एक डॉन के मुकम्मल सूफी की हो जाने की दास्तान

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पंकज मुकाती (स्थानीय संपादक प्रजातंत्र )

इकबाल उर्फ़ बाला बेग नहीं रहे। आज की पीढ़ी के लिए अनजान नाम। बाला बेग की कहानी 80-90 के दशक की फिल्मों की तरह है। इंदौर के बंबई बाजार में बाला बेग का साम्राज्य रहा। इस बाजार की गलियों में बाला बेग का ही सिक्का चलता था। बंबई बाजार एक रहस्य और कौतूहल की दुनिया थी। इंदौर के बीचोबीच होकर भी एक अलग दुनिया। इन गलियों से निकले किस्से लोगों में खौफ पैदा करते थे। गलियों में मुजरे की धुन, जुआघर और पैदा किया गया तिलस्म। जितना था, उससे कई गुना ज्यादा किस्से थे गलियों के बाहर। इस सबके पीछे शातिर दिमाग था बाला बेग का। पुलिस के आला अफसर से लेकर सियासतदां भी इस ड्योढ़ी पर अपना माथा टेकने आते थे। बेग गहरी भूरी आंखों के पीछे अपराध और राजनीति के कई राज और साजिशें छिपी रहती थी। स्टाइलिश दाढ़ी और सूट, कोट, टाई के अलावा पठानी पहनकर खुद को किसी हीरो से कम नहीं समझता था ये शख्स।

1984-85 के बाद तो बेग के कारनामों, काले कारोबार ने मानो आसमान छू लिया हो। बम्बई बाजार में करीब 12 फिट चौड़ी सड़कें थी। पर इन सड़कों को दोनों तरफ से दुकानों के अतिक्रमण और हाथठेलों से ऐसे घेर लिया जाता था कि दो दुपहिया वाहन भी एक साथ आसानी से निकल न सकें। जाहिर है पुलिस की गाड़ियां भी नहीं आ सकेगी। पुलिस आती भी तो उनके अड्डे पर कई रास्ते, तहखाने थे, महिलायें पुलिस का रास्ता रोकती। पूरे शहर और प्रदेश में इस गली और इसके बादशाह के नाम का सुनियोजित ढंग से प्रचारित किया गया हौवा था (बिना सोशल मीडिया के) . खुद को हाजी मस्तान का करीबी बताने में ये अपनी शान समझते थे। बाला बेग के पिता करामत बेग पंजाब के नामी पहलवान थे। उनसे वे कुश्ती लड़ने इंदौर आये और फिर यहीं बस गए। उनकी तीन पत्नियों में बाला बेग दूसरी पत्नी के सबसे बड़ी संतान थे। करामत बेग ने बेटे का नाम इकबाल रखा। पर इकबाल ने पिता की तरह कुश्ती के अखाड़े में जोर आजमाने के बजाय,’भाई’ बनने में रूचि दिखाई। इक़बाल अपने कर्मों से बाला बन गए। एक वक्त ऐसा भी आया कि हाजी मस्तान की तरह बाला भी मुस्लिम समुदाय की अदालत अपने घर में लगाने लगे। पारिवारिक विवाद हो या जमीन के मामले बाला की अदालत में फैसला हो गया मतलब अंतिम।

दूसरे अपराधियों तरह इस इकबाल को भी नेता बनने की इच्छा जागी। अपने कामों के विपरीत बेग एक दम शांत दिखता और बातें भी बेहद मीठी करता। यानी नेताओं वाले गुण तो पैदाइशी थे ही। बस, झक सफ़ेद कुरता पाजामा और काला चश्मा लगाए, कूद पड़े चुनावी मैदान में। इंदौर में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बाला बेग के चुनाव लड़ने से ही हुआ। 1989 में बेग लोकसभा चुनाव में उतरे। तब से ही ये सीट बीजेपी के हाथ आई। इसके बाद 1990 के विधानसभा चुनाव में बेग कांग्रेस के महेश जोशी के खिलाफ विधानसभा-3 से मैदान में उतरे। महेश जोशी हार गए, ये सीट बीजेपी के गोपीकृष्ण नेमा ने जीती। इसी चुनाव के बाद बेग के सर से सरकारी सरपरस्ती हट गई। गुंडे, बदमाश या कोई भी रसूखदार सत्ता को तब तक ही सुहाते हैं जब तक वो उनके गुलाम बने रहें। बादशाहबनने की फितरत बेग को ले डूबी (वैसे भी उनकी सल्तनत, सिर्फ चार कमरों को जोड़कर बनाये जुआघर और मुस्लिम वोट बैंक तक ही सीमित थी) .

सितंबर 1991 । एक चूक और इस तारीख ने बदल दी बाला बेग की दुनिया। सांप्रदायिक तनाव के बीच बम्बई बाजार में कुछ लोगों ने पुलिस की चौकी पलट दी। तत्कालीन पुलिस अधीक्षक अनिल धस्माना पूरे दल के साथ बम्बई बाज़ार में घुसे। बेग के घर की छत से महिलाओं ने पुलिस पर पत्थर बरसाए। इस बीच एक पत्थर की शिला धस्माना के अंगरक्षक छेदीलाल दुबे पर गिरी, उनकी मौत हो गई। इसके बाद पुलिस ने ऑपरेशन बम्बई बाजार चलाया। बेग के अड्डोंऔर इलाकों के अतिक्रमण पुलिस ने नेस्तेनाबूद कर दिए। बाला बेग को घर का दरवाजा तोड़कर पुलिस ने पकड़ा। बेग को इस मामले में सजा हुई। सजा के बाद वे कभी इंदौर में सक्रिय नहीं रहे, राजनीति और रसूख दोनों से जैसे उन्हें नफरत हो गई हो, अपना प्रायश्चित का रास्ता चुन लिया । डॉन अब उज्जैन के पास बड़ोद की दरगाह में सेवादार हो गया। अपनी जिद और काम को बीच में न छोड़ने की आदत उन्होंने यहां भी बनाये रखी, एक बार जोदरगाह की चौखट पर गए तो फिर कभी पुरानी दुनिया में नहीं लौटे। अंतिम सांस तक सूफियाना ही रहे। एक डॉन के सूफी हो जाने की दास्तान है इक़बाल बेग।( साभार )

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