मध्यप्रदेश की राजनीति : पीठ दिखाकर ‘चेहरे’ की लड़ाई लड़ती कांग्रेस

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मध्यप्रदेश में खंडवा उपचुनाव को लेकर पारा गर्म है। मिर्ची और गर्मी के लिए मशहूर इस इलाके में कांग्रेस के नेताओं के बीच भी रिश्ते तीखे बने हुए हैं। पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के करीबी अरुण यादव पर संदेह का घेरा खड़ा कर रहे हैं तो यादव ताल ठोंककर कह रहे हैं -मैं सिंधिया नहीं यादव हूँ। भाजपा के खिलाफ लड़ने के बजाय कमलनाथ और अरुण यादव एक दूसरे की तरफ पीठ करके चेहरे की लड़ाई लड़ रहे हैं।

मुकेश गुप्ता (शिक्षाविद )

राजनीति में शह और मात का खेल नया नहीं है, लेकिन नाजुक हालातों में खुद राजा ही अपने मजबूत वजीर को कमजोर करने के लिये अपने प्यादों को सक्रिय कर दे तो इसे राजनीति से अधिक अहंकार की लड़ाई कहना ही उचित होगा।

मध्यप्रदेश कांग्रेस की वर्तमान स्थिति अमूमन ऐसी ही नजर आ रही है, जहां प्रदेश कांग्रेस के सबसे बड़े नेता कमलनाथ और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव के बीच चल रही अहंकार की लड़ाई अब कांग्रेस को ही नुकसान पहुंचाने की हद तक पहुंच गई है।

उपचुनाव की जंग, सामने खड़ी सेना को चुनौती देने और सत्ता पक्ष की चुनौती स्वीकार करने की मांग कर रही है, किन्तु कांग्रेस के दो बड़े नेता एक-दूसरे की ओर पीठ करके ताल ठोंक रहे हैं।

भाजपा इस अंदरुनी उठापटक को मजे लेकर न केवल देख रही है, बल्कि अपने ढंग से प्रचारित भी कर रही है। निमाड़ की लड़ाई 29 जुलाई को भोपाल के मैदान पर नये रूप में शुरू हो गई, जिसमें पूर्व मंत्री सज्जन सिंह वर्मा के बयान ने नये मोर्चे खोलने का काम किया। आहत अरुण यादव ने नई रणनीति पर काम शुरू करके न केवल कमलनाथ को बल्कि भाजपा को भी बैकफुट पर ला दिया ।

यादव रणनीतिक रूप से सही
वैसे तो अरुण यादव और कमलनाथ की राजनैतिक अदावत कोई नई नहीं है, किन्तु ऐन उपचुनाव के पहले इसके सतह पर आने और कमलनाथ के सिपहसलारों के इसमें कूदने से यह पेंचीदगीभरा हो गया है।

कांग्रेस की राजनीति को जानने वाले इस जंग को कांग्रेस कल्चर कहकर महत्व नहीं देना चाहते हैं, जबकि कमलनाथ के सिपहसलार अरुण यादव को सिंधिया बनने को मजबूर करने की कवायद में लगे दिखते हैं।

बीते गुरुवार को भोपाल में आयोजित कांग्रेस की बैठक में अरुण यादव के नहीं पहुंचने की खबरों को मीडिया में बहुत स्थान मिला, किंतु उसके पहले के घटनाक्रम पर बहुत ही कम ध्यान दिया गया।

हकीकत यह है कि अरुण यादव ने अपने तरीके से उस बैठक का बहिष्कार किया, क्योंकि वहां पर निर्दलीय विधायक सुरेंद्र सिंह शेरा की उपस्थिति उन्हें नागवार लगी।

तर्क और भावनात्मक दृष्टि से विचार किया जाये तो अरुण यादव का कदम वाजिब ही कहा जायेगा, क्योंकि सुरेंद्र सिंह शेरा कांग्रेस की महत्वपूर्ण बैठक में किस हैसियत से शामिल किये गये? यह विचारणीय है।

कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी के सामने चुनाव लडऩे वाले सुरेंद्र सिंह ने अवसरवादिता की हदें पार करते हुये पिछले कई मौकों पर भाजपा से नाता बनाया और अब वे ही अपनी पत्नी के लिये लोकसभा का टिकट मांगने बकायदा बैठक में पहुंच गये।

अरुण यादव के लिये यह असहनीय हो गया, जिसके कारण उन्होंने मुकुल वासनिक की उपस्थिति में होने वाली बैठक का बहिष्कार कर अपना विरोध दर्ज कराया।

कृपा दृष्टि की वजह
सुरेंद्र सिंह शेरा के प्रति कमलनाथ के सॉफ्ट कॉर्नर को राजनीति के अतीत और वर्तमान रिश्तों की नजर से पढऩा भी जरूरी है। एक समय में बुरहानपुर के कद्दावर नेता के रूप में इंदिरा गांधी के दरबार में भी विशेष स्थान रखने वाले ठाकुर शिवकुमार सिंह के अनुज होने के नाते सुरेंद्र सिंह के प्रति कृपादृष्टि का नाता रखते हैं कमलनाथ।
जब ठाकुर शिवकुमार सिंह बड़ा वजूद रखते थे तब कमलनाथ दिल्ली में सक्रिय थे और उन दिनों दिल्ली दरबार में इंदिरा गांधी के तीसरे पुत्र की हैसियत रखते थे, अब कमलनाथ मध्यप्रदेश की कांग्रेस के सबसे मजबूत नेता हैं।

दूसरा कारण राजनीति में गणित के फार्मूले की स्वाभाविक परिणति के रूप में है जिसके तहत “दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त” माना जाता है। अरुण यादव से अनबन के चलते सुरेंद्र सिंह शेरा और कमलनाथ स्वाभाविक मित्र बने हुये हैं, हालांकि यह नाता भी तब तक ही जीवित रहेगा जब तब कमलनाथ और अरुण यादव की अदावत बनी रहे।

हालात बदल गए और नाथ सबल हो गये

अब कमलनाथ न केवल गांधी परिवार के करीबी हैं, बल्कि कांग्रेस की डांवाडोल नैया के खैवनहार भी हैं। अब ना तो वे केवल दिल्ली दरबार के वजीर हैं और ना ही मप्र के मुखिया, बावजूद इसके इन दिनों वे कांग्रेस में पहले से कहीं ज्यादा ताकतवर हैं।

पहले लंबे समय तक कमलनाथ मप्र की राजनीति से दूर ही रहे, किंतु अब उनका एक पैर दिल्ली में तो दूसरा पैर भोपाल में जमा हुआ है।

दिल्ली में ममता बैनर्जी से तालमेल की भूमिका हो या पंजाब की अंदरूनी लड़ाई का समाधान खोजना हो, कमलनाथ जिम्मेदार नेता की भूमिका में सक्रिय नजर आये।

साथ ही साथ वे मध्यप्रदेश की राजनीति में भी उसी ऊर्जा से जुटे हुए दिखते हैं, जैसे भाजपा का कोई पराजित मुख्यमंत्री सक्रिय होता है। कमलनाथ स्वयं कई बार दोहरा चुके हैं कि वे मप्र नहीं छोड़ेंगे और मप्र कांग्रेस के अनेक दिग्गज उनको 2023 के विधानसभा चुनाव का मुख्यमंत्री चेहरा स्वीकारने को विवश दिखाई देते हैं।

अरुण यादव को जहां राहुल गांधी से करीबी होने का अभिमान है, वहीं कमलनाथ को गांधी परिवार के सबसे विश्वसनीय लोगों में शुमार होने का गुमान है।

ऐसी स्थिति में कांग्रेस आलाकमान को कमलनाथ की बात को तवज्जो देने की जरुरत है तो ओबीसी नेता के रूप में नई पीढ़ी के नेतृत्व के रूप में अरुण यादव को महत्व देने की मजबूरी भी है।

कमोबेश हर राज्य में कांग्रेस के सामने यह दुविधा ही विकराल रूप में खड़ी है, जिसका बुरा असर कांग्रेस की वास्तविक ताकत पर पड़ता दिख रहा है।

मैं यादव हूँ सिंधिया नहीं

हाल ही में अरुण यादव ने एक ट्वीट करके एकसाथ अनेक जुबानों पर कील ठोंक दी। “मुझ सहित मेरे पूरे परिवार के आगे यादव लिखा है सिंधिया नहीं”, अरुण यादव के इस ट्वीट ने अपनी भाजपा में जाने की संभावनाओं पर पूर्ण विराम लगाते हुये कमलनाथ को भी आगामी वार के लिये निहत्था कर दिया। अपनी रगों में कांग्रेस विचारधारा का खून होने की बात लिखकर यादव ने निमाड़ के कांग्रेस कार्यकर्ताओं में फिर से जोश भर दिया।

गत 29 जुलाई के घटनाक्रम से निमाड़ के सैकड़ों कार्यकर्ताओं में आहत नजर आ रहे थे, उनके लिये अरुण यादव का यह बहुआयामी शब्दबाण दिलों को सुकून देने वाला साबित हुआ।

दो विधायकों के भाजपा में शामिल होने का दंश झेल चुके कांग्रेस कार्यकर्ताओं के लिये आशंकाओं में अहित खोजने की संभावना स्वाभाविक ही मानी जानी चाहिए, इसलिए समय रहते अरुण यादव के बयान में निराशा में आशा की स्थिति तो बना ही दी।

गुरुवार को अनुपस्थिति से मीडिया की सुर्खियों में आये अरुण यादव मंगलवार को बड़वाह विधानसभा मुख्यालय में निलेश रोकडिय़ा द्वारा आयोजित एक रैली में उपस्थित होकर फिर मैदान-ए-जंग में नजर आये।

कांग्रेस के तकरीबन सात सौ कार्यकर्ताओं की रैली को नेतृत्व देकर बड़वाह की सड़कों पर पैदल मार्च करते हुये यादव ने न केवल सरकार को बल्कि संगठन को भी अपनी संघर्ष क्षमता का स्मरण करा दिया।

कमलनाथ भले ही सर्वे के आधार पर टिकट वितरण का राग अलापते रहे पर यह तर्क भाजपा के अनुसरण के साथ-साथ उसकी विसंगति को ही जाहिर करने वाला उपकरण ही साबित होने वाला है।

इसको समझने के लिये पिछले विधानसभा चुनाव पर नजर दौड़ाना लाजमी ही होगा, जिसमें भाजपा ने अनेक सर्वे के बाद भी ऐसे विधायक को टिकट दिया था जो तीस हजार से ज्यादा वोटों से हारकर खुद ही उन सर्वे की सच्चाई को ठेंगा बताने में सफल रहा था।

जो कमलनाथ दिल्ली में दूसरे दलों से मेल मुलाकात करके 2024 का मैच जीतने की संभावना तलाश रहे हैं और मप्र में वे ही भाजपा को पेनल्टी कार्नर देने की भूल कर रहे हैं। पॉलिटिक्सवाला (राष्ट्रीय साप्ताहिक में प्रकाशित ) 

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