जश्न आरोपियों की मौत का, या लोकतंत्र में अनास्था का?

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हैदराबाद की जिस सामूहिक बलात्कार और जलाकर हत्या से देश कुछ देर को हिल गया था, उसके चारों गिरफ्तार आरोपियों को पुलिस ने आज मुंहअंधेरे एक मुठभेड़ में मार दिया। पुलिस का कहना था कि वह जुर्म का सीन फिर से गढऩे के लिए इन गिरफ्तार लोगों को लेकर मौका-ए-वारदात गई थी, और वहां उन्होंने पुलिस पर हमला कर दिया, भागने की कोशिश की, ऐसे में पुलिस ने उन्हें मार दिया। इनको मारने की फरमाईश देश भर में पहले से चल रही थी, और लोकसभा में जया भादुड़ी ने तो यह मांग भी की थी कि बलात्कार के मुजरिमों को सजा के लिए भीड़ के हवाले कर देना चाहिए जहां उनके चिथड़े उड़ाए जाएं। ऐसे माहौल में हैदराबाद की पुलिस ने एक किस्म से विविध भारती के फरमाईशी कार्यक्रम की तरह काम किया है, और जनता की मुराद पूरी कर दी है। अब जैसा कि कानून कहता है कि मुठभेड़-हत्या या मुठभेड़-मौत, जो भी कहें, उसकी जांच की घोषणा की गई है। जांच की घोषणा से यह याद आया कि अभी चार दिन पहले ही छत्तीसगढ़ में एक हाईकोर्ट जज की गई जांच की रिपोर्ट सामने आई है जिसमें कहा गया है कि सीआरपीएफ और राज्य की पुलिस ने बस्तर में त्यौहार की तैयारी के लिए बैठक करते बेकसूर और निहत्थे आदिवासियों को गोलियों से भून दिया था, और मरने वाले 17 लोगों में 7 नाबालिग भी थे। इस किस्म की थोक हथियारबंद हत्या का मामला जांच रिपोर्ट में साबित होने के बाद अब इन सरकारी वर्दियों का क्या किया जाए? जया भादुड़ी की फरमाईश पूरी की जाए, या देश भर में जगह-जगह आज पटाखे फोड़ते, हैदराबाद पुलिस पर मौके पर फूल बरसाते लोगों की तारीफ की जाए?

सुबह से इस खबर के आते ही जिन लोगों ने प्रतिक्रिया जानने के लिए बाकी लोगों तक यह खबर बढ़ाई, उनमें से काफी लोगों ने इंसाफ के इस तरीके की तारीफ की, क्योंकि इंसाफ का और कोई तरीका तारीफ के लायक रह नहीं गया है। बलात्कार के आरोप में पकड़े गए लोगों को इस तरह मार दिए जाने की तारीफ करने वाले लोग इस बात से भी निराश हैं कि देश में लड़कियों और महिलाओं की, बच्चों की हिफाजत का कोई जरिया नहीं रह गया है, मुजरिमों के हौसले आसमान पर हैं, बलात्कार के आरोपी जेल में रहने के बजाय संसद और विधानसभाओं में हैं, मंत्रिमंडलों में हैं। एक किसी ने सुबह हैदराबाद पुलिस के लिए यह गोपनीय सूचना भी पोस्ट की है कि बहुत से बलात्कारी रायसीना हिल की एक केंटीन में बैठक कर रहे हैं, वहां पहुंचे। जाहिर है कि यह इशारा संसद भवन की केंटीन की तरफ था। कुल मिलाकर देश में आम जगहों पर आम लोगों की हिफाजत से लोग निराश हैं, बहुत बुरी तरह निराश हैं, भ्रष्ट और दुष्ट हो चुकी पुलिस पर लोगों का अधिक ऐतबार नहीं है, उससे लोगों को कोई उम्मीद नहीं है, देश की अदालतों से मुजरिमों को सजा मिलने की कोई उम्मीद नहीं है, और ऐसे में आम जनता को फिल्मी अंदाज वाला एक ऐसा इंसाफ अकेला रास्ता दिख रहा है जिसमें मौके पर ही पुलिस कथित मुजरिमों का हिसाब चुकता कर देती है।

हैदराबाद में आज सुबह आरोपियों को मारने वाली यह उसी देश की पुलिस है जिसने बिना किसी आरोप के महज अपने गांव में त्यौहार की बैठक करने वाले बस्तर के निहत्थे आदिवासियों को घेरकर थोक में मार डाला था। इसलिए पुलिस के हाथों होने वाला इंसाफ उसी वक्त तक अच्छा लगेगा जिस वक्त तक उसकी गोलियों के शिकार आज ताली बजाते फूल बरसाते लोगों के घरवाले नहीं होंगे। इसी देश में बहुत ही गरीब और बेबस लोगों को बड़े-बड़े जुर्म में गिरफ्तार करके बरसों तक उन पर फर्जी मुकदमे चलाने का एक लंबा इतिहास रहा है। बेकसूर लोग चौथाई सदी बाद जाकर भी जेल से बाइज्जत बरी होते रहे हैं। ऐसे में अभी-अभी टीवी की स्क्रीन पर मध्यप्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इन मुठभेड़ मौतों को देश के लिए राहत की सांस कहा है, और यह भी कहा है कि दुष्टों के साथ दुष्टता का सुलूक होना चाहिए। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी इसे पीडि़ता को इंसाफ मिलना कहा है। मायावती ने इसे सराहनीय काम कहा है, उमा भारती ने इसे महिला सुरक्षा की गारंटी का काम कहा है, तेलंगाना के कानून मंत्री ने इसे भगवान की दी हुई सजा कहा है। जाहिर है कि आज नेता कोई न्यायसंगत या तर्कसंगत बात कहने की हालत में नहीं हैं। लेकिन नेताओं से परे भी देश के चर्चित लोग, जया बच्चन से लेकर सायना नेहवाल तक, ऋषि कपूर से लेकर दूसरे चर्चित अनगिनत लोगों तक इस मुठभेड़ मौत/हत्या की तारीफ हो रही है। इस मौके पर अनगिनत लोग इस बात को भी उठा रहे हैं कि मानवाधिकार के हिमायती अब बयानबाजी करने लगेंगे, और मरने वालों के हक गिनाने लगेंगे। न्याय की प्रक्रिया को गिनाने लगेंगे।

इस पल टीवी की स्क्रीन पर पुलिस की तारीफ में नारेबाजी दिख रही है, मुठभेड़ के पुल पर से गुजरती हुई छात्राओं की बस में खुशी के नारे लगाती लड़कियां दिख रही हैं, सड़कों पर आतिशबाजी दिख रही है, आम महिलाएं पुलिस को सलाम कर रही हैं, और पुलिस पर फूल बरसाए जा रहे हैं। कुल मिलाकर देश की न्याय व्यवस्था के प्रति एक बहुत बड़ी अनास्था साबित हो रही है जो कि लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक भी है। यह अनास्था कुछ उसी किस्म की है जैसी इमरजेंसी के दिनों में लोगों को थी कि रेलगाडिय़ां समय पर चलने लगी थीं, और जिनके घरवाले जबरिया नसबंदी के शिकार नहीं हुए थे, मीसा में बंद नहीं थे, उन सबको आपातकाल अनुशासन पर्व लगता था। जैसे आपातकाल अनुशासन पर्व लगता था, वैसे ही आज सुबह की मुठभेड़-मौतें लोगों को इंसाफ लग रही हैं। देश के चर्चित सांसदों, विधायकों, मौजूदा और भूतपूर्व मुख्यमंत्रियों को भी यह इंसाफ लग रहा है, तो इसका मतलब यह है कि संसद और विधानसभाओं के बनाए गए कानून फ्लॉप शो हो चुके हैं, और उसे कोई दर्शक नसीब नहीं हैं, तमाम दर्शक भीड़त्या या मुठभेड़-हत्या पर बरसाने के लिए फूल लाने गए हैं।
यह सिलसिला लोगों की दहशत, उनकी नफरत, और उनकी निराशा को सहलाने वाला तो है, उनके जख्मों पर मरहम लगाने वाला तो है, लेकिन जख्मों पर ठंडक महसूसते लोग यह सोचने को भी तैयार नहीं हैं कि जिन जिंदा इंसानों की चर्बी निकालकर यह मरहम बनाया गया है, हो सकता है कि वे बेकसूर हों, ठीक वैसे ही बेकसूर हों जैसे हिन्दुस्तान में लंबे मुकदमों के बाद बेकसूर साबित होने वाले गरीब रहते हैं। पल भर की यह ठंडक लोगों की उस समझ को भी खत्म कर चुकी है जिसे अपने आसपास के बेकसूरों की बरसों बाद की ऐसी रिहाई याद रहनी चाहिए थी। हिन्दुस्तान की पुलिस जाने कब से बेबस और गरीब लोगों को मुकदमों में झूठे फंसाते आई है, और मुठभेड़ में मारे गए कौन लोग सचमुच ही मुजरिम थे, और कौन से लोग विचलित भीड़ के नारों के दबाव में फर्जी फंसाए गए लोग थे, इसके फैसले और फर्क का भी वक्त अब जनता देना नहीं चाहती। अब लोग वैसा ही इंसाफ चाहते हैं जैसा फिल्मों में होता है, लोग अब अदालती पेशियों की एक, दो, तीन, चार जैसी गिनती गिनना नहीं चाहते, वे अब सीधे अब तक छप्पन तक पहुंचना चाहते हैं, और वैसा ही इंसाफ चाहते हैं। यहां पर यह भी याद दिलाने की जरूरत है कि आज सुबह जिस पुलिस अफसर के मातहत ये मुठभेड़-मौतें हुई हैं, उसी अफसर के मातहत 11 बरस पहले इसी शहर में एक महिला पर एसिड फेंकने के तीन आरोपियों को एक मुठभेड़ में ही मार गिराया गया था। आज इस आला अफसर की तारीफ में इस पुरानी कामयाबी को भी गिनाया जा रहा है।

हिन्दुस्तान में सभ्यता और लोकतंत्र की इससे बड़ी नाकामयाबी और क्या हो सकती है? सभ्यता तो लोगों के बीच की है, और लोकतंत्र के तहत पुलिस से लेकर अदालत तक की वह सारी व्यवस्था है जो कि लोकतंत्र के हक और जिम्मेदारी को लागू करने का काम करती है। खुशी मनाती आम जनता को इस पल बस यही रियायत दी जा सकती है कि लोकतंत्र के ढांचे की पूरी तरह, और बुरी तरह नाकामयाबी के चलते जनता अपनी सभ्यता खो रही है, खो चुकी है, और खोना चाहती है। यह सिलसिला लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। संसद और विधानसभाएं, अदालतें, और समाज भी यह सोचे कि ये कहां आ गए हैं। यह सिलसिला उन नागरिकों के लिए भी खतरनाक है जिनके परिवार के लोग अब तक न भीड़ के हाथों मारे गए हैं, और न ही पुलिस-मुठभेड़ में जिनकी मौत हुई है, और जो अभी जिंदा हैं, और जो अभी बाकी हैं। यह सिलसिला उन तमाम जिंदा लोगों के लिए मौत सरीखा खतरनाक है जो कि इंसाफ के एक नाकामयाब हो चुकी मशीनरी पर भरोसा खो बैठे हैं, और जिंदा हैं, बलात्कार झेलने को, भीड़ के हाथों मौत पाने को, या पुलिस और सुरक्षाबलों के हाथों मासूमियत और बेगुनाही के कत्ल को। ऐसे तमाम लोगों के साथ इस लोकतंत्र में हमदर्दी ही हो सकती है क्योंकि वे अभी जिंदा हैं, और मौत उन तक भीड़ की शक्ल में भी आ सकती है, और वर्दी में भी। जो मारे जा चुके हैं, उनके साथ अब कोई हमदर्दी भी मुमकिन नहीं, वह महज उनके परिवार के साथ हो सकती है कि उनके लोगों को इंसाफ की प्रक्रिया नसीब नहीं हुई। आज लोगों की खुशी लोकतंत्र को श्रद्धांजलि है कि वह अब एक अवांछित संतान, या अवांछित बुजुर्ग की तरह रह गया है। देश के आम लोगों को हमारी शुभकामना कि उनके घर के लोग ऐसा मुठभेड़ी-इंसाफ न पाएं।

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