राकेश कायस्थ
किसी राष्ट्रीय शोक को राष्ट्रीय प्रहसन में नहीं बदलना चाहिए लेकिन ऐसा हो रहा है, दोष किसे दें? क्रोनोलॉजी समझेंगे तो पूरी बात समझ पाएंगे।पहलाम में निहत्थे सैलानियों को बर्बर तरीके से चुन-चुनकर मारा गया। पूरा देश गुस्से से उबल पड़ा। प्रधानमंत्री अपनी सऊदी अरब की यात्रा छोड़कर भागे-भागे आये। देश के मन में आशा जगी कि त्वरित कार्रवाई होगी।
प्रधानमंत्री ने त्वरित कार्रवाई की और इस मामले में विचार के लिए बुलाई गई ऑल पार्टी मीटिंग में शामिल हुए बिना सीधे बिहार की चुनावी रैली में चले गये और वहीं से अंग्रेजी में आतंकवादियों को शट अप कर दिया। मधुबनी से उड़े मेक इंडिया मार्का अंग्रेजी के हवाई गोले कहां जाकर गिरे पता नहीं! बस यही से ट्रेजेडी में कॉमेडी शुरू हो गई। डार्क हयूमर की कालजयी फिल्म “जाने भी दो यारों के आखिरी सीन” की तरह।
विपक्ष ने प्रधानमंत्री जी से कहा आप बेझिझक कार्रवाई कीजिये और हम आपके साथ खड़े हैं। प्रधानमंत्री जी ने बेझिझक कार्रवाई की, वहां से केरल गये अडानी, शशि थरूर और केरल के मुख्यमंत्री को एक मंच पर लेकर पूरे `इंडी गठबंधन’ को मुंह चिढ़ाया और बकायदा बताकर कर जोर-जोर से चिढ़ाया।
उसके बाद प्रधानमंत्री जी मुंबई आ गये और पूरे देश को बताया कि भारत किस तरह एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का ग्लोबल हब बन रहा है। ये देखकर सबको लगने लगा कि प्रधानमंत्री बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। जो कुछ चल रहा है, उससे बड़ा एंटरटेनमेंट क्या होगा।
इधर कड़ी निंदा वाले रक्षा मंत्री को लगा कि देश की जनता उसी तरह मायूस हो रही है, जैसे पुराने जमाने में किराये का वीसीआर आने में देर होने पर बच्चे हुआ करते थे, उन्होंने पूरे देश को आश्वस्त किया—आप जिस तरह चाहते हैं, प्रधानमंत्री की नेतृत्व में वैसी ही कार्रवाई होगी।
ऐसा लग रहा है कोई पूछ रहा हो, गजल सुनेंगे या कव्वाली? न्याय होने का कोई आश्वसान नहीं, जांच की प्रगति का कोई अपडेट नहीं, सिर्फ ऑन डिमांड एंटरटेनमेंट उपलब्ध कराने जैसा भरोसा।
देश की जनता ये कैसे तय करे कि यह कोई राष्ट्रीय संकट है, या कोरी गप्पबाजी चल रही है? करगिल युद्ध इस देश के बहुत से लोगों ने देखा है। बीजेपी की ही सरकार थी। हर घटना पर अपडेट आया करते थे। 26-11 के बाद माहौल कुछ ऐसा ही था। सरकार जनता के प्रति जवाबदेह और विनम्र नज़र आती थी। अब तो सिर्फ सन्नी देओल के डायलॉग से काम चल जाता है।
जनता मान चुकी थी कि ये विशुद्ध कॉमेडी है। तभी आजाद भारत के सबसे योग्य गृह मंत्री का बयान आ गया कि 7 मई पूरे देश के कई शहरों में उसी तरह सायरन बजेगा जिस तरह युद्द के समय बजता है। आधी जनता खुश हो गई कि चलो अब युद्ध होगा।
बाकी लोगों को ये समझ में नहीं आ रहा है कि ये भारत-पाक युद्ध जैसी स्थिति है, या पंचायत वेब सीरीज़ में सचिव जी की फकौली बाजार वाले बब्लू झबलू से लड़ाई, जहां दिन तारीख और समय बताकर दोनों पार्टी को आमने-सामने आना है।
कुछ लोग इस बात पर खुश हैं कि थाली बजाओ अभियान की तरह सरकार मुंह से सायरन बजाने को नहीं कह रही है बल्कि खुद बजा रही है। यानी कुछ तरक्की तो हुई है।
पूरे प्रकरण का निचोड़ ये है कि प्रधानमंत्री जी ने अब दो टूक कह दिया है कि मैं 18-18 घंटे काम करूंगा और उपर से पीएम पद की गरिमा भी रखूंगा.. जाओ नहीं रखता। तुम्हें टैक्स में इतनी बड़ा छूट दी है, अब ऑन डिमांड बदला ले रहे हैं, निकम्मे देशवासियों तुम्ही क्यों नहीं रख लेते प्रधानमंत्री पद की गरिमा।
बात तो ठिक्के कह रहे हैं, प्रधानमंत्री जी। लेकिन का करे हम भी इंसान हूं। हाथ में पिस्तौल लिये जब गब्बर हंस रहा था, तो कालिया और सांभा भी साथ-साथ हंसने लगे थे, भले ही मौत सर पर नाच रही थी। ये हंसी कमबख्त चीज ही ऐसी है।
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