उन्माद में जोश बहुत है, पर घाटा भी समझ लीजिये !

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सुनील कुमार (संपादक दैनिक छत्तीसगढ़)

अब जब भारत और पाकिस्तान के बीच सरहद और राजधानियों में तनाव थोड़ा सा थमा है, बढऩा रूका है, तो दोनों देशों के आम लोगों को यह समझना चाहिए कि अपने भावनात्मक उबाल की वजह से वे अपनी सरकारों पर कोई ऐसा दबाव तो खड़ा नहीं कर रहे जिसकी वजह से सरकार किसी ऐसी कार्रवाई को मजबूर हो जो देश को ही महंगी पड़े। जब दो देशों के बीच दुश्मनी का माहौल रहता है तो दूसरे को नुकसान पहुंचाते हुए कोई देश यह हिसाब करना भूल ही जाता है कि किसी टकराहट या जंग में उसे खुद कितना नुकसान होगा। लोग दूसरों के नुकसान को देखकर खुश हो जाते हैं, जिस तरह की एक धारणा हिन्दुस्तान में नोटबंदी के वक्त बनाई गई थी कि देश के गरीब लोग इस बात को देखकर खुश थे कि अमीरों को नोटबंदी से अधिक नुकसान हुआ है। जंग का फतवा देने वाले लोग दूसरे को होने वाले नुकसान को गिनाते हैं, और अपने लोगों को यह समझने ही नहीं देते कि उनका खुद का कितना नुकसान हो रहा है।

दोनों तरफ के आम लोगों को यह समझने की जरूरत है कि राजधानियों में बैठकर हमले, लड़ाई, या जंग के जो फैसले खास लोग लेते हैं, उनका अपना खुद कुछ भी दांव पर नहीं लगा रहता। ऐसे नेता, अफसर, और हथियारों के सौदागर देश को जंग की तरफ धकेलने में अपना कोई नुकसान नहीं पाते क्योंकि सारा खर्च तो गरीब जनता के हक के खजाने से जाता है। ऐसे में समझदार और अमन-पसंद लोगों को सोशल मीडिया पर लगातार फैलाए और बढ़ाए जा रहे नफरत के सैलाब के खिलाफ बोलना या लिखना चाहिए। एक पुरानी कहावत है कि नकली नोट बाजार से असली नोटों को बाहर कर देते हैं। हिन्दुस्तान में नोटबंदी के समय कुछ ऐसा ही हुआ दिखता है क्योंकि अभी-अभी अदालत ने सरकार से एक मामले में पूछा है कि देश में बंद किए गए नोटों की जितनी करेंसी चल रही थी, उससे अधिक नोट बैंकों में वापिस कैसे आ गए? ठीक इसी तरह अफवाहें, बुरी और हिंसक बातें, और जंग के फतवे, नफरत के हमले सोशल मीडिया से भली बातों को बाहर खदेड़ देते हैं, और ऐसा लगने लगता है कि गिने-चुने नफरतजीवी-हमलावर ही मुल्क की आम सोच हैं। जबकि ऐसा रहता नहीं है, और गिनती में हमेशा ही भले लोग कई गुना अधिक रहते हैं, लेकिन उनकी चुप्पी मानो उन्हें जनगणना से बाहर कर देती है।

अब जब सरहद पर लड़ाकू विमानों का आसमान पर आना-जाना थम गया है, तो एक बार फिर समझदार लोगों को वह कोशिश करनी चाहिए जो भारत और पाकिस्तान दोनों तरफ के सबसे गरीब लोगों के जिंदा रहने से जुड़ी हुई है। इन दोनों देशों के नागरिक जब तक अपनी-अपनी सरकारों पर बातचीत के लिए दबाव नहीं डालेंगे, जब तक एक ऐसा समझदार जनमत तैयार नहीं होगा, तब तक चुनाव के दबाव में चलती हुई सरकार, फौज के दबाव में चलती हुई सरकार, या कट्टरपंथी-धर्मान्ध लोगों के कब्जे की सरकार कभी बातचीत का हौसला नहीं कर पाएगी। अभी पिछले हफ्ते की हलचल से यह समझ आ रहा है कि भारत और पाकिस्तान के बीच टकराव को काबू करने में अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप से लेकर सऊदी अरब तक का दखल रहा है, ऐसे में न सिर्फ इन दो देशों, बल्कि बाकी तमाम दोस्त देशों की यह जिम्मेदारी बनती है कि इन दो सरकारों को पकड़कर बातचीत की टेबिल पर लेकर आए।

दिक्कत यह है कि भारत में अगली सरकार बनने में करीब तीन महीने बाकी हैं, और उसके पहले जाती-जाती सरकार की शुरू की गई कोई बातचीत कोई वजन नहीं रखेगी। खुद नरेन्द्र मोदी के लिए वोटरों के बीच यह रूख असुविधा का होगा कि पाकिस्तान से बातचीत की जा रही है। इसलिए भारत के अगले प्रधानमंत्री का नाम सामने आने तक कोई बड़ी हलचल कम से कम सकारात्मक दिशा में तो नहीं हो सकती। यही बहुत रहेगा कि दोनों देश भारतीय चुनाव के बाद तक अपनी-अपनी जमीन के अच्छे या बुरे लोगों को काबू में रखें, और सरहद पर अमन-चैन बने रहने दें। लेकिन भारत में इस चुनाव के बीच भी ऐसे जनमत को बनाने की जरूरत है जो पाकिस्तान के साथ बातचीत से तनाव को खत्म करने की कोशिश करे। ऐसी बात पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान बोल भी चुके हैं, लेकिन उनका चुनाव खासा दूर है, और इसलिए उन्हें ऐसी बात कहने में कोई दिक्कत नहीं है। तब तक दोनों तरफ के अच्छे लोगों को सोशल मीडिया के मार्फत एक अच्छा माहौल बनाना चाहिए।

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