मोदी जी, ये साध्वी न सड़क साफ़ करना चाहती है न सोच !

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सुनील कुमार (संपादक, डेली छत्तीसगढ़)

iमध्यप्रदेश के भोपाल से दिग्विजय सिंह को लाखों वोटों से हराकर सांसद बनने वाली गोडसेवादी साध्वी प्रज्ञा एक बार फिर खबर और आलोचना के घेरे में है। उन्होंने लोगों के बीच और कैमरों के सामने यह कहा कि वे नाली साफ करने के लिए सांसद नहीं बनी हैं, झाड़ू लगाने के लिए सांसद नहीं बनी हैं, वे जिस काम के लिए सांसद बनी हैं उस काम को वे ठीक से करेंगी। देश के अमन-पसंद और समझदार लोगों के बीच पहले से नफरत के लायक मानी जा रही है क्योंकि उन्होंने अपने चुनाव प्रचार के बीच भी, या चुनाव प्रचार के बीच ही, गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के प्रति अपनी निष्ठा और भक्ति सार्वजनिक तौर पर कही थी। यह अलग बात है कि उसके कुछ समय बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनकी बात से असहमति जाहिर करते हुए कुछ कड़े शब्द कहे थे, जिस पर कोई अमल होते दिखा नहीं है। फिर वे खबरों में आईं कि वे खुलकर चुनाव प्रचार कर रही हैं, दौड़-भाग कर रही हैं, महिलाओं की किसी जलसे में कुछ नाचते भी दिख रही हैं, लेकिन वे आतंकी हिंसा के मामले में अदालत से इलाज के नाम पर जमानत पर जेल के बाहर हैं, और अदालत की पेशी पर जा नहीं रही हैं, संसद जा रही हैं।

साध्वी प्रज्ञा की कही यह बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान की बात से मेल नहीं खाती है जिन्होंने सार्वजनिक जीवन में जमीन पर और नालियों में पड़ी गंदगी को साफ करने को एक राष्ट्रीय जिम्मेदारी ठहराने की कोशिश की है। यह एक अलग बात है कि उनकी यह कोशिश महज जमीन और नालियों की भौतिक गंदगी तक सीमित रही है, और सोच और बोली की गंदगी के बारे में वे मौन हैं। साध्वी प्रज्ञा ने एक तरफ तो जमीन और नालियों की गंदगी को साफ करने से साफ मना भी कर दिया है, और दूसरी तरफ सोच और बोली की परले दर्जे की गंदगी को फैलाना उन्होंने अपनी जिम्मेदारी मान लिया है। ऐसे में उनकी कही इस ताजा बात के बारे में कहा जा रहा है कि भाजपा की तरफ से नाराजगी जाहिर करते हुए उन्हें समझाईश दी गई है कि वे ऐसी बात न करें।

लेकिन हम बात पर आते हैं, उसके पीछे के मुंह पर नहीं जाते, तो इसमें अटपटा तो कुछ भी नहीं लगता। लोग अगर सांसद से सड़क और नालियों की गंदगी साफ करने की उम्मीद करते हैं, तो पंचायत-सदस्यों से लेकर शहरी वार्ड मेम्बरों तक की जिम्मेदारी क्या होगी? क्या वे संसद में जाकर देश के व्यापक महत्व के मुद्दों पर चर्चा करके राष्ट्रीय स्तर के कानून बनाने का काम करेंगे? इस बात को ठीक से समझने की जरूरत है कि भारत का निर्वाचित लोकतंत्र तीन सतहों में बंटा हुआ है। राष्ट्रीय स्तर पर संसद है, राज्य के स्तर पर विधानसभा है, और शहर-गांव के स्तर पर म्युनिसिपल-पंचायत हैं। ऐसी व्यवस्था में इन तीनों के निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए जिम्मेदारियां अलग-अलग हैं, और ठीक से तय भी की हुई हैं। सांसद तो दूर, एक विधायक की जिम्मेदारी भी जमीन और नाली की सफाई की नहीं है। इसका अधिकार और इसकी जिम्मेदारी दोनों ही स्थानीय संस्थाओं की है, और इन्हीं के लिए वार्ड मेम्बर चुने जाते हैं, म्युनिसिपिल-अध्यक्ष चुने जाते हैं, और पंच-सरपंच चुने जाते हैं।

लोकतंत्र में अगर सारी जिम्मेदारियों को सब पर लाद दिया जाएगा, तो उसका एक असर यह भी होगा कि कोई जिम्मेदारी किसी की नहीं होगी। देश की संसद के सामने जो मुद्दे हैं, जो मुद्दे रहते आए हैं, और जो आगे रहेंगे, उनके बारे में पल भर को सोचें, तो यह साफ होता है कि निर्वाचित सांसदों को अपनी जमीनी-समझ के अलावा भी बहुत सी पढ़ाई-लिखाई करनी है, बहुत सी बातों को समझना है, अपने इलाके के लोगों से लेकर विशेषज्ञ-जानकारों तक से सीखना है, और उसके बाद संसद में चर्चा में, बहस में हिस्सेदारी करनी है। अगर कोई सांसद इस जिम्मेदारी को ठीक से निभाए, तो उनके लिए पांच साल का पूरा कार्यकाल भी काफी नहीं होता है। वे हर दिन लोगों से मिलकर, लोगों की दिक्कतों को समझें, उनमें से संसद में चर्चा के लायक बातों को वहां पर उठाएं, वहां आने वाले विधेयकों की जटिलता को समझकर संविधान संशोधन करें, या नए कानून बनाएं, या मौजूदा कानून सुधारें, यह काम ही किसी सांसद के लिए भारी-भरकम होता है। ऐसे में अगर साध्वी प्रज्ञा ने कहा है कि वे झाड़ू लगाने या नाली साफ करने के लिए नहीं चुनी गई हैं, तो यह बात भाजपा के लिए एक राजनीतिक असुविधा की तो हो सकती है, लेकिन इस बात में गलत कुछ भी नहीं है, जरा सा भी नहीं है। इस बात को पढ़कर साध्वी प्रज्ञा के आलोचकों को निराशा हो सकती है कि उनकी किसी बात को सही करार देने की हमारी क्या बेबसी है। लेकिन जब उनके बयान के दो दिन बाद भी किसी भी पार्टी के किसी सांसद ने उस बात के मतलब पर कुछ नहीं कहा, तो यह चर्चा जरूरी है।

लोगों को यह अच्छा लगता है कि उनकी छोटी-छोटी बातों के लिए वे अपने सांसद से लेकर विधायक तक, या मुख्यमंत्री की चौपाल तक को शामिल कर लें, और हर जगह से दिक्कत का इलाज पाने की कोशिश करें। लेकिन यह अच्छी नौबत नहीं है क्योंकि इससे लोगों की बुनियादी जिम्मेदारी किनारे रह जाती है, और वे जनता के बीच लुभावने लगने वाले कामों में लग जाते हैं जिनसे वोट प्रभावित हो सकते हैं। ऐसा लुभावनापन अच्छा नहीं रहता है, चाहे वह बहुत सुहावना क्यों न लगे। चाहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का शुरू किया हुआ क्यों न हो, हकीकत यह है कि सफाई की बुनियादी जिम्मेदारी में स्थानीय निर्वाचित संस्थाओं की रहती है, और उस जिम्मेदारी को देश के बाकी लोग अपने कंधों पर उठाकर खुद तो तस्वीरें खिंचवा सकते हैं, स्थानीय संस्थाओं को जिम्मेदारी का अहसास नहीं करा सकते। लोकतंत्र में जिम्मेदारियों के बंटवारे की हकीकत को किनारे करके शोहरत की हसरत से काम करना अच्छी बात नहीं है।

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