सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )politicswala special
सुप्रीम कोर्ट में एक दिलचस्प मामला पहुंचा जिसमें जनहित याचिका दायर करने वाले एक वकील पर मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ भडक़ गए। याचिका में अदालत से मांग की गई थी कि सांसदों और विधायकों की डिजिटल निगरानी करने के लिए उनमें चिप लगाई जाए।
सीजेआई ने भडक़ते हुए कहा कि यह कैसी याचिका है? अगर इसे मंजूर करेंगे, और सुनवाई के बाद खारिज होगी, तो पांच लाख रूपए देना होगा क्योंकि यह जनता का समय है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि सांसदों और विधायकों की भी निजी जिंदगी होती है। इसके बाद बिना जुर्माना लगाए अदालत ने यह याचिका खारिज कर दी।
इस याचिका को तो खारिज होना ही था, लेकिन इसमें देश की सर्वोच्च अदालत के सामने देश की एक बड़ी फिक्र को सामने रखा है कि सांसद और विधायक अब विश्वसनीय नहीं रह गए हैं। उन्हें चुनने के लिए जनता जो वोट देती है, वह वोट तो उम्मीदवार का नाम और पार्टी के निशान पर दोनों पर एक साथ होता है, लेकिन ऐसे नेता जनता के फैसले के खिलाफ जाकर जब चाहे तब पार्टी बदल लेते हैं, और अगर वे थोक में पार्टी बदलते हैं, तो वह दलबदल भी नहीं कहलाता है।
ऐसे में जनता के दिए हुए फैसले को लात मारने के अलावा और कुछ नहीं होता। पार्टी छोडऩे वाले उम्मीदवार जनता के अपने नाम पर दिए गए वोट का तो अपमान करते हैं, और साथ-साथ पार्टी निशान पर दिए गए वोट के खिलाफ काम करते हैं। आज देश में बहुत से लोगों का ऐसा मानना है कि पंच-सरपंच से लेकर पार्षदों तक, और विधायकों से लेकर सांसदों तक का कोई ऐसा इलाज होना चाहिए कि वे मंडी में अपने को पूरी बेशर्मी से बेच न सकें।
इस खरीदी-बिक्री में भुगतान कई तरह से होता है, नगद भी होता होगा, सजा से माफी भी होती होगी, और कमाऊ ओहदों का बंटवारा भी होता होगा। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, ऐसा जनता का मानना है।
मुख्य न्यायाधीश ने याचिकाकर्ता की सोच और उसके तर्क को पूरी तरह खारिज कर दिया। याचिका में अपील की गई थी कि बिना किसी अपवाद के सारे जनप्रतिनिधियों की डिजिटल निगरानी होनी चाहिए। उसका तर्क था कि एक बार जनता के द्वारा चुन लिए जाने पर विधायक और सांसद ऐसे बर्ताव करते हैं कि मानो वे जनता पर राज करने के लिए आए हैं, और जनता के मालिक हैं।
सीजेआई का कहना था कि निर्वाचित नेता भी परिवार के बीच भी रहते हैं और उनकी निजता को इस तरह से खत्म नहीं किया जा सकता मुख्य न्यायाधीश ने इस पिटीशन को गैर गंभीर माना और इसे खारिज कर दिया।
हम भी इस पिटीशन के ऊपर अदालत के किसी फैसले की उम्मीद नहीं कर सकते थे, लेकिन एक दूसरी बात यह है कि देश के सांसदों और विधायकों के प्रति जनता के मन में जो अविश्वास पैदा हो गया है। जिस तरह से बहुत से सांसद और विधायक अपनी आत्मा को बेचने के लिए एक पैर पर खड़े रहते हैं, वह बात इस पिटीशन के माफऱ्त अदालत तक पहुंची है।
हम इससे जुड़े हुए एक दूसरे पहलू पर बात करना चाहते हैं. इसके बारे में हमने कई बार लिखा भी है. हमारा मानना है कि संवैधानिक पदों पर जो लोग पहुंचते हैं या जो सत्ता की शपथ लेकर सरकार चलाते हैं, ऐसे लोगों के लिए यह शर्त होनी चाहिए कि उनके ऊपर अगर कोई आरोप लगेंगे।
भ्रष्टाचार के, अनियमितता के, किसी गड़बड़ी के, तो वैसी हालत में उनको जांच में मदद करने के लिए झूठ पकडऩे की मशीन का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए, या नार्को टेस्ट के लिए भी तैयार रहना चाहिए। हमारे इस तर्क के पीछे भी सत्तारूढ़ लोगों के प्रति जनता के मन में बैठा हुआ एक गहरा विश्वास है। इसी तरह की बात इस पिटीशन में भी की गई है।
इस याचिका ने एक अलग कानूनी समाधान माँगा है, इसके लिए अदालत से रास्ता अलग मांगा गया है, लेकिन कुल मिलाकर बात उसी के आसपास है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि अब न भरोसेमंद हैं, न उनका कोई अधिक सम्मान रह गया है।
ऐसे में भारतीय लोकतंत्र में दलबदल के बारे में, या जैसा कि अभी ताजा मामला है कई राज्यों में राज्यसभा के लिए वोट डालते हुए बहुत सी दूसरी पार्टियों के लोगों ने भाजपा के उम्मीदवारों के पक्ष में वोट डाले, भाजपा की ताकत आज जग जाहिर है और ऐसे में उसके लिए वोट डालना और अपनी पार्टी के साथ बेईमानी दिखाना, इस बात को भी समझने की जरूरत है।
यह बात जरूर है कि हिंदुस्तानी लोकतंत्र में हर मर्ज का इलाज सुप्रीम कोर्ट नहीं है, दूसरी बात यह है कि जो संसद एक दूसरा इलाज हो सकती थी, वह संसद आज जनता के सामने कोई विकल्प नहीं है। जनता जाए तो किधर जाए ? इसलिए यह सोचने का मौका है कि अविश्वसनीय जनप्रतिनिधियों का क्या इलाज किया जाए?