अजय बोकिल
चाहें तो इसे समाजवादी चुटकी कहें, हिंदुत्व का उपहास कहें या फिर सियासत में योगी के भोगी बनने की विवशता कह लें, लेकिन बबुआ का तंज था मारक। यह एक तिकड़मी जीत के गुब्बारे में चुभोई पिन भी थी। ‘सेक्युलरों’ की जमात में गिने जाने वाले समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने राज्यसभा चुनाव नतीजों के बाद जीत के उल्लास में बूंदी के लड्डू खाते नेताअों को सवाल किया कि क्या सीएम योगी वाकई में नवरात्रि में व्रत रखते हैं या रखते ही नहीं ? अगर रखते तो बूंदी के लड्डू कदापि नहीं खाते। और जब खा ही लिया तो नौ दिन का व्रत कैसे हुआ? इसी बात को सपा के एक एमएलए ने जरा गंवई तरीके से कहा कि आदित्यनाथ तो ढोंगी योगी हैं। इसी बहाने अखिलेश ने यह भी साफ कर दिया कि वे स्वयं नवरात्रि में नौ दिन व्रत रखते हैं और ऐसा कुछ भी ग्रहण नहीं करते जो फलाहार की सूची में शामिल न हो। हालांकि आस्थावान भक्त तो नौ दिनों तक कड़क उपवास रखते हैं। खुद पीएम मोदी भी इन नौ दिनो में केवल जल ग्रहण करते हुए अपने दैनिक काम-काज उसी ऊर्जा के साथ करते हैं।
दरसअल अखिलेश ने यह चुटकी उस वीडियो के सामने आने के बाद की, जिसमें भाजपा नेता राज्यसभा चुनाव में शानदार जीत का जश्न मनाते नजर आ रहे हैं। यूपी के इस राज्यसभा चुनाव में भाजपा ने क्राॅस वोटिंग करवा के अपना नौंवा प्रत्याशी भी जितवा लिया था और विपक्षी एकता का पंछी धराशायी हो गया था। निश्चय ही यह भाजपा के लिए खुद की पीठ थपथपाने का दुर्लभ अवसर था। लखनऊ के प्रदेश भाजपा कार्यालय में पार्टी के दिग्गज अगर इस मौके पर एक दूसरे को बधाई देते और मुंह मीठा कराते दिखे तो इसमें कुछ भी गैर नहीं था। वीडियो साफ बता रहा है कि केन्द्रीय मंत्री पीयूष गोयल सीएम योगी को अपने हाथों से बूंदी का लड्डू खिला रहे हैं और योगी भी उसे खाकर मुग्ध भाव से खुद को धन्य महसूस कर रहे हैं। लगभग यही क्रिया प्रदेश भाजपाध्यक्ष महेन्द्र नाथ पांडेय ने भी दोहराई। हर्षोल्लास के इन क्षणों में यह विस्मरण स्वाभाविक ही था कि जीत की इबारत जिस दिन लिखी गई, वह चैत्र नवरात्रि की सप्तमी तिथि थी। यानी नवरात्रि समापन में दो दिन बाकी थे।
योगी पिछले साल जब मुख्यमंत्री बने थे, तब उनकी भावी जिम्मेदारियों के गुणगान के बीच एक गंभीर सवाल यह भी उछला था कि सीएम पद के अहम दायित्व के बीच वे अपनी नवरात्रि आराधना की पवित्रता को कायम कैसे रख पाएंगे ? हमे बताया गया था कि योगीजी पूरे नौ दिन देवी आराधना में बिताते हैं। उपवास रखते हैं। अष्टमी को कन्या भोज कराते हैं और कन्याअों के पैर पूजन के बाद ही अन्न ग्रहण करते हैं। शारदीय नवरायत्रि में तो वे नौ दिन एकांतवास में ही रहते हैं, वगैरह। अर्थात इन नौ दिनो में वो ऐहिक प्रपंचों से दूर ही रहते हैं।
लेकिन यह सब सत्तासीन होने के पहले की बातें हैं। सत्तारूढ़ होने के बाद धार्मिक कर्मकांड के अर्थ और विधान भी बदल जाते हैं। फिर योगी आदित्यनाथ तो घोषित योगी हैं। वो उस नाथ पंथ से आते हैं, जो शिव और भगवान दत्तात्रेय को मानता है। इस सम्प्रदाय में तंत्र साधना का भी उतना ही महत्व है। योगी शिव के साथ शक्ति के भी भक्त हैं। इसलिए उन्होने नौ दिन उपवास इस साल भी रखे ही होंगे। क्योंकि महज चुनाव जीतने आदि के लिए कोई व्रती अपना संस्कार त्याग नहीं देता। उनकी मां भगवती की उपासना में कोई कमीबेशी रही होगी, ऐसा भी नहीं मानना चाहिए।
हिंदू परंपरा में व्रत में सामान्यत: लोग फलाहार ग्रहण करते हैं। इसके पीछे संयम का भाव है। और फलाहार बोले तो केवल फल, कंद मूल अथवा गैर अनाजी वस्तुएं। अलबत्ता आलू और साबूदाने जैसे आयटम तो उपवास में इसलिए चलते हैं कि भारत में जब तलक इनकी आवक हुई, तब तक हमारे पूर्वज उपवास में प्रतिबं धित आयटमों की लिस्ट फाइनल कर चुके थे। चूंकि बूंदी के लड्डू बेसन से बनते हैं और बेसन चने से बनता है। चना अनाज है, इसीलिए व्रत में त्याज्य है। तो क्या धार्मिक कर्मकांड के जानकार योगी आदित्यनाथ को यह पता नहीं था कि बूंदी के लड्डू से उपवास टूटता है ? या विजय के हर्षोन्माद में व्रती और अव्रती का भेद भी मिट जाता है?
यहां तर्क दिया जा सकता है कि योगी ने बूंदी का लड्डू खाकर नेताअों और कार्यकर्ताअो के आग्रह का मान रखा। इसे व्रतभंग के भाव से देखना संकुचित दृष्टि होगी। आखिर नौवीं राज्यसभा सीट जीत लेना कोई साधारण बात नहीं है। ऐसे में योगीजी ने मावे की जगह बूंदी का लड्डू खा लिया तो कौन सा गुनाह हो गया? इसे एक राजनीतिक योगी के लचीलेपन के रूप में देखा जाना चाहिए। अखिलेश को इस पर उंगली उठाने का कोई हक नहीं है। उनके तंज में पिटे हुए मोहरे की कसक है। कारण अखिलेश राजनीतिक विजयोत्सव को भी नवरात्रि उत्सव के निर्मल आईने में देखने का दुराग्रह पाले हुए हैं। जिस अटूट परिश्रम से भाजपा को यह जीत हासिल हुई, उसकी खुशी में व्रत तो क्या कोई भी नियम तोड़ा जा सकता है। यहां तो महज एक बूंदी का लड्ड़ हजम करने की बात है। ऐसे कई लड्डू भी कम पड़ेंगे। अखिलेश की नजर छोटी है। उन्हें बूंदी के लड्डू को व्रत के दौरान त्याज्य आहार के बजाए राजनीतिक नवरात्रि के महा प्रसाद के रूप में देखना चाहिए। यूं भी प्रसाद में तत्व की जगह सत्व को देखा जाता है। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा भी है कि जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि और निष्काम प्रेमी का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुण रूप में प्रकट होकर प्रीति सहित खाता हूं। जिस महाविजय के लिए कार्यकर्ताअों ने भक्ति भाव से काम किया, उसका प्रसाद ग्रहण करने में योगी को क्यों हिचकना चािहए? वैसे भी आनंद के चरम क्षणों में त्याज्य और ग्राह्य का भेद नहीं रह जाता। जो भक्त बूंदी के लडडू ले आया, वो भी शायद यही सोच कर लाया होगा कि इस इंतिहाई खुशी में यही लड्डू अफोर्ड किए जा सकते हैं। इसे योगी की व्रत निष्ठा से जोड़ कर देखना अन्याय है। यह सब ठीक भी होता, अगर योगी राजपुरूष न होते। आजकल उनके लिए राजनेता का कर्मकांड निभाना प्राथमिकता है। वरना जीत की खुशी तो मात्र चरणामृत पान से भी मन सकती थी। लेकिन राजनीतिक आनंद इससे पूरा नहीं होता। उसका होना ही पर्याप्त नहीं है। वह होता हुआ दिखना भी चाहिए। यह काम लड्डू एक दूसरे के मुंह में ठूंसकर ही संभव है। इससे बूंदी के लड्डू को भी राजप्रतिष्ठा मिली, वरना लड्डुअों की दुनिया में उन्हें पिछड़े वर्ग का ही माना जाता रहा है। यह सत्य पिछड़ों की सियासत करने वाले अडिग व्रती अखिलेश की समझ में कभी नहीं आएगा।
‘राइट क्लिक’
( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 26 मार्च 2018 को प्रकाशित)
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