ओमप्रकाश अश्क ( वरिष्ठ पत्रकार )
लालू यादव की रणनीति बिहार में एनडीए पर भारी पड़ रही है। तेजस्वी यादव की मेहनत और लालू के ज्ञान के समन्वय ने एनडीए की आसान राह को अब मुश्किल बना दिया है। हां, यह एहसास लालू अब जरूर करा देते हैं कि गठबंधन चलाने का तरीका उन्होंने भाजपा से सीखा है। गठबंधन सिर्फ सलाह-मशवरे से नहीं चलता। इसमें भी सुप्रीमो की भूमिका जरूरी है।
सुप्रीमो यानी सबकी सुने, मगर करे अपनी। बिहार में पहले से चले आ रहे महागठबंधन में फैसले पहले भी होते थे। इसके लिए सबकी सहमति जरूरी होती थी। रूठे को मनाना पड़ता था। यह दौर तब था, जब लालू जेल में सजा काट रहे थे या बीमार थे। अब वे स्वस्थ हैं और सक्रिय भी। स्वास्थ्य कारणों से सार्वजनिक जगहों पर जाने की मनाही के बावजूद वे मंच पर भाषण कर आते हैं।
गठबंधन की बैठकों में शामिल होते हैं। नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों से वे मिलते भी हैं। इतना ही नहीं, जरूरी मुद्दों पर सोशल मीडिया के जरिए वे सक्रियता भी दिखाते हैं। इसके साथ ही तेजस्वी को सियासत की बारीकियां भी बताते हैं।
बिहार में पहली बार ऐसा हो रहा है कि जिस तरह अपनी पार्टी आरजेडी को लालू हांकते रहे हैं, उसी अंदाज में वे गठबंधन में शामिल सभी दलों को भी हांक रहे हैं।
आश्चर्य कि तमाम उछल-कूद के बावजूद लालू अपनी बात उनसे मनवा लेते हैं। लालू पीएम नरेंद्र मोदी और उनकी एनडीए सरकार की सिर्फ कटु आलोचना ही नहीं करते, बल्कि पीएम और एनडीए नेताओं के वार पर पलटवार भी करते हैं। खुद से अधिक यह काम वे अपने बेटे तेजस्वी से कराना बेहतर समझते हैं।
पीएम नरेंद्र मोदी से लेकर भाजपा या एनडीए के घटक दलों के नेताओं ने लालू के परिवारवाद को चुनावी मुद्दा बना दिया था। पीएम मोदी हों, गृह मंत्री अमित शाह हों या बिहार के सीएम नीतीश कुमार हों, सभी इस मुद्दे को ऐसे उछाल रहे थे, जैसे इसी एक मुद्दे से बिहार की सभी 40 सीटें झोली में खुद ब खुद आ जाएंगी।
नीतीश कुमार भी अपने को भारत रत्न से हाल ही नवाजे गए बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर का सच्चा अनुयाई इसीलिए कहते थे कि उन्होंने परिवारवाद नहीं किया। नीतीश ने भी परिवार के किसी सदस्य को राजनीति में नहीं आने दिया। हालांकि उनका एक ही बेटा है, जिसकी दूर-दूर तक राजनीति में रुचि नहीं है। भाजपा के नेताओं का तो परिवारवादी बता कर लालू-तेजस्वी का नाम लिए बगैर खाना भी शायद ही हजम होता होगा।
लालू ने बेटे तेजस्वी से इसका ऐसा जवाब दे दिया कि सबकी बोलती बंद हो गई। यहां तक कि पीएम मोदी की जुबान भी गुरुवार को जमुई की सभा में नहीं खुली। आरजेडी को यह अंदेशा रहा होगा कि जमुई की समा में मोदी एक बार फिर लालू के परिवारवादी राजनीति पर बोलेंगे ही।
लालू के ज्ञान से तेजस्वी का दिमाग खुला और उन्होंने एनडीए में वंशवादी राजनीतिज्ञों की फेहरिस्त ही मोदी के आगमन से पहले जारी कर दी। उन्होंने सवाल भी उछाल दिया कि इस पर अब एनडीए वाले क्या कहेंगे। शायद तेजस्वी की उस सूची का ही असर था कि न सम्राट चौधरी की इस मुद्दे पर जुबान खुली और न पीएम मोदी के मुंह से इस बारे में कुछ निकला।
सियासत में लालू की प्रासंगिकता आज भी बरकरार है, यह आरजेडी का आदमी तो यकीनन कहेगा। पर, उनके विरोधियों की राजनीति भी लालू नाम के बिना अधूरी रहती है। कोई परिवारवाद के बहाने लालू का नाम लेता है तो कई भ्रष्टाचार के जिक्र के क्रम में उनका उल्लेख करते हैं। तीन दशक बीत जाने के बाद भी जंगल राज का जिक्र कर जीत की उम्मीद लालू के विरोधी पाले हुए हैं। ऐसा सोचने वाले भूल जाते हैं कि नब्बे के दशक के जंगल राज का दु: स्वप्न कबका लोगों की जेहन से उतर चुका है। अब तो जिनकी उम्र 34 साल की हो गई होगी, उन्हें सिर्फ इतिहास की कहानियों की तरह जंगल राज की जानकारी होगी।
और, ऐसे 34 साल की उम्र वाले वोटरों की तादाद बिहार में अभी 47 प्रतिशत है। यह वही पीढ़ी है, जिसे पुरानी बातें बकवास लगती हैं। इन्हें तो पढ़ाई, करियर और इंप्लायमेंट के अलावा कुछ सूझता ही नहीं। और, इस मामले में वे तेजस्वी यादव को इनमें अधिकतर अपना आईकान मानने लगे हैं। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तेजस्वी किसी चारा चोर के बेटे हैं। किसी सजायाफ्ता की संतान हैं।
किसी जमाने में जंगल राज के उनके माता-पिता नायक रहे हैं। उन्हें इससे भी फर्क नहीं पड़ता कि नौकरी के बदले जमीन लेने का उनके पिता पर आरोप है।
टिकट बंटवारे को लेकर हड़बोंग मचाने वाले नीतीश ने साथ छोड़ दिया तो लालू ने मान मनौव्वल नहीं की। महागठबंधन में शामिल दल जितनी सीटों की मांग को लेकर कूद फांद कर रहे थे, उन्हें लालू ने अपने आकलन से गिनी-चुनी सीटें दीं। क्षेत्र भी अपने हिसाब से बांटे। नापसंदगी के बावजूद न कांग्रेस की जुबान खुली और न अन्य दलों की। कांग्रेस की पसंद होने के बावजूद लालू ने पप्पू यादव को पूर्णिया में पटक दिया।
कटिहार में टिकट नहीं मिलने से खफा करीम को एक मुलाकात में मना लिया। वे आरजेडी का बागी उम्मीदवार बनने को बेचैन थे। कन्हैया कुमार को रोकने के लिए कांग्रेस को ऐसी कोई सीट ही नहीं दी, जो उन्हें सूट करे। ओवैसी की एआईएमआईएम की वजह से एम-वाई समीकरण के वोटों में बिखराव का खतरा था।
एक बार की बातचीत में ओवैसी लालू के मुरीद हो गए। बिहार में कभी सात, कभी 11 और कभी 16 सीटों पर उम्मीदवार उतारने की बात कहने वाले एआईएमआईएम के बिहार प्रदेश अध्यक्ष अख्तरुल इस्लाम अब कह रहे कि किशनगंज को छोड़ सीमांचल की किसी भी सीट पर पार्टी उम्मीदवार नहीं देगी। बाकी के बारे में भी बाद में निर्णय लिया जाएगा।
लालू की भौतिक मौजूदगी के कारण बिहार में इस बार लोकसभा का चुनाव एनडीए के लिए आसान नहीं लगता। 40 की बात तो छोड़ दीजिए, 39 सीटों का पिछला रिकॉर्ड कायम रखने में भी एनडीए को कई पापड़ बेलने पड़ सकते हैं। अभी तो परिवारवाद के वार पर पलटवार कर तेजस्वी ने इस मुद्दे को ही गायब कर दिया है। आने वाले दिनों में भ्रष्टाचार और जंगल राज के आरोपों की भी हवा निकालने की तरकीब लालू अपने लाल तेजस्वी को सिखा दें तो कोई आश्चर्य नहीं।