विजयमनोहरतिवारी
पुरानी आभा से नईदुनिया का त्रासद अवसान किसी फर्म या कंपनी के बिक जाने का संपत्ति का प्रकरण नहीं है। ये वो अखबार था, जिसने मुझ जैसे दूरदराज गाँव से आए हक्के-बक्के युवकों को समाज में ढंग से लिखने और खड़े होने लायक बनाया। हमारी शिराओं में वह आज भी दौड़ता है। मैं जब भी इंदौर लौटता हूँ। उसे खाली पाता हूँ। पब्लिक के उस खालीपन को दैनिक भास्कर ने भरपूर भरोसे से भरा है। वह कामयाबी की एक बिल्कुल ही अलग कहानी है…
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1993 में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय संस्थान से डिग्री लेकर जब पत्रकारिता में आया तो भोपाल के प्रेस कॉम्प्लैक्स स्थित नीलम रेस्टॉरेंट में अक्सर लंच के दौरान भूपेंद्र चतुर्वेदी कहा करते थे कि अगर मीडिया में लंबा टिकना है तो नईदुनिया इंदौर जाओ।
मेरे पास कोई अनुभव नहीं था। केवल डिग्री थी और वो भी अव्वल दर्जे की। पढ़ाई के दौरान इंदौर की नईदुनिया का जिक्र तक्षशिला और नालंदा की फ्रिक्वेंसी पर था और मैं सोचता था कि मुझ नौसिखिए को वहाँ कौन अवसर देगा। पहले कुछ काम सीख लूं फिर जाऊं। मगर नईदुनिया छोड़कर स्वदेश में कार्यकारी संपादक बने भूपेंद्रजी रोज धक्का देते कि इंदौर जाना चाहिए।
कब तक सुनता, एक साल बाद सामान बांधकर इंदौर चला आया। शुरुआती कुछ महीने यहाँ-वहाँ गुजरे और आखिरकार 15 नवंबर 1994 को दो बटुकों को नईदुनिया में एक परीक्षण के बाद चुन लिया गया। दूसरे थे प्रवीण शर्मा। हमारे परीक्षण एक साथ हुए थे। खबरों के लिहाज से हमारी हिंदी इस हद तक शुद्ध पाई गई कि हमें प्रूफ डेस्क की बजाए सीधे ही सिटी रिपोर्टिंग में उतारा गया।
सिटी रिपोर्टिंग के लिए सुबह के समय प्रेस क्लब में होने वाली कथा-प्रवचनों की प्रेस कॉन्फ्रेंसों के लिए जब पहली बार आए तो हक्के-बक्के से बाहर खड़े थे क्योंकि क्लब की हमारी सदस्यता थी नहीं और डर था कि कहीं गेट पर कोई रोक न दे। जब देखा कि लोग बेखटके आ-जा रहे हैं तो अपन भी अंदर राजेंद्र माथुर सभागृह में जा बैठे। देश के नामी और श्रद्धेय संपादकों की चरण रज यहाँ है।
मैंने बाबू लाभचंद छजलानी मार्ग के उस परिसर में किसी गुरुकुल जैसी ऊर्जा का अनुभव हमेशा किया। जहाँ से अनेक सिद्ध संपादक और पत्रकार बीते दशकों में निकले थे और उन सबके बाबा राहुल बारपुते तब देह में थे। उनकी उपस्थिति में संपादकीय विभाग में हमें सिटी रिपोर्टिंग का काम मिला।
कवरेज के लिए रोडवेज जैसे डूबते विषय मिले, जहाँ खाते में एक बायलाइन की संभावना को शून्य बनाने वाले भी कम न थे। लेकिन दूसरे पन्नों पर व्यंग्य का एक “खुला खाता’ था, जिसमें यशवंत व्यास ने बिना परिचय के ही कुछ लेख छापकर विधिवत लेखन का खाता खोल दिया था। वे मेरी लेखनी की पासबुक में छपे पहले बैंक मैनेजर हैं। शायद उन्हें भी पता न हो।
मैं गणित में एमएससी करके कॉलेज में पढ़ाते हुए लिखने के शौक में पत्रकारिता की पढ़ाई करते हुए अखबार में आया था लेकिन आत्मा इतिहास में भटकती थी। भोजशाला आंदोलन का जोर था। पहली बार धार में भोजशाला के दर्शन किए तो अगले एक साल के सारे वीकली ऑफ परमार राजाओं और भोजशाला के अध्ययन में लगा दिए। डॉ. शशिकांत भट्ट के साथ उज्जैन में बिना नींव की मस्जिद और मांडू में दिलावर खां के मकबरे को भी जाकर देखा, जो परमार शासकों की बनाई संस्कृत की विद्यापीठें ही थीं। यानी भोजशाला केवल धार में नहीं थी, कुल तीन भोजशालाएँ थीं। यह स्टोरी अभयजी को लिख दी तो उनका कहना था कि अगर सुबह यह छप जाएगी तो कल ही दंगे शुरू हो जाएंगे। वह नईदुनिया में नहीं छपी। मुझे इतिहास में भटकने के अवसर मिल गए थे।
अयोध्या पर एक किताब छपकर आई थी-अयोध्या का इतिहास और पुरातत्व, ऋग्वेदकाल से अब तक। डॉ. स्वराजप्रकाश गुप्त और ठाकुरप्रसाद वर्मा लेखक थे, जो एएसआई में रहे थे और अयोध्या की पुरातात्विक खुदाइयां की थीं। किताब के आखिर में रंगीन फोटो थे, जो खुदाइयों में निकले मंदिर के सबूतों के थे। उनमें वह शिलालेख भी था, जो 6 दिसंबर 1992 को कारसेवकों के उत्साह में एक गुंबद के मलबे में निकला और टूट गया था। अभयजी ने वह किताब मेरी टेबल पर रखते हुए समीक्षा का आदेश दिया। वह केवल एक पुस्तक समीक्षा की बात नहीं थी। नईदुनिया में रुचि के विषयों में पत्रकारों को तराशने का एक अभ्यास था।
मगर आगे का किस्सा दिलचस्प है। एक लंबी समीक्षा लिखकर उनकी टेबल पर रख दी। उन्होंने फीचर डेस्क पर आगे बढ़ा दी। कुछ सुझाव आए। जैसे-समीक्षा के कॉलम की शब्द सीमा से समीक्षा लंबी है, हेडिंग भी ठीक नहीं है, कुछ हिस्से काटना ठीक रहेगा वगैरह-वगैरह। टीपें लगते हुए वह कॉपी कुछ दिन बाद वापस आई तो मैंने अभयजी से निवेदन किया कि विषय गंभीर है। एक दिन इस पर पंद्रह मिनट बैठ जाते हैं। रोडवेज पर खबरें लिखने वाला एक रिपोर्टर अयोध्या जैसे विषय पर लिखी गई एक कीमती किताब की समीक्षा के लिए चीफ एडिटर को सुझा रहा कि लिखा-पढ़ी की बजाए कुछ देर बैठकर बात करके निर्णय लेना ठीक रहेगा।
वह बड़ी रोचक बैठक थी। मैंने बिंदुवार जवाब दिए। मैंने कहा कि कुछ कविताओं और कहानियों के संग्रहों की समीक्षा और इस किताब को एक नजरिए से न देखा जाए। यह एक ऐसे विषय पर लिखी गई किताब है, जिसने आडवाणी की रथयात्रा के समय पूरी दुनिया के हिंदुओं को आंदोलित किया है। एक ऐसा विषय जो पांच सौ सालों से संघर्ष का है और 50 साल से कोर्ट में घिसट रहा है। यह किताब उनने लिखी है, जो खुद अयोध्या के उत्खनन में शामिल रहे हैं। वे किसी विचारधारा विशेष के लोग नहीं हैं।
जहाँ तक कुछ हिस्से संपादित करने की बात है तो हम किसकी नाराजगी की चिंता कर रहे हैं। यह आपत्ति मुस्लिम पक्ष को लेकर थी। मैंने कहा कि सर हमें तो कोई चुनाव लड़ने नहीं हैं, जो किसी की नाराजगी की परवाह करें। मेरा तो सुझाव है कि इसे समीक्षा के कॉलम में छापने की बजाए किसी रविवार को कवर स्टोरी बनाएँ। पुस्तक में रंगीन फोटो हैं, उन्हें ले लें। अच्छा अवसर है वर्ना नईदुनिया से कौन शरद पंडित या अभय तिवारी इन प्रमाणों के फोटो लेने भेजे जाएंगे और किसे पता कि ये किन संग्रहालयों के लॉकर में रखे हैं। मैंने अंत में कहा कि कृपापूर्वक इस समीक्षा का शीर्षक भी न बदला जाए। शीर्षक था-“खंडित हों या साबुत पत्थर झूठ नहीं बोलते।’ अप्रैल 2000 में एक रविवार वह समीक्षा नईदुनिया के रंगीन रविवारीय पर आधे पेज से अधिक में सजी थी।
घराने यूं ही नहीं बनते। एक लंबी तपस्या का बल लगा होता है। मीडिया के इंदौर घराने से अगर नईदुनिया को हटा दें तो एक समय बहुत कुछ बचता नहीं है। प्रकाश हिंदुस्तानी, यशवंत व्यास, राजेश बादल, जयदीप कर्णिक और मैं वहीं से निकले हैं। नईदुनिया के बिना यह मंच ही शून्य हो जाएगा और प्रेस क्लब के इस सभागार में भी बहुत से चेहरे गायब हो जाएंगे। नईदुनिया ने आजाद भारत में केवल पत्रकारिता के ही श्रेष्ठ मानक खड़े नहीं किए, भाषा का संस्कार भी दिया। अपने पाठकों से एक ऊष्मा से भरा हुए रिश्ता बनाया। मगर हुआ क्या?
वह नईदुनिया एक दिन चौराहे पर बिक गई और शहर में किसी को बेचैनी नहीं हुई। वह संपत्ति भले ही छजलानी और सेठिया परिवार की होगी, मगर विरासत इंदौर की थी। बटवारे संपत्तियों के होते हैं। विरासत उत्तराधिकारी में मिलती है या ली जाती है। मध्यप्रदेश का सबसे मालामाल शहर सोता रहा और एक विरासत बिक गई। कोई यह पूछने नहीं गया कि जब नईदुनिया को बेचने का फैसला किया गया तब कितने करोड़ का संकट था, जो यह शहर दूर नहीं कर सकता था? दुनिया में कई अखबार समाज और ट्रस्ट चलाते हैं, कोई एक मालिक नहीं है। नईदुनिया को संभाला जाना चाहिए था।
जनवरी 2020 में कोविड के ठीक पहले एक दिन मैं अभयजी के साथ घर पर था। उनकी याददाश्त धुंधला रही थी। खाने की मेज पर हम बैठे थे। श्रीमती पुष्पा छजलानी किचन से आते हुए कह रही थीं कि विजय तुम्हें नईदुनिया पर लिखना चाहिए। वे नईदुनिया के अपने हाथ से निकलने की पीड़ा से भरी हुई थीं। अभयजी की ओर संकेत करके उन्होंने कहा था कि इनने गलत लोगों पर भरोसा किया। इन्हें लोगों की पहचान नहीं थी। लोगों ने इनका फायदा उठाया।
मैं नहीं जानता कि गहरी सांस लेकर मौन बैठे अभयजी के भीतर तब क्या चल रहा था? मगर अभयजी इससे बेहतर अंत के हकदार थे। उन्हें मीडिया के शहंशाहों की तरह ही होना था। उनके देखते-देखते अखबार को पचास एडिशंस की श्रृंखला खड़ी करनी थी। कई टीवी चैनल। रेडियो। डिजीटल तक। बेशक रियल इस्टेट के साथ बड़े-बड़े स्कूल, अस्पताल और मॉल्स भी ला सकते थे। नईदुनिया की अपनी मीडिया की कोई यूनिवर्सिटी कैसी लगती? दिल्ली-मुंबई में पताकाएं फहरानी थीं। यह बिल्कुल असंभव नहीं था। यह ब्रांड दम रखता था।
मगर ऐसा नहीं हुआ। इंदौर के प्रतिष्ठित मीडिया घराने की नींव था-नईदुनिया। नींव अकेली कभी बिकती नहीं है। इमारत ही बिकती है। कैसी विडंबना है कि इंदौर में वह नींव 2012 में बिक गई।
आज जिस मीडिया घराने पर कॉन्क्लेव का यह सत्र है, वह इमारत की बात है। नींव भूतकाल का विषय है। मगर बड़ी विडंबना यह है कि हिंदी पत्रकारिता के समकालीन इतिहास की इतनी बड़ी घटना पर लिखा कुछ नहीं गया। इस पर किताब लिखी जानी चाहिए कि नईदुनिया के बिकने की नौबत आई क्यों? अंतिम फिसलन कहाँ थी? अभयजी के बाद विनयजी ने भी कम जोर नहीं लगाया। वे नेशनल दुनिया के अपने दलबल सहित दिल्ली तक हुंकार रहे थे। एक आशा दशकों बाद जागी थी।
मुझे लगता है कि विनीत सेठिया और उनके परिवार, स्वयं विनयजी और भुराड़ियाजी को इस बारे में विचार करना चाहिए। जो हुआ सो हुआ। प्रबंधन या पूंजी के जिन बिंदुओं पर वे बात करना नहीं चाहते, न करें। उनकी निजता का पूरा सम्मान है। अगर वे मौन ही रहना चाहते हैं तो भी हमारी जिज्ञासा को उगने से नहीं सकते। हम उनसे सुनना अवश्य चाहेंगे। पूरी कहानी। क्या वह इतनी गोपनीयता की दरकार रखती है?
नईदुनिया को अपने पुरखों के मार्ग से विदा हुए यह तेरहवीं का साल है। 2012 से 2025। हिसाब लगा लीजिए। जमाने गुजरने जितना फासला है। अब तो कुरुक्षेत्र की सारी धूल जमीन पर ठीक से बैठ गई है। महाभारत के किस्से सुनाए जा सकते हैं। संभव है किसी कृष्ण के दर्शन हो जाएँ। मगर मैं कौरवों को देखना चाहूंगा। नईदुनिया की महान विरासत पर उन्हें बात करना चाहिए। वे आज जो भी हैं, उसी अखबार का नमक उनके रक्त में है।
हमारे लिए वे आदरणीय अभयजी और आदरणीय महेंद्रजी के उत्तराधिकारी हैं। एक ऐसी विरासत के उत्तराधिकारी जो सेठ वसंतीलाल सेठिया और बाबू लाभचंद छजलानी ने अपने सपनों के कच्चे धागों से बुनी थी। बिना नरेंद्र तिवारी के नईदुनिया की आर्केस्ट्रा पूरी नहीं होती, जिनकी संपत्ति 1990 में ही बांट ली गई थी। वह बटवारे का पहला और आखिरी अंक था। दूसरे अंक में 1992 में सीधा शट डाउन है।
मैंने साल 1999-2000 में एक किताब लिखी थी। वह मेरी लिखी पहली किताब थी। एक ठहरे हुए अखबार में काम करने वालों की बेचैनी की वह कहानी “प्रभात प्रकाशन’ से किताब के रूप में दो साल पहले ही छपकर आई है-“स्याह रातों के चमकीले ख्वाब।’ वह छपकर आई मेरी 12 वीं किताब है। वह एक ऐसे ही अखबार की कहानी है, जिसने स्वाधीनता संग्राम में अपना रोल निभाया था और आजादी के बाद पत्रकारिता के आदर्शों का उदाहरण बना। नामी और दक्ष संपादक तैयार किए। सरकारों में जिसकी धमक बनी और समाज में वह विश्वास का आधार बना। भाषा और पत्रकारिता के गहरे संस्कार रचने वाला अखबार, जो अब अपने अनिर्णय या त्रुटिपूर्ण निर्णय, अति आत्मविश्वास, प्रपंचियों की प्रतिष्ठा और चलताऊ तौर-तरीकों के कारण अपने ही शहर में बेगाना हो गया।
कुछ प्रिय पाठकों ने उस किताब को नईदुनिया से जोड़ दिया। मगर वह कोई आलोचना नहीं है। न ही पर्दाफाश है। वह अखबारी जिंदगी की एक भूली बिसरी दास्तान है।
पुरानी आभा से नईदुनिया का त्रासद अवसान किसी फर्म या कंपनी के बिक जाने का संपत्ति का प्रकरण नहीं है। ये वो अखबार था, जिसने मुझ जैसे दूरदराज गाँव से आए हक्के-बक्के युवकों को समाज में ढंग से लिखने और खड़े होने लायक बनाया। हमारी शिराओं में वह आज भी दौड़ता है। मैं जब भी इंदौर लौटता हूँ। उसे खाली पाता हूँ। पब्लिक के उस खालीपन को दैनिक भास्कर ने भरपूर भरोसे से भरा है। वह कामयाबी की एक बिल्कुल ही अलग कहानी है।
मैं जब भी सुधीरजी से मिलूंगा, यह सुझाव अवश्य दूंगा कि वे भी दैनिक भास्कर की यात्रा पर बात करें। मैं समय निकालकर विस्तार से यह काम करना चाहूंगा। यह कुछ वर्ष में ही संभव होगा। मेरा अनुभव है कि वे साहसपूर्वक निर्णय लेने वाले एमडी हैं। कोई ताज्जुब नहीं कि राजी हो जाएं! वे विजेता भाव की बजाए विनम्रता के भाव से भरे मिलेंगे। अपने पूज्य पिता का यह कथन दोहराते हुए कि पाठक ही हमारा मालिक है भाई साहब!
मैं ये कहानी लिखना चाहूंगा। दैनिक भास्कर के साथ नईदुनिया पर भी एक कहानी मैं लिखना चाहूंगा। कैसा हो कि दोनों एक ही किताब में आएं। दोनों की नाभियाँ मध्यप्रदेश में हैं। मैं भी यहीं का हूं और दोनों ही अखबारों में बराबर वक्त देकर आया हूँ। विनयजी और सुधीरजी भलीभांति जानते भी हैं।
पता नहीं आइडिया कैसा है?
–विजयमनोहर तिवारी 30 वर्ष तक सक्रिय पत्रकारिता के बाद वर्तमान में माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में कुलपति हैं
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