गहलोत सरकार बचाकर वसुंधरा बनी रही ‘किंग मेकर’

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राजस्थान की सियासत में पायलट और गहलोत की रणनीति पर भी भारी रही वसुंधरा के चुप्पी, पूर्व मुख्यमंत्री ने साबित कर दिया कि उनके बिना राजस्थान भाजपा में कोई तख़्त नहीं चढ़ सकता

अनुराग हर्ष

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट की गुरुवार को हुई मुलाकात ने कांग्रेस की अंदरुनी तूफान को शांत कर दिया है लेकिन इस तूफान की लपट भाजपा के घर तक पहुंच गई है जो फिलहाल शांत नहीं हो पाई है।

हालांकि भाजपा की आपसी कलह के अंगारे तो कब से सुलग रहे थे लेकिन अब इसे हवा मिल गई है। नतीजतन आग की लपटे भी नजर आने लगी है। दरअसल, कांग्रेस के एक महीने सिलसिलेवार नौटंकी के अंतिम दिनों में भाजपा की आपसी कलह सामने आनी शुरू हो गई थी।

तत्कालीन उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट ने जब अपनी ही सरकार को ‘अल्पमत’ में कहकर सभी को चौंका दिया था, तब भारतीय जनता पार्टी को जबर्दस्त जोश के साथ सामने आना था और ताबड़तोड़ बल्लेबाजी करनी थी। इसके विपरीत भारतीय जनता पार्टी की ‘राजस्थान रायल्स’ कप्तान (वसुंधरा राजे) ने कोई रुचि नहीं ली।

सोचा गया होगा कि मामला दो-पांच दिन में निपट जाएगा। ऐसा हुआ नहीं। कांग्रेस की रस्सा कस्सी लंबी चली। वसुंधरा राजे फिर भी सक्रिय नहीं हुई। उन्हें पता था कि इतनी रस्सा कस्सी के बाद भी अशोक गहलोत अपनी सरकार बचा लेंगे क्योंकि गहलोत समर्थित विधायकों की संख्या 102 है। पायलट बाहर रहकर भी सरकार को गिरा नहीं सकते। वसुंधरा की सोच शायद सही थी, लेकिन पार्टी के कुछ नेताओं को उनकी चुप्पी नागवार गुजरी। न सिर्फ पार्टी बल्कि समर्थित पार्टी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी तो पूरी तरह से वसुंधरा के खिलाफ आ गई।

रालोपा के सुप्रीमो हनुमान बेनीवाल ने तो यहां तक कह दिया कि वसुंधरा राजे ही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ खड़ी है। कह दिया गया कि वो भाजपा विधायकों को फोन करके कह रही है कि किसी भी स्थिति में सचिन पायलट का समर्थन नहीं करना है। बेनीवाल के आरोप में कितनी सच्चाई थी, यह तो पता नहीं लेकिन इसके बाद वसुंधरा उठ खड़ी हुई।

उन्होंने सबसे पहले राष्ट्रीय नेतृत्व के समक्ष सारी स्थिति को रखा। वो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा से मिली, उन्हें सारी स्थिति से अवगत कराया। इतना ही नहीं वसुंधरा ने हनुमान बेनीवाल की बयानबाजी और उनका समर्थन करने वाले अपने विरोधी खेमे की जमकर कार सेवा भी कर दी। बताया तो यहां तक जाता है कि उसके समर्थन वाले 40 से 45 विधायक आज भी उसके साथ है।

गजेंद्र सिंह की अगुवाई नापसंद
दरअसल, वसुंधरा राजे को केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत की अगुवाई रास नहीं आई। इस पूरे मामले में जब गजेंद्र सिंह का नाम आगे आया तो वसुंधरा पीछे हो गई। वो नहीं चाहती थी कि किसी भी हालत में गजेंद्र सिंह को आगे बढ़ाया जाए। पिछले दिनों जब प्रदेशाध्यक्ष बनाने का मामला उठा, तब भी वसुंधरा ने गजेंद्र सिंह का विरोध किया था।

बताया जाता है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने वसुंधरा को विश्वास में लिए बगैर ही तख्ता पलट की कोशिश की थी, जिसे वसुंधरा ने सिर्फ मौन रहते हुए विफल कर दिया। ऐसा नहीं है कि वसुंधरा ने अशोक गहलोत के समर्थन में स्वयं को मौन रखा, बल्कि अपनी ही पार्टी में स्वयं के खिलाफ बुने जा रहे जाल को काटने के लिए ऐसा किया। पार्टी की निष्ठा को बनाए रखते हुए वसुंधरा ने अपने विरोधियों को धूल धुसरित कर दिया।

केंद्रीय नेतृत्व व आम कार्यकर्ता ने स्वीकारा भी
वसुंधरा राजे दो बार राजस्थान की सत्ता से अपदस्थ हुई है। मजे की बात है कि दोनों ही बार उन्हें प्रदेश की जनता ने नहीं बल्कि पार्टी के कार्यकर्ताओं और बड़े नेताओं ने ही हराया।

दोनों ही बार उनकी छवि को बिगाडऩे का काम भाजपा के नेताओं ने ही किया। यहां तक कि पार्टी विचारधारा को पोषित करने वाले संगठन भी वसुंधरा से इतने नाराज रहे कि चुनाव में हिस्सा तक नहीं लिया। इसके बावजूद वसुंधरा ने इस बार भी 72 सीटों पर जीत दर्ज की। इस बार आम कार्यकर्ता के साथ वरिष्ठ नेतृत्व ने भी स्वीकार कर लिया कि राजस्थान में वसुंधरा के बिना पार्टी की पार नहीं पडऩे वाली।

प्रदेश संगठन पर प्रश्न चिन्ह
सरकार और सत्तासीन पार्टी के बीच इस हद तक विवाद हो और विपक्ष फायदा न उठा सके? यह राजस्थान में ही संभव हुआ। इस स्थिति में प्रदेश नेतृत्व पर सवाल उठने अनुचित नहीं है। प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनिया ऐसा कोई जादू नहीं कर सके, जिससे पार्टी अपनी सरकार बना लें।

31 दिन तक चले सरकार के संघर्ष में भाजपा चंद विधायकों को भी अपने साथ जोड़ न सकी। जब कांग्रेस के एक नेता ने कहा कि वो 72 के 72 विधायकों के वोट लेकर बता दें, तो पार्टी ने अपनी बाड़े बंदी शुरू कर दी। साफ तौर पर पार्टी एक महीने में भी कोई काम नहीं कर सकी। राजेंद्र सिंह राठौड़, गुलाबचंद कटारिया जैसे नेताओं ने इस पूरे मामले को संभाला। गजेंद्र सिंह शेखावत भी कुछ खास नहीं कर पाए। ऐसे में वसुंधरा की चुप्पी सब पर भारी पड़ गई।

अब विश्वास नहीं, स्वयं की एकता का प्रयास
अब पार्टी विश्वास मत हासिल करने की सरकार को चुनौती दे रही है। दरअसल, ऐसे में भाजपा अपने सभी 72 विधायकों की मौजूदगी दिखाना चाहती है। पार्टी का प्रयास रहेगा कि इक्का दुक्का क्रास वॉट करवा दें ताकि अपनी शक्ति दिखा सके।

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