सोनिया के फैसले के बहाने ही सही हिंदुस्तान के दर्द को समझिये !

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जिस महिला को पांच दशक के बाद भी हिंदुस्तानी बहू मानने  से इंकार होता रहा उसने ही सुध ली इस बेबस अवाम की, क्या यही है देश की #मन की बात #सबका साथ, सबका विकास, 

पंकज मुकाती (राजनीतिक विश्लेषक )

हिंदुस्तान की केंद्र सरकार पाला बदलने में माहिर है। अब तक देश में ये काम विपक्ष करता रहा है। सबसे मजबूत, सबके फौलादी, सिर्फ चार घंटे सोने वाले प्रधानमंत्री की सरकार। अच्छी बात। पर पिछले 15 दिनों में इस सरकार की मजबूती बर्फ की तरह पिघलकर पानी-पानी हो गई। हमेशा की तरह इस बार भी
वही हुआ। बिना सोचे-समझे, बिना चर्चा के मनमाने फैसले। ये सरकार मन की बात से ज्यादा मनमानी के लिए जानी जायेगी। ये तय है कि ये विश्लेषण करने की हिम्मत फिलहाल तो कोई करेगा नहीं। आखिर मनमाने, मनमौजी और मद में चूर सत्ताधीशों से कभी कोई नहीं भिड़ा। पर सालों बाद  इतिहास लिखा गया तो सब सच सामने आया। लॉकडाउन बिना तैयारी के था, दो रविवार थाली पीटने और मोमबत्ती जलाने में गुजर गए। अब हर दिन रविवार है, थालियां रोटी मांग रही है, और मोमबत्ती की तपिश करोड़ों लोगों में लावा बनकर सुलग रही है।

ये वही सरकार है जिसने मजदूरों को अपने घरों तक छोड़ने के लिए भी टिकट के पैसे मांगे हैं। उन मजदूरों से जिनके पास पीने को पानी, खाने को रोटी तक नहीं है। क्या यही है- सबका साथ, सबका विकास की परिभाषा। इस बीच कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने ऐलान किया कि मजदूरों को घर पहुंचाने में खर्च होने वाले पैसे का भुगतान कांग्रेस पार्टी करेगी। ये वही महिला है जिसे आधी सदी बाद भी इस देश के राष्ट्रभक्त हिंदुस्तानी बहू मानने से इंकार करते हैं। बेबस हिंदुस्तान के पक्ष में इसी बहू ने फ़िक्र की। अब आप इसके कई राजनीतिक मायने निकालिये पर आज का सच यही है, हिंदुस्तानी बहू ने घर की फ़िक्र की।

अदूरदर्शी फैसलों का दौर आज का नहीं है, ये लगातार जारी है। कमजोर विपक्ष और  बोझ तले दबा  मीडिया दोनों के कारण भी ये फल-फूल रहा है। नोटबंदी, जीएसटी और अब लॉकडाउन तीनों ही फैसले बिना मुख्यमंत्रियों, सलाहकारों से चर्चा के लिए गए। बिना किसी योजना के ।आपदा है, पर वो अचानक आसमान से नहीं टूटी। पूरे तीन महीने तक विदेशों में इसके हल्ले के बाद आई। तीन महीने हमने क्या तैयारी की?  कुछ नहीं।

इसी तरह अचानक एक सुबह देश को पता लगा कि तेलंगाना से झारखंड के लिए एक मजदूर-ट्रेन रवाना हुई है। शाम तक खबर आई कि कुछ और राज्यों के लिए भी श्रमिक-स्पेशल नाम की गाडिय़ां चलने वाली हैं। रेलवे ने आदेश में यह साफ किया कि अपने मजदूरों के लिए ट्रेन मांगने वाले राज्य को ही ट्रेन का भुगतान करना होगा। फिर दिन गुजरा नहीं था कि ऐसी खबरें आईं कि रेलवे मजदूरों से ही किराया लिया जा रहा है। यह किराया आम रेल टिकट से अधिक भी है। मजदूर बेबस ट्रेन ताकते रहे।
इस बीच कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने यह घोषणा की कि पूरे देश से मजदूरों की ट्रेन का किराया कांग्रेस पार्टी मोदी सरकार को देगी। कांग्रेस के खुद के आर्थिक हालात भी अच्छे नहीं है। पिछले दस सालों में उसके पास चंदा राज्यों के दलों से भी कम आया। सोनिया गांधी की यह घोषणा देश के करोड़ों लोगों के लिए राहत की बात तो है ही, भारतीय राजनीति और शासन व्यवस्था में पिछले कई हफ्तों में यह अकेली इंसानियत की बात भी है।

इस देश में एक बड़ा वर्ग है जो सोनिया गांधी को अब भी इटली का बताता हैं। पांच दशक पहले भारतीय बन चुकी एक बहू को ये तबका इंसान भी मानने से इंकार करता हैं। ऐसे में राजनीतिक चश्मा छोड़कर इस महिला के फैसले को देखिये ( टीवी डिबेट में अर्नब गोस्वामी इसी महिला के बारे में भद्दा बोल रहे थे, क्या वे अब उनके इस काम पर कोई शो करने का साहस दिखाएंगे) सोनिया गांधी के इस अप्रत्याशित फैसले ने केंद्र सरकार को मजबूर कर दिया कि मजदूरों को फ्री में उनके घर भेजा जाए। अब ये तय हुआ कि 85 फीसदी पैसा केंद्र देगा, 15 फीसदी राज्य सरकारें देंगी।

भावनायें, राष्ट्रभक्ति की बातें, धर्मनाद सब अच्छा है। पर थाली, मोमबत्ती और राष्ट्रभक्ति तब ही कारगर है जब इसे गूंथने से पूरा हिंदुस्तान समभाव में दिखे, और आपदा के वक्त आम आदमी को रोटी मिल सके, पर ऐसा नहीं हो रहा। बातों का जो नमक है, वो सिर्फ जख्मों को हरा कर रहा है। क्या इस पूरी सरकार में एक भी ऐसा जमीनी सच को समझने वाला सलाहकार या मंत्री नहीं ? जो ये समझ सके, समझा सके कि भूख से बेहाल भीख पर ज़िंदा मजदूर टिकट का पैसा कहां से लाएगा ? ये नाकामयाबी इसलिए भी है कि देश फील गुड, और शहरों के मॉल तक सीमित रह गया है।

सोनिया गांधी के फैसले को एक तरफ भी रख दें तो भी इस देश के आम आदमी और केंद्र की सरकार को ये सोचना चाहिए कि -क्या मजदूरों से पैसे मांगना ठीक था। यदि थोड़ी भी इंसानियत है तो सड़कों पर  कंधे पर अपनी  80 साल की बूढी मां को लादे अधेड़ बेटे के दर्द, अपने बच्चों को साइकिल पर बांधकर 1500 किलोमीटर तक के सफर को महसूस करिये। कैसे एक मेहनतकश आदमी जिसने पूरी ज़िंदगी पसीना बहाकर रोटी कमाई आज वक्त के हाथों भीख मांगने को मजबूर है। जब तक ये देश उन पैरों के छाले, आँखों में भीख लेने की मजबूरी को नहीं समझेगा कुछ नहीं सुधरेगा। सरकारें आयेंगी,जायेंगी, मोदी-सोनिया के विकल्प आपको मिल जायेंगे पर इन मजदूरों के बिना ये हिंदुस्तान अधूरा रहेगा।

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