लीजिए फिल्म नहीं चलती तो भी मैं यह नहीं मानूंगा कि एक्शन फिल्मों का दौर ही चलता रहेगा। हॉरर, कॉमेडी, एक्शन, रोमांस ऐसे दौर आते रहते हैं। आप हैरान हो जाएंगे अगर मैं आपको बताऊं कि जब मैंने ‘गजनी’ की थी तो लोगों ने कहा कि एक्शन फिल्में नहीं चलती हैं। उस समय पिछले 5 साल की सारी एक्शन फिल्में फ्लॉप हो चुकी थीं। लोग आश्चर्य कर रहे थे कि अब तुम एक्शन फिल्म कर रहे हो?
‘गजनी’ की सफलता सभी जानते हैं। मैं हमेशा लहरों के खिलाफ चला हूं। जब मेरी एक्शन फिल्म आई तो उसे समय एक्शन का दौर ही नहीं था। मेरा यह मानना है कि अच्छी कहानी कभी असफल नहीं हो सकती। कोई भी तकनीक अच्छी कहानी की जगह नहीं ले सकती। दर्शकों को आप अच्छी कहानी देंगे तो वे जरूर सुनेंगे।

तकनीक और सोशल मीडिया से इतने सारे बदलाव आ गए हैं।

तकनीक से जो बदलाव आ रहा है, उससे आप लड़ नहीं सकते। उसे स्वीकार करना होगा और उसके साथ जीना होगा। आपके चाहने से तो कल से सबके स्मार्ट फोन बंद नहीं हो सकते। जो माहौल है, जो वातावरण बन रहा है, उसी को स्वीकार कर आपको उसमें कुछ करना है।
पिछले 15 20 सालों से मैं देख रहा हूं कि अब निर्माता-निर्देशक कंटेंट पर ज्यादा ध्यान नहीं देते और मजेदार बात यह है कि उनकी फिल्में चल भी जा रही हैं। उसके पीछे क्या वजह हो सकती है?
पिछले 15-20 सालों में तकनीक काफी बदल गई है। विज्ञान बहुत बदल गया है। हमारे जीवन में इनका उपयोग भी बढ़ा है। उसकी वजह से सारी चीजें बदल गई हैं। स्मार्ट फोन आने के बाद से तो हम सारे लोग बदल चुके हैं। हमारे ब्रेन की वायरिंग ही बदल चुकी है। इसके बावजूद मेरे अंदर एक विश्वास है कि अच्छी कहानी हमेशा आपको छुएगी। एक अच्छी कहानी जो पर्दे पर आ जाएगी तो जरूर लोगों को छुएगी।

दक्षिण भारतीय भाषा में मलयालम और तमिल में दलितों की कहानी आ रही हैं और बहुत अच्छे तरीके से व्यक्त हो रही हैं।

सॉरी, मेरी एक कमजोरी है कि मैं फिल्में ही नहीं देखता हूं।

मैं आपसे आग्रह करूंगा कि आप बाहर रंजीत की फिल्म जरूर देखें।

उनकी फिल्मों में दलित अपने अधिकारों को लेकर काफी सचेत हैं। और वे उन्हें हासिल करना चाहते हैं।

यह तो अच्छी बात है कि प्रतिभाशाली अपना स्थान हासिल कर रहे हैं।
हिंदी फिल्मों के साथ समस्या रही है कि हम लोग प्रेम कहानियों के ही इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। हम हिंदी समाज के वास्तविकताओं और विसंगतियों की कहानी लेकर नहीं आते।
ऐसी बात मैं नहीं मानता। पिछले 20-25 सालों में फिल्ममेकर अलग-अलग विषयों की कहानी लेकर आए हैं। मुख्यधारा का दायरा बढ़ गया है। मेरा मानना है कि हिंदी फिल्ममेकर भी अच्छी फिल्में बनाते रहे हैं।
यह परस्पर प्रयास की चीज है। निर्देशक और सर्षक दोनों को आगे बढ़ना होगा। दर्शकों को भी थोडी जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी। आखिरकार जब दर्शक एक किस्म की फिल्में पसंद करते हैं। मान लीजिए आजकल एक्शन फिल्में पसंद कर रहे हैं तो फिल्ममेकर को एक संदेश मिलता है कि अगर हमारी फिल्म एक्शन नहीं हुई तो थिएटर में दर्शक नहीं आएंगे। मैं खुद ऐसे ट्रेंड को नहीं मानता। मैंने अपने करियर में इस पर अमल नहीं किया है। मैं फिर से दोहराऊंगा की अंत में दर्शकों को अच्छी कहानी चाहिए।

कुछ सालों पहले जब आपसे बात हो रही थी राजनीति और दर्शन की तो आपने कहा था कि

आप गांधी के विचारों से बहुत ज्यादा प्रभावित हैं। आप अभी क्या सोचते हैं?

मैं आज भी गांधी जी से बहुत ज्यादा प्रेरित और प्रभावित हूं। ऐसा नहीं है कि उनमें कमियां नहीं हैं। कमियां तो हर मनुष्य में होती हैं। गांधी का व्यक्तित्व दुर्लभ है। उनके कार्य और जीवन में गहन आत्मविश्वास दिखता है। जिन रास्तों पर उन्हें विश्वास था, उन्हीं रास्तों पर वे चले। आप बोलने को बहुत कुछ बोल सकते हैं। देखना यह होता है कि आप करते क्या हैं? आप उनके कार्य और उनके जीवन को पलट कर देखिए तो समझ में आ जाएगा।
आप पाएंगे कि उनकी कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं है। भले ही से उनका नुकसान हुआ हो और कई बार हुआ भी। उनकी सोच के कुछ बिंदुओं से आपकी असहमति हो सकती है। उनके कुछ कार्यों से भी मेरी असहमति हो सकती है। हमें प्लस पॉइंट पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। अगर आप इन पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि उनके लिखे, बोले और किए में ज्यादा अंतर नहीं है।

क्या आज के समाज को देखते हुए नहीं लगता है कि आज गांधी अप्रासंगिक हो गए हैं?

नहीं, मैं ऐसा नहीं मानता। वे अप्रासंगिक हो ही नहीं सकते। आज भी देश और समाज में बहुत सारे ऐसे लोग हैं, जो गांधी जी के बहुत इज्जत करते हैं। उनके विचारों की इज्जत करते हैं उन पर अमल करते हैं। गांधी भारत ही नहीं पूरी दुनिया के लिए प्रासंगिक बने रहेंगे।
हां, मुझे भी लगता है कि गांधी रहेंगे तो देश बचा रहेगा।

आपने अपने प्रोडक्शन हाउस को फिर से सक्रिय किया है। क्या योजनाएं हैं? क्या फिल्मों के निर्माण में नई प्रतिभाओं को मौका देंगे?

यही सोच कर मैंने यह काम किया है। अभी मैं 60 का हो गया हूं। व्यावहारिक तरीके से बात करूं तो मेरी जिंदगी का दो तिहाई हिस्सा बीत चुका है। अब केवल एक तिहाई बचा है। सब कुछ ठीक रहा तो। अब इस समय का उपयोग मैं उन प्रतिभाओं के समर्थन में बिताना चाहता हूं, जिनमें मुझे विश्वास है। इस वजह से मुझे लगा कि अपने प्रोडक्शन हाउस में मुझे और काम करना चाहिए। अपर्णा को मैं इसी काम के लिए ले आया।
वह इन कामों की देखरेख कर सके। मैं खुद को कॉटेज इंडस्ट्री मानता हूं। मैं एक हैंडलूम वर्कर हूं। मैंने अपने करियर में ऐसे ही काम किया है। एक बार चादर का ताना-बाना चढ़ गया तो उसे पूरा करने के बाद ही मैं सिस्टम से निकाल पाता हूं। करघे पर धागा चढ़ा हुआ है, अब दूसरा क्या बुन सकता हूं? मैंने ऐसे ही काम किया है। अब ऐसा लगा कि दो-तीन करघे और लगा लेता हूं। जिन युवा प्रतिभाओं के विचार मुझे अच्छे लगते हैं, जिनकी कहानियां अच्छी लगती हैं, मैं उन्हें सहयोग और समर्थन दे सकता हूं।
जैसे कि ‘लापता लेडीज’। मैंने इसका निर्माण किया है। मैं ऐसी अनेक फिल्में बनाना चाहता हूं। यह काम मैं अकेले नहीं कर सकता। मुझे जरूरत है एक टीम की, जिसे मैंने अभी एकत्रित किया है। मैं खुद अभी तक एक ही फिल्म पर फोकस करना चाहता हूं। आगे चलकर मैं एक्टिंग के साथ-साथ डायरेक्ट भी करूंगा। जिस भी फिल्म पर मैं काम कर रहा होऊंगा, उस पर मेरा ज्यादा ध्यान रहेगा। यही मंशा है कि कोई और रहे मेरे साथ और इस काम को आगे ले जाएं। नई प्रतिभाओं को मैं एक अवसर दे सकूं। एक प्लेटफार्म दे सकूं। आमिर ख़ान प्रोडक्शन उन्हें ये सुविधा दे सके।

देश में तो प्रतिभाएं बिखरी पड़ी हैं। अभी देखना है कि उनके लिए आपकी प्रोडक्शन कंपनी के दरवाजे कैसे खुलते हैं? दरवाजे खोलते ही बाढ़ आ जाएगी।

हमने अपना जो चैनल आरंभ किया है, वहां भी इस बात को कह रहे हैं कि अगर आपके पास कोई कहानी हो तो आप हमें भेज सकते हैं। मेरी यही कोशिश है कि अलग-अलग किस्म की कहानियां आएं। एक तरह की फिल्में कब तक बनाऊंगा। मैं ट्रेड की बात नहीं मानता। मैं बता चुका हूं कि जब मैं ‘गजनी’ कर रहा था, उस समय एक्शन का ट्रेंड नहीं था। मैंने कभी कोई ट्रेंड फॉलो नहीं किया। मुझे जो चीज अच्छी लगती है, वही करता हूं।
मैं फिल्में देखता ही नहीं हूं तो मुझे ट्रेंड की जानकारी नहीं रहती। सचमुच मुझे मालूम नहीं रहता कि फिल्म इंडस्ट्री में कौन क्या बना रहा है? ऐसा नहीं है कि मुझे फिल्में देखने में मजा नहीं आता। मुझे तो बहुत मजा आता है। भावुक दृश्यों में मैं रोने लगता हूं। आपको मालूम ही है कि मैं किताबें ज्यादा पढ़ता हूं। फिल्में ज्यादा नहीं देख पाता। बचपन से ही मेरी आदत रही है।

इसमें कितना यकीन रखते हैं की फिल्ममेकर की एक सामाजिक जिम्मेदारी भी रहती है या रहनी चाहिए?

हर फिल्ममेकर को या खुद तय करना होता है कि उसे किस हद तक जाना है। यह एक ऐसा प्रोफेशन है, जिसके जरिए आप लोगों के दिलों तक पहुंच सकते हैं, उनके जज्बातों तक पहुंच सकते हैं। उनकी सोच तक पहुंच सकते हैं। इसका आप कितना इस्तेमाल करना चाहते हैं?
यह आपके ऊपर हैं। कुछ फिल्ममेकर यह सोचते हैं कि वे दर्शकों का सिर्फ मनोरंजन करें। उन्हें एक मजेदार फिल्म दिखाएं। यह भी अच्छी बात है। इसमें कोई बुराई नहीं है। हमारे अंदर यह जागरूकता होनी चाहिए कि हमारे पास एक मौका है। आपका दिल बहलाने और आपका मनोरंजन करने के अलावा भी कुछ ऐसा करूं कि आपका सोचने का मन करे। या जो आपको सोचने पर मजबूर करें।
मेरी सोच ऐसी है, लेकिन मैं किसी और मेंकर को कभी जज नहीं करता कि वह कैसी फिल्म बना रहा है? मैं यह सवाल नहीं उठाता कि वह केवल एंटरटेन कर रहा है और सामाजिक जिम्मेदारी नहीं निभा रहा है। कोई संदेश नहीं दे रहा है। मेरी नजर में उसका काम भी अच्छा है। दर्शकों का दिल बहलाना छोटा काम नहीं है। आप किसी के चेहरे पर हंसी ले आएं इससे अच्छी बात क्या हो सकती है?
इस प्रोफेशन में आपके पास एक अतिरिक्त मौका है। राष्ट्र निर्माण में आप योगदान कर सकते हैं। फिल्मों के जरिए राष्ट्र निर्माण का मतलब इमारतें या पुल बनाना नहीं है। यह ठोस चीज नहीं है। फिल्मों के जरिए राष्ट्र निर्माण में दर्शक आते हैं। मेरी फिल्मों में आप ‘तारे जमीन पर’ और ‘3 ईडियट्स’ को देख लें।

इन फिल्मों ने लोगों के सोचने का तरीका बदल दिया? सभी के ध्यान में आया कि मैं अपने

बच्चों को बेवजह डांट-फटकार रहा था। ‌’तारे जमीन पर’ से ‘सितारे जमीन पर’ तक आने में क्या नई चीजें जुड़ गई हैं?

इत्तफाक से यह कहानी हमारे पास आई तो हमें लगा कि इस फिल्म की भी थीम वही है। कहानी अलग है, किरदार अलग हैं लेकिन थीम के हिसाब से यह ‘तारे जमीन पर’ के करीब है। मैं तो कहूंगा कि यह उससे 10 कदम आगे जाती है।
फर्क यह है कि इसमें हम ह्यूमर ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। ‘तारे ज़मीन पर’ में इमोशन ज्यादा था। उसमें बच्चों के प्रति आपके अंदर भावना जगानी थी। वह फिल्म आपको रुलाती थी। यह फिल्म आपको हंसाती है। दोनों में यह एक बड़ा अंतर है। थीम के हिसाब से यह फिल्म कई कदम आगे हैं।

लाहौर 1947 के बारे में क्या कहेंगे? कब तक आएगी?

मैं उसमें एक्टिंग नहीं कर रहा हूं। सनी देओल, शबाना आज़मी, प्रीति जिंटा हैं उसमें। राजकुमार संतोषी उसे डायरेक्ट कर रहे हैं। पार्टीशन की पृष्ठभूमि पर असगर वजाहत का लिखा यह एक नाटक है। हमारी फिल्म इस पर आधारित है। अभी उस फिल्म के फाइनल एडिटिंग चल रही है।
मुझे लगता है सितंबर के आसपास आएगी। ‘लाहौर 1947’ इंसानियत की कहानी है। मानवीय स्तर पर जो प्यार और आदर होना चाहिए, वह इस फिल्म की कहानी जगाती है। मनुष्य के सभी सकारात्मक पक्षों को यह दिखाती है। और यह एक रियल हीरो की कहानी है। जो किरदार है, उसके सामने जो चुनौतियां हैं, वह उससे बहुत बड़ी हैं। ऐसी चुनौतियों का शायद वह मुकाबला नहीं कर पाए लेकिन उसका ईमान उसे कुछ भी गलत करने से रोकता है। सारी प्रतिकूल स्थितियों के खिलाफ खड़ा होता है।

आखिरी सवाल बतौर एक्टर अब आगे की क्या रणनीति है? अब आप 60 के हो चुके हैं।

बतौर एक्टर मैं आज भी उत्साहित हूं। मुझे काम करते हुए मजा आ रहा है और मैं अपने काम से खुश हूं। यह तो दर्शक ही हमेशा तय करते हैं कि वह आपकी फिल्म पसंद करते हैं या नहीं करते हैं? और यही होना भी चाहिए। दर्शक ही तय करें। मैं इसका जवाब क्या दूं? कल किसने देखा है? ऐसे सवालों का जवाब मेरा काम देगा। मेरा तो यही यकीन है कि आपका काम ही बोलता है। मुझे उम्मीद है कि मेरा काम बोलेगा।

क्या आप अपनी आत्मकथा लिखना चाहेंगे?

मैं ऊब जाता हूं। अपनी कहानी क्या सुनाऊं? क्या बताऊं लोगों को?
(अजय ब्रम्हात्मज एक प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक
और लेखक हैं। उन्होंने आमिर खान का यह
इंटरव्यू फिल्म ‘सितारे जमीन पर’ के
सेट पर लिया है।)
फेसबुक से साभार

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