वर्ष 2014 के अपने सफल चुनाव अभियान के लिए भाजपा के द्वारा ‘ओगिल्वी एंड मेथर’ नामक एजेंसी की सेवा ली गयी थी, जबकि कांग्रेस ने ‘देंत्सू’ से काम लिया था. वैसे, भारतीय राजनीति में पहली बार किसी एजेंसी की सेवा 1985 के चुनावों में ली गयी थी, जब राजीव गांधी ने ‘रीडिफ्यूजन’ नामक एक एजेंसी को इस काम में लगाया था
भाजपा ने निर्वाचन आयोग को यह रिपोर्ट दी थी कि 2014 के चुनाव अभियान में उसने 714 करोड़ रुपये खर्च किये. इसी तरह, कांग्रेस ने उस वक्त 516 करोड़ रुपये और शरद पवार की राकांपा जैसी एक राज्य की पार्टी ने 51 करोड़ रुपये खर्च करने की बात कही. ज्ञातव्य है कि इसमें इनके प्रत्याशियों द्वारा नकद खर्च किये गये रुपये अथवा उनकी पार्टी की ओर से विभिन्न कंपनियों द्वारा व्यय की गयी रकम शामिल नहीं हैं, क्योंकि भारत में जैसा चलन है, इन चुनावों में पार्टियों की ओर से विभिन्न कंपनियां भी चुनाव प्रचारों में खर्च करती रही
हैं.
मुझे ऐसा लगता है कि 2019 का चुनावी अभियान सकारात्मक तो नहीं होगा. मेरा मतलब यह है कि सत्तापक्ष अथवा विपक्ष से ‘अच्छे दिन’ जैसा दूसरा नारा आने की उम्मीद नहीं है. हमारी अर्थव्यवस्था किसी खास मुकाम पर नहीं पहुंच पायी है और मैं नहीं समझता कि नागरिकों के रूप में हमारा जीवन 2014 की स्थिति से किसी स्पष्टतः भिन्न अवस्था में है. कुछ दिनों पूर्व मैं एक भाजपा नेता से बातें कर रहा था. मुझे यह बताया गया कि अयोध्या मुद्दे को एक बार फिर प्रमुखता दी जायेगी. अभी तो भाजपा इसे नहीं छू रही है, पर बहुत शीघ्र यह स्थिति परिवर्तित हो चुकी होगी. सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई कर रही है और संभव है, उसका फैसला जल्द ही आ जाये. कुछ ही दिनों पूर्व कोर्ट ने सुब्रह्मण्यम स्वामी एवं कुछ अन्य व्यक्तियों की अर्जियां खारिज कर दीं, जो इस मामले में हस्तक्षेप करना चाह रहे थे. कोर्ट ने किसी समझौते के विचार को भी खारिज करते हुए यह बुद्धिमानीभरी टिप्पणी की कि ‘एक भू-विवाद में बीच का कोई रास्ता किस तरह निकाला जा सकता है?’